अभी इन दिनों युग-परिवर्तन के प्रचण्ड अभियान का शुभारम्भ हुआ है । ज्ञान यज्ञ की हुताशन वेदी पर बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक क्रान्ति की ज्वाला प्रज्जवलित करने वाली आहुतियाँ दी जा रही हैं । जन्मेजय के नाग यज्ञ की तरह फुफकारते हुए विषधर तक्षकों को ब्रह्म तेजस्, स्वाहाकार द्वारा घसीटा ही जायगा तो उस रोमांचकारी दृश्य को देखकर दर्शकों के होश उड़ने लगेंगे । वह दिन दूर नहीं जब आज की अरणि मन्थन से उत्पन्न स्फुल्लिंग शृंखला कुछ ही समय उपरान्त दावानल बनकर कोटि-कोटि जिह्वाएँ लपलपाती हुई वीभत्स जंजालों से भरे अरण्य को भस्मसात करती हुई दिखाई देंगी ।
अभी भारत मे-हिन्दू धर्म में-धर्ममन्च से, युग निर्माण परिवार मे यह मानव जाति का भाग्य निर्माण करने वाला अभियान केन्द्रित दिखाई पड़ता हैं । पर अगले दिनों उसकी वर्तमान सीमाएँ अत्यन्त विस्तृत होकर असीम हो जायेंगी । तब किसी संस्था-संगठन का नियन्त्रण निर्देश नहीं चलेगा वरन् कोटि-कोटि घटकों से विभिन्न स्तर के ऐसे ज्योति-पुंज फूटते दिखाई पड़ेंगे,जिनकी अकूत शक्ति द्वारा सम्पन्न होने वाले कार्य अनुपम और अदभुत ही कहे जायेंगे । महाकाल ही इस महान परिवर्तन का सूत्रधार हैं और वही समय अनुसार अपनी आज की मंगलाचरण थिरकन को क्रमशःतीव्र से तीव्रतर, तीव्रतम करता चला जायगा । ताण्डव नृत्य से उत्पन्न गगनचुम्बी ज्वाज्वल्यमान आग्नेय लपटों द्वारा पुरातन को नूतन में परिवर्तित करने की भूमिका किस प्रकार,किस रूप में अगले दिनों सम्पन्न होने जा रही हैं, आज उन सबको सोच सकना, कल्पना परिधि में ला सकना सामान्य बुद्घि के लिए प्रायः असंभव ही हैं । फिर भी जो भवितव्यता हैं वह होकर रहेगी । युग को बदलना ही हैं, आज की निविड़ निशा कल के प्रभातकालीन अरूणोदय में परिवर्तित हो कर रहेगा ।
-वाङ्मय ६६-३-३९,४०
हम इन दिनों विभूतियों को प्रेरणा देने के कार्य में लगे हैं और यह प्रयास आरंभ भले ही छोटे क्षेत्र से हुआ हो पर अब अधिकाधिक व्यापक विस्तृत होता चला जा रहा है । युग परिवर्तन की भूमिका लगभग महाभारत जैसी होगी । उसे लंकाकाण्ड स्तर का भी कहा जा सकता है । स्थूल बुद्धि इतिहासकार इन्हें भारतवर्ष के अमुक क्षेत्र में घटने वाला घटनाक्रम भले ही कहते रहें पर तत्वदर्शी जानते हैं कि अपने-अपने समय में इन प्रकरणों का युगान्तरकारी प्रभाव हुआ था । अब परिस्थितियाँ भिन्न हैं । अब विश्व का स्वरूप दूसरा है । समस्याओं का स्तर भी दूसरा ही होगा, भावी युग परिवर्तन प्रक्रिया का स्वरूप और माध्यम भूतकालीन घटनाक्रम से मेल नहीं खा सकेगा किन्तु उसका मूलभूत आधार वही रहेगा जो कल्प-कल्पान्तरों से युग-परिवर्तनकारी उपक्रमों के अवसर पर कार्यान्वित होता रहा है ।
युग निर्माताओं की इस सृजन सेना के अधिनायकों के उत्तरादयित्व का भार वहन कर सकने में समर्थ आत्माओं को साधना-सत्रों में अभीष्ट अनुदान के लिए बुलाया जाता रहता है । यहीं प्रक्रिया विकसित होकर विश्वव्यापी बनने जा रही है । परिवर्तन न तो भारत तक सीमित रहेगा और न उसकी परिधि हिन्दू धर्म तक अवरुद्ध रहेगी । परिवर्तन विश्व का होना है । निर्माण समस्त जाति का होगा । धरती पर स्वर्ग का अवतरण और मनुष्य में देवत्व का उदय किसी देश, जाति, धर्म, वर्ग तक सीमित नही रह सकता उसे असीम ही बनना पड़ेगा । इन परिस्थितियों में युग निर्माण प्रक्रिया का विश्वव्यापी होना एक वास्तविक तथ्य है ।
-वाङ्मय ६६-३-४०,४१
युग परिवर्तन की घड़ियों में भगवान अपने विशेष पार्षदों को महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ सम्पादित करने के लिए भेजता है । युग-निर्माण परिवार के परिजन निश्चित रूप से उसी शृंखला की अविच्छिन्न कड़ी है । उस देव ने उन्हें अत्यन्त पैनी सूक्ष्म-दृष्टि से ढूँढा और स्नेह सूत्र में पिरोया है । यह कारण नहीं है । यो सभी आत्माएँ ईश्वर की सन्तान हैं, पर जिन्होंने अपने को तपाया निखारा है उन्हें ईश्वर का विशेष प्यार-अनुग्रह उपलब्ध रहता है । यह उपलब्धि भौतिक सुख-सुविधाओं के रूप में नहीं है यह लाभ की प्रवीणता और कर्मपरायणता के आधार पर कोई भी आस्तिक-नास्तिक प्राप्त कर सकता है । भगवान जिसे प्यार करते हैं उसे परमार्थ प्रयोजन के लिए स्फुरणा एवं साहसिकता प्रदान करते हैं । सुरक्षित पुलिस एवं सेना आड़े वक्त पर विशेष प्रयोजनों की पूर्ति के लिए भेजी जाती है । युग-निर्माण परिवार के सदस्य अपने को इसी स्तर के समझें और अनुभव करें कि युगान्तर के अति महत्त्वपूर्ण अवसर पर उन्हें हनुमान अंगद जैसी भूमिका सम्पादित करने को यह जन्म मिला है । इस देवसंघ में इसलिए प्रवेश हुआ है । युग-परिवर्तन के क्रिया-कलाप में असाधारण आकर्षण और कुछ कर गुजरने के लिए सतत अन्तःस्फुरण का और कुछ कारण हो ही नहीं सकता । हमें तथ्य को समझना चाहिए । अपने स्वरूप और लक्ष्य को पहचानना चाहिए और आलस्य प्रमाद में बिना एक क्षण गँवाये अपने अवतरण का प्रयोजन पूरा करने के लिए अविलम्ब कटिबद्ध हो जाना चाहिए । इस से कम में युग-निर्माण परिवार के किसी सदस्य को शान्ति नहीं मिल सकती । अन्तर्रात्मा की अवज्ञा उपेक्षा करके जो लोभ-मोह के दलदल में घुसकर कुछ लाभ उपार्जन करना चाहेंगे तो भी अन्तर्द्वन्द्व उन्हें उस दिशा में कोई बड़ी सफलता मिलने न देगा । माया मिली न राम वाली दुविधा में पडे़ रहने की अपेक्षा यही उचित है दुनियादारी के जाल-जंजाल में घुसते चले जाने वाले अन्धानुयायियों में से अलग छिटक कर अपना पथ स्वयं निर्धारित किया जाय । अग्रगामी पंक्ति में आने वालों को ही श्रेय भाजन बनने का अवसर मिलता है महान प्रयोजनों के लिए भीडे़ तो पीछे भी आती रहती हैं और अनुगामियों से कम नहीं कुछ अधिक ही काम करती हैं परन्तु श्रेय-सौभाग्य का अवसर बीत गया होता है । मिशन के सूत्र संचालकों की इच्छा है कि युग निर्माण परिवार की आत्मबल सम्पन्न आत्मायें इन्हीं दिनों आगे आयें और अग्रिम पंक्ति में खड़े होने वाले युग-निर्माताओं की ऐतिहासिक भूमिकायें निबाहें । इन पंक्तियों का प्रत्येक अक्षर इसी संदर्भ से ओत-प्रोत समझा जाना चाहिए ।
- वाङ्मय ६६-३-४१
संसार मे दिन-दिन बढ़ती जाने वाली उलझनों का एकमात्र कारण मनुष्य के आन्तरिक स्तर, चरित्र दृष्टिकोण एवं आदर्श का अधोगामी होना है । इस सुधार के बिना अन्य सारे प्रयत्न निरर्थक हैं । बढ़ा हुआ धन, बढ़े हुये साधन, बढ़ी हुई सुविधाएँ कुमार्गगामी व्यक्ति को और भी अधिक दुष्ट बनायेंगी । इन बढ़े हुए साधनों का उपयोग वह विलासिता, स्वार्थपरता, अहंकार की पूर्ति और दूसरों के उत्पीड़न में ही करेगा । असंयमी मनुष्य को कभी रोग-शोक से छुटकारा नहीं मिल सकता, भले ही उसे स्वास्थ्य सुधार के कैसे ही अच्छे अवसर क्यो न मिलते रहें ।
-वाङ्मय ६६-३-५३
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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