‘‘साधु-ब्राह्मणों के देव समुदाय से पूछना पड़ेगा कि वे व्यक्तिगत सुविधाओं में कटौती करके सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन की सेवा-साधना के लिए क्यों अपने को समर्पित करते रहे है। ऋषियों ने गरीबों जैसा बाना क्यों पहना ? इसका उत्तर भी उसी समाधान के साथ जुड़ा है, जिसमें खाने कि तुलना में खिलाने का जायका अत्यधिक स्वादिष्ट पाया जाता है। ईश्वरचंद्र विद्यासागर, भामाशाह, मांधाता, अशोक, हर्षवर्धन से पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने अपनी संपदा विलास कि लिए, उत्तराधिकारियों के लिए जोड़कर क्यों नहीं रखी ? बुद्ध और गांधी से पूछा जाना चाहिए कि वे अपने बुद्धि कौशल से वैभव खरीदने की समझदारी से क्यों अछूते रह गए ?’’
‘‘वस्तुतः इन दिनो प्रवाह भी कुछ ऐसा बह चला है, जिससे पशु-प्रवृत्तियों के क्षेत्र में श्रृगालों जैसा कुहराम मचाने वाले वरिष्ठता के दावेदार बनते हैं और नीरक्षीर-विवेक वाले- राजहंस की बिरादरी वाले मूर्खता के लांछन से लदते और उपहासयास्पद बनते हैं। यथार्थता हमेशा वही रहेगी। मानवीय गरिमा के अनुरूप कर्तव्य पालन को सदैव श्रेय मिलेगा तथा उनके चरणों पर लोकचेतना का भावभरा मस्तक शत्-शत् नमन करेगा।’’
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