रविवार, 20 मार्च 2011

हम पुरुष से पुरुषोत्तम बनें

मानवीय शक्तियों का कोई अन्त नहीं, वे इतनी ही अनन्त हैं जितना यह आकाश | ईश्वरीय चेतना का प्रतीक प्रतिनिधि मानव प्राणी उन सब सामर्थ्यों को अपने अन्दर धारण किये हुए है, जो उनके पिता परमेश्वर में विद्यमान हैं |

यदि आत्मा और परमात्मा का संयोग सम्भव हो सके तो साधारण-सा दीन-दीख पड़ने वाला व्यक्ति नर से नारायण बन सकता है और उसकी महानता परमात्मा जितनी ही विशाल हो सकती है |

आत्मा और परमात्मा में अन्तर उत्पन्न करने वाली माया और कुछ नहीं, केवल अज्ञान का इतना सा कलेवर मात्र है |

भौतिक आकर्षणों, अस्थिर संपदाओं और उपहासास्पद तृष्णा वासनाओं में उलझे रहने से मनुष्य के लिए यह सोच समझ सकना कठिन हो जाता है कि वह जिस अलभ्य अवसर को - मनुष्य शरीर को - प्राप्त कर सकता है वह एक विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही होना चाहिए | शरीर का ही नहीं आत्मा का भी आनन्द ध्यान में रखना चाहिए |

यदि हम अपने स्वरूप और कर्त्तव्य को समझ सकें और तदनुकूल करने के लिए तत्पर हो सकें तो इस क्षुद्रता और अशान्ति से सहज ही छुटकारा पाया जा सकता है जिसके कारण हमें निरंतर क्षुब्ध रहना पड़ता है |

अज्ञान की माया से छुटकारा पाना ही मनुष्य का परम पुरुषार्थ है | ऐसे पुरुषार्थी को ईश्वरीय महानता उपलब्ध हो सकती है और वह पुरुष से पुरुषोत्तम बन सकता है |

- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


Oh child of God ! be God !

Human powers, abilities are unlimited and are as infinite as the sky. Every human being is a symbolic representative of the divine consciousness. He possesses within himself all those abilities that are present in his Father - the Almighty.

If the Yog [union] of a soul and the Supreme Soul is made possible; even a meek and most normal-seeming human being can become the Supreme Being - God and his greatness will be equally vast.

Maya is the one, which fabricates the difference between the soul and Supreme Soul, and she is nothing more than a mere veil of ignorance.

As we are entangled in worldly attractions, running after fickle wealth and ridiculously greedy desires it's difficult for us to understand that the unusually rare opportunity of possessing a human body has been given to us and it must be used for the fulfilment of a specific purpose. Let us just not worry about the pleasures of the body but also keep in mind the contentment of the soul.

If we realize our true nature, understand our duties and resolve promptly to do as needed, we can easily get rid of the sense of insignificance and unrest, which constantly unnerves us.

To break free from this spell of ignorance is the supreme duty of any human being.

The person who performs this duty faithfully can lay claim to the greatness of God the Almighty and become God Himself.

- Pt. Shriram Sharma Acharya

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