रविवार, 20 मार्च 2011

विज्ञान के दो पक्ष

विज्ञान के दो पक्ष हैं। एक पदार्थ विज्ञान, दूसरा चेतना विज्ञान (आत्म-विज्ञान)। दोनों का अपना-अपना कार्यक्षेत्र और अपना-अपना प्रतिफल है।

चेतना के सम्बन्ध में लोग कुछ कहते सुनते तो रहते हैं, पर उस सत्ता का स्वरूप, उद्देश्य, आनंद खोजने के लिए उत्साहित नहीं होते।

कारण भौतिक क्षेत्र के लिए आकर्षित उत्तेजित हुई मनोभूमि अपना समूचा चिंतन और कर्तृत्व इसी एक केन्द्र पर नियोजित किये रहती है। यह सब चलता और बढ़ता भी इसलिए रहता है की उसके लाभ परिणाम तत्काल प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगोचर होते हैं।

शरीर प्रत्यक्ष दीखता है। वैभव प्रत्यक्ष दीखता है। विनोद का प्रत्यक्ष अनुभव होता है। वाहवाही लूटने में भी अहंता की पूर्ति होती है। इसी परिधि में सामान्य जन सोचते और दौड़-धूप करते पाए जाते हैं।

जबकि चेतना का आत्मिक क्षेत्र गहराई में उतरने, अंतर्मुखी होने और बारीकी से समझने पर स्पष्ट होता है।

इतना झंझट कौन उठाये? तात्विक दृष्टिकोण कौन अपनाये? उथला स्तर उथली उपलब्धियों से संतुष्ट हो जाता है। बच्चों के लिए गुब्बारा, झुनझुना, चॉकलेट, बिस्कुट ही बहुत कुछ है। उसे बालू के घरोंदे बनाने और टूटी टहनियों के बगीचे लगाने में उत्साह रहता है क्योंकि उन कृतियों का प्रतिफल चर्मचक्षुओं से दृष्टिगोचर होता है।

बालबुद्धि की सीमा प्रत्यक्षवाद तक ही सीमित है। जो तत्काल हाथ लगा वही सब कुछ है। इन प्रयासों की मानवी परिणति प्रतिक्रिया क्या हो सकती है, यह सोच सकना दूरदर्शी विवेकशीलता का काम है, किन्तु कठिनाई यह है कि उस दिव्य दृष्टि को विकसित होने का अवसर ही नहीं मिला।

कल्पना, विचारणा, कुशलता, चतुरता जैसे सभी पक्ष भौतिक उत्पादन उपभोग में ही लगे रहते हैं। इतना अवसर, अवकाश ही नहीं मिलता कि चेतना की सत्ता, शक्ति और महत्ता को गंभीरतापूर्वक समझने का प्रयत्न कर सके।

- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
वांग्मय क्र. २ - जीवन देवता की साधना- आराधना -१.११

Look Deep, Look Inside....

Science has two fields — The material field and The spiritual field (the realm of consciousness). Both these fields operate in their own unique area and yield their own distinct rewards.

People hear or talk about consciousness but rarely become enthusiastic about the deeper meaning into its manifestation, its purpose and the bliss it can offer.

The human mentality in general is conditioned to the material world and therefore its thoughts and efforts usually remain focused on the material world. This pursuit is encouraged by the fact that the gains and results in the material world are quite self evident i.e. they can be seen or perceived physically.

For example, we can touch and see our body, we can see material wealth, and we can experience pleasure. Fame earned through material gains appeases our ego, thus most people only think and act within the sphere of the material world.

On the other hand, the field of consciousness can be experienced only when one dwells deeper into it, becomes introspective and seeks to understand it thoroughly.

Who is willing to put in the hard efforts? Who would like to adopt a deeper spiritual outlook which is required for such pursuit? An ordinary mind is content with ordinary things. For example, a balloon, a chocolate, or a biscuit will make innocent children feel happy. They love to make sand-castles and pretend gardens because they can instantly see the results of their efforts.

Naive minds cannot think beyond what it can see and requires instant results is everything. It takes some serious farsighted thinking to sense the consequences of having such a mentality.Unfortunately, it deprives people of a valuable opportunity to develop divine vision.

The faculties of imagination, thinking, talent, etc. would all remain preoccupied in procuring and enjoying material pleasures. This would leave almost no time or opportunity for any meaningful efforts towards knowing the authority, power and importance of consciousness i.e. the spiritual realm.

- Pt. Shriram Sharma Acharya
Translated from -
The complete works of Pt. Shriram Sharma Acharya
(Jeevan Devta Ki Sadhna Aradhana) Vol 2 - Page 1.11

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