न जाने क्यों, हर कोई भयभीत हैं, डरा हुआ हैं। ज्ञात में, अज्ञात में भय में जी रहा हैं। उठते, बैठते, सोते, जागते भय बना हुआ है। हर कर्म में, भाव में, विचार-व्यवहार में भय हैं। प्रेम में, घृणा में, पुण्य में, पाप में, सब में एक अनजाने भय ने अपनी पैठ बना ली हैं-कुछ इस तरह, जैसे कि हमारी पूरी चेतना भय से बनी व गढ़ी हैं। हम सबके विश्वास, धारणाएँ, यहाँ तक कि धर्म और ईश्वर को हमने भय की भ्रान्ति से ढक रखा हैं।
इस भय का मूल क्या हैं ? इस एक प्रश्न के उत्तर यों तो अनेक मिल जाएँगे, लेकिन इसका मौलिक और एकमात्र सटीक उत्तर हैं-भय का मूलकारण हैं मृत्यु। हमारे मिट जाने की, न होने की सम्भावना ही सारे भय की जड़ हैं। भय का मतलब ही हैं-अपने न होने की, समाप्त हो जाने की आशंका। इस आशंका से बचने की कोशिश सारे जीवन चलती हैं, पर पूरे जीवन दौड़-भाग की भी स्थिति यथावत् बनी रहती हैं। ठीक समय पर मृत्यु का पल आ ही जाता हैं।
दरअसल मृत्यु का भय भी जीवन को खोने का भय हैं। जो ज्ञात हैं, उसके खो जाने का भय हैं। मेरा शरीर, मेरी सम्पत्ति, मेरा यश, मेरी प्रतिष्ठा, मेरे सम्बन्ध, मेरे संस्कार, मेरे विश्वास, मेरे विचार, यही मेरे ‘‘मैं’’ के प्राण बन गऐ हैं। यही ‘‘मैं’’ हो गया हैं। मृत्यु इस ‘‘मैं’ को छीन लेगी, यह भय हैं, परन्तु यथार्थ में यह भय एक भ्रान्ति के सिवाय और कुछ भी नहीं, क्योंकि जिसे हम ‘‘मैं’’ कहते, सुनते और समझते हैं, वही झूठ हैं।
इस झूठ को हटाकर सत्य को अनुभव करना हो तो सभी झूठे तादात्म्यों को तोड़ना होगा। यदि हम उन सभी तथ्यों के प्रति जागरूक हो गए, जिन्हें अब तक ‘‘मैं’’ के रूप में समझते रहे हैं तो तादात्म्य की भ्रान्ति टूटने लगेगी और अनुभव होगा सच्चे ‘‘मैं’’ का, जिसे कभी कोई मिटा नहीं सकता। इस सच्चे ‘‘मैं’’ की अनुभूति में ही भय से सम्पूर्ण मुक्ति हैं।
अखण्ड ज्योति सितम्बर 2010
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