रविवार, 10 जुलाई 2011

महान् सोचे, महान् बने।

1) क्रोध से अधिक विश्व की कोई भी वस्तु मानव को कुरुप नहीं बनाती।
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2) क्रोध अपने अवगुणो पर करना चाहिये।
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3) क्रुद्ध व्यक्ति का मुह तो खुला रहता हैं किन्तु नेत्र बन्द रहते है।
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4) मधुर भाषिणी नारी परिवार को स्वर्ग बनाने वाली होती हैं।
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5) मधुर पुष्प धीमे-धीमे उगते हैं, घास जल्दी-जल्दी।
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6) मधुर व्यवहार व्यक्ति को ऊँचा उठाता है।
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7) मधुर वचन बोलना व्यक्तित्व की गरिमा बढाने वाली साधना हैं।
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8) मृत्यु एक मंगलमय महोत्सव:- सुखपूर्वक एवं शोकरहित मृत्यु वरण करने के लिए एक महामन्त्र है, ‘ येनानृत्तनि नोक्तानि प्रीति भेदः कृतो न च। आस्तिकः श्रद्धानश्च स सुखंमृत्युमृच्छति। अर्थात् जिसने कभी असत्य आचरण नहीं किया हो, जिसके अन्दर ईर्ष्या-द्वेष का भाव न हो, जो आत्मा में परम विश्वासी हो तथा जो अच्छाइयों पर अनन्य श्रद्धा-आस्था रखता हो, वही सुखपूर्वक-शांतिपूर्वक महामृत्यु को वरण कर सकता हैं। अतः हम भी सद्चिन्तन, सदाचरण और सद्व्यवहार को जीवन में उतारकर मृत्यु को मांगलिक महोत्सव के रुप में मना सकते है।

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9) मृत्यु एक महोत्सव हैं। इस तथ्य को वही समझ पाता हैं, जिसने अपने सम्पूर्ण जीवन त्याग, सेवा, आदर्श, सचाई और सद्चिन्तन को अपनाया-आत्मसात किया।

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10) मृत्यु भोज और नेग दहेज, इनसे करना हैं परहेज।

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11) मृत्यु से सुन्दर और कोई घटना नहीं हो सकती।

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12) मंगलवार को ऋण लेना अशुभ होता है।

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13) मस्तिष्क स्वयं अपने में ही स्वर्ग को नरक और नरक को स्वर्ग में बदल सकता है।

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14) मन्दिर तोडो, मस्जिद तोडो, इसमें क्या मुजायका हैं। दिल मत तोडो यार किसी का, यह घर खास खुदा का है।

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15) महर्षि पतंजलि ने दुःख को चित्त की चंचलता का परिणाम कहा है। जिसका चित्त जितना ज्यादा चंचल हैं, वह दुःखी भी उतना ही होता है। जहा चंचलता ही नहीं वहा दुःख कैसा। चंचल चित्त वाले व्यक्ति एक छोटी सी घटना से भी बहुत दुःखी हो जाते है, किंतु जिनका चित्त स्थिर हैं, उन्हें भारी-से-भारी दुःख भी विचलित नहीं कर पाते। श्रीमद्भगवत्गीता की भाषा में ‘ न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते। ’’ ( 6/22 )

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16) महाभारत युद्ध में प्रधान सेनापति कर्ण था। उसे हराना असम्भव ठहराया गया था। चतुरता से उसके बल का अपहरण किया गया। कर्ण का सारथी शल्य था। श्री कृष्ण के साथ तालमेल बिठाकर उसने एक योजना स्वीकार कर ली। जब कर्ण जीतने को होता तब शल्य चुपके से दो बाते कह देता, यह कि-तुम सूत पुत्र हो। द्रोणाचार्य ने विजयदायिनी विद्या राजकुमारो को सिखाई है। तुम राजकुमार कहा हो जो विजय प्राप्त कर सको। जीत के समय भी शल्य हार की आशंका बताता । इस प्रकार उसका मनोबल तोडता रहता। मनोबल टूटने पर वह जीती बाजी हार जाता। अन्ततः विजय के सारे सुयोग उस के हाथ से निकलते गये और पराजय का मुह देखने का परिणाम भी सामने आ खडा हुआ।

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17) महापुरुषों की वाणी ही शास्त्र बन जाते है।

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18) महान् कार्य प्रारम्भ में छोटे ही होते है।

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19) महान् कार्य शक्ति के बल पर नहीं, दूरदर्शिता के बल पर सम्पन्न होत है।

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20) महान् सोचे, महान् बने।

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21) महान् उद्धेश्य के लिये महान् धैर्य चाहिये।

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22) महान् व्यक्तियों के लिऐ सम्मान और गौरव जीवन से कहीं अधिक मूल्यवान होता है।

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23) महान् व्यक्तित्व न किसी का अपमान करता हैं और न उसको सहता है।

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24) महान् आदर्श महान् मस्तिष्क का निर्माण करते है।

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