एक व्यक्ति को लगा कि वह मर गया हैं। वह जिन्दा था लेकिन मन में एक पागलपन सवार हो गया कि वह मर गया है। जब उसका कोई दोस्त रास्ते में मिल जाता, तब वह पूछ बैठता, ‘‘मित्र तुम्हें पता चला ? दोस्त पूछता ‘‘किस बात का ? वह कहता हैं कि मैं मर गया हूं।’’ शुरू-शुरू में तो दोस्तों ने उसे मजाक माना, फिर लगा कि मामला गम्भीर हैं। परिवार के लोग उसे एक मनोवैज्ञानिक के पास ले गए। मनोवैज्ञानिक ने पागल से पूछा, ‘‘अगर हम किसी मुर्दा व्यक्ति को चीरा लगाएं तो खून निकलेगा या नहीं ?’’ उसने कहा, ‘‘ डाक्टर साहब खून तो जिन्दा आदमी को चीरा लगाने पर ही निकलता हैं। ’’ मनोवैज्ञानिक अपनी इस तरकीब पर बड़ा खुश हुआ। उसको लगा कि अब समस्या का समाधान निश्चित हो जाएगा। उसने पागल व्यक्ति को पकड़ा और एक दर्पण के सामने खड़ा कर दिया और हाथ में चीरा लगा दिया। चीरा लगाते ही खून का फव्वारा फूट पड़ा। मनोवैज्ञानिक ने पूछा, ‘‘अब बताओ, तुम मरे हो या जिन्दा। पागल बोला, डाक्टर साहब ! गलतफहमी थी मुझे। अभी तक तो मैं यही मानता था कि मुर्दे में खून नहीं होता, पर आज मालूम पड़ गया कि मुर्दे में भी खून होता हैं।’’
जिसने तय कर लिया कि 4 और 5 दस होते हैं, उसे समझाना कठिन हैं। सोए हुए को जगाना बड़ा आसान हैं, लेकिन जो सो नहीं रहा हैं सिर्फ सोने का बहाना करके लेटा हैं उसे जगाना मुश्किल हैं, बड़ा कठिन हैं।
-मुनि तरूणसागर
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