इसके लिए उनकी सराहना काफी नहीं, उनकी जीवन साधना अपनानी होगी
[कबीर और युगऋषि में अभेद की बात नैष्ठिक परिजन भली प्रकार जानते है । कबीर जयंती (२६ जून) के संदर्भ में उन्हीं (युगऋषि) की प्रेरणा से उभरे कुछ भाव-सुमन उन्हीं के श्री चरणों में अर्पित हैं । इनकी सुगंध श्रद्धालु पाठकों, परिजनों के मन-मानस में भी उभरे, सारे वातावरण को सुवास से भर दे, ऐसी मंगल कामना सहित निवेदित ।]
कबीर का कमाल
सभी को पता है कि कबीर के पुत्र का नाम रखा गया 'कमाल' । इस शारीरिक संयोग के परे भी कबीर के जीवन में 'कमाल' ही होता रहा । कमाल से कम कुछ करने का जैसे उनका स्वभाव ही नहीं रहा ।
जो लोग जीवन के विकास के लिए परिस्थितियों की प्रतिकूलता का रोना रोते रहते हैं, उनके लिए कबीर का जीवन संजीवनी बूटी से किसी प्रकार कम नहीं । माता-पिता का पता नहीं, हिन्दू-मुसलमान दोनों से उपेक्षित, कोई कहे म्लेच्छ-कोई कहे काफिर, लिखना-पढ़ना सीख नहीं सके, जुलाहे का छोटा समझा जाने वाला काम करके किसी प्रकार जीवन बिताया । लौकिक रूप से उनका जीवन प्रतिकूलताओं-विसंगतियों से भरा रहा ।
लेकिन वाह रे कबीर! उन प्रतिकूलताओं-विसंगतियों की कोई शिकायत नहीं । मालिक ने जो नहीं दिया, उसे महत्त्व नहीं दिया । मालिक द्वारा मनुष्य को दी गई अद्भुत संभावनाओं को देखा-समझा और साकार कर दिखाया । कुरूप और दुर्गंधयुक्त कीचड़ जैसी परिस्थितियों में वे कमल की तरह दिव्य सौन्दर्य और सुगंध लेकर विकसित हुए ।
उनकी आँखों को स्वार्थी समाज ने कागज पर लिखा ज्ञान पढ़ने की कला भले ही नहीं सिखाई, किंतु उन्होंने अन्तःचेतना के निदेर्शों के सहारे प्रकृति तथा जीवन के गूढ़-सनातन सत्यों-रहस्यों को पढ़ने-समझने में कमाल हासिल कर लिया । इसीलिए किताबी ज्ञान के सहारे उन्हें चुनौती देने वाले कथित पंडितों को उन्होंने बड़े सहज, प्रौढ़ और आत्मीयता भरे अंदाज में यह कहकर निरुत्तर कर दिया कि 'तू कहता कागद के लेखी, मैं कहता आँखिन की देखी ।'
आजीविका के लिए हाथ से चलने वाले करघे पर कपड़ा बुनने से अधिक और कोई कौशल भले ही उन्हें नहीं सिखाया गया, किंतु उन्होंने कपड़े के ताने-बाने के सहारे जीवन के ताने-बाने का रहस्य जरूर समझ लिया । उन्होंने जीवन की चादर बुनने, इच्छित रंग में रंगने तथा उपयोग करते हुए भी उसे बेदाग रखने की अद्भुत महारत जरूर हासिल कर ली । सहज भाव से जीवन की चादर बुनने का मर्म 'झीनी-झीनी बीनी चदरिया' लिखकर बता गये ।
लोग कहते रहते हैं 'चादर' ओढ़ने से मैली तो होगी ही, लेकिन जीवन साधना के ममर्ज्ञ के रूप में उन्होंने सहज अभिव्यक्ति दी कि जीवन जीना एक कला है । जीवन की चादर को यदि सावधानीपूर्वक प्रयोग में लाया जाय, तो उसे बेदाग भी रखा जा सकता है । 'दास कबीर जतन तें ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया'- है न कमाल ?
ऐसा व्यक्ति जिसने 'मसि कागज छुओ नहिं, कलम गही नहिं हाथ' लेकिन कविता में सहज बोधगम्य पदों से लेकर 'गूढ़तम उलटबासियों' तक उनकी काव्य क्षमता में कितने प्रकार के मनोरम रंग दिखाई देते हैं?
सामाजिक कुरीतियों पर उनके प्रहारों से लेकर ब्रह्मज्ञान की गूढ़ताओं पर काव्यमय अभिव्यक्तियाँ अपने आप में अनोखी दिखाई देती हैं । उनके जीवन के किसी पन्ने को खोलो तो उसे पढ़-समझ कर यही भाव मन से निकलते हैं कि वाकई उन्होंने हर क्षेत्र में 'कमाल' पैदा किया ।
कहत कबीर सुनो भई साधो
जीवन में कमाल हासिल करने की कामना सभी के मन में उभरती है । कबीर अपने कमाल पैदा करने के करिश्मे छिपाना नहीं चाहते, इसीलिए वे खुला आमंत्रण देते रहते हैं -
कबीर ने जो पाया-समझा, उसे वे सबको हस्तांतरित करने को तैयार हैं, लेकिन उसके उपयोग की आवश्यक शर्ते भी अपनी सहज भाषा में स्पष्ट करते रहते हैं । कबीर जो कह रहे हैं उसे साधु स्वभाव के, सज्जनों द्वारा ही व्यवहार में लाया जा सकता है, छल-प्रपंच करने वाले असाधु स्वभाव वालों के लिए उनके जीवन सूत्र साध्य नहीं हैं ।
यह सनातन नियम है कि आदर्श सिद्धांतों को जीवन में धारण करने के लिए पात्रता बढ़ानी पड़ती है । संगीत के राग सभी को उपलब्ध हैं, लेकिन उन्हें गा वही सकता है, जिनका गले का स्तर शुद्ध है । प्रकृति के रहस्य उसी की आँखों के सामने खुलते हैं, जिसकी दृष्टि शुद्ध है । इसी तरह जीवन के उच्च आदर्शों का पालन वही कर सकता है, जिसका जीवन पवित्र, साधुतामय है । इसीलिए कबीर अपने जीवन सूत्रों को प्राप्त करने के लिए साधु स्वभाव वालों को प्रेरित करते हैं ।
उनके इस कथन का एक भाव और निकलता है । वे कहते हैं कि हमारी बात सुनो, लेकिन केवल सुनकर ही न रह जाओ, उसे जीवन में 'साधो' । जिन्हें उनके जीवन-सूत्रों का लाभ उठाना है, उनसे वे प्यार भरा आग्रह करते हैं कि कबीर अपने अनुभव बता सकता है, सो बता रहा है; अरे भाई! उसे सुनो भी और साधो भी ।
युगऋषि के रूप में भी उनका यही आग्रह रहा है कि हमारे जीवन सूत्रों की सराहना करो या न करो, साधना जरूर करो ।
यदि हमसे अनुराग है, तो हमारी प्रशंसा के राग अलापो या न अलापो, अनुगमन के प्रयास ईमानदारी से आत्म-समीक्षा पूर्वक करो ।
यदि कबीर के थोड़े से जीवन सूत्रों को समझकर जीवन में उतारा जाय तो आज के जीवन की चकाचौंध और भटकावों से बचकर उत्कृष्ट व्यक्तित्व और श्रेष्ठ समाज के लक्ष्यों को सहज ही पाया जा सकता है ।
कबीर का नाम स्मरण
कबीर साहब ने प्रभु नाम स्मरण को बहुत महत्त्व दिया है । युगऋषि का कथन है कि ''मनुष्य महान है, किन्तु उससे भी महान है उसका सृजेता ।'' सृजेता का, उसके अनुशासन का स्मरण जिसे है वह लौकिक मायावी भटकावों से बच जाता है । सृजेता के अनुशासन में लौकिक जीवन को सफलतापूर्वक जीता हुआ पारलौकिक जीवन की परमगति की ओर वह बढ़ता रह सकता है । जप, पाठ आदि इसीलिए किए-कराये जाते हैं । अधिकांश लोग नाम स्मरण के उद्देश्य को भूलकर कर्मकाण्ड में उलझकर रह जाते हैं । कबीर कहते हैं-
कर में तो माला फिरे, जीभ फिरे मुख माहिं,
मनुआ तो चहुँदिश फिरे, यह तो सुमरिन नाहिं॥
कबीर समझाने का प्रयास करते हैं कि मुख्य बात है प्रभु स्मरण । सुमिरन-स्मरण तो मन का विषय है । हाथ की माला और मुँह में जीभ का फिरना मन के स्मरण में सहायक तो हो सकता है, किन्तु मन से सुमिरन न हो, तो कमर्काण्ड काहे के लिए?
उनका 'प्रभु स्मरण' नाम रूप के भेद से परे है । वे तो नाम स्मरण के माध्यम से मन को परम चेतना के स्पंदनों का अनुभव कराना चाहते हैं । इसी नाम-भेद से ऊपर उठकर परम तत्त्व के स्मरण की वे बात कहते हैं-
हिन्दु कहै मोहि राम पियारा, तुरक कहे रहमाना ।
आपस में दोऊ लड़ि-लड़ि मूए, मरम न कोई जाना॥
वे नाम-रूप से परे परमात्म तत्त्व का स्मरण कराना चाहते हैं । प्रभु स्मरण से, प्रभु उपासना से मन निर्मल होने लगता है । युगऋषि ने कहा कि जब साधक का अंतःकरण शुद्ध हो जाता है, तो जैसे खिले हुए फूल के चारों ओर मधुमक्खियाँ मँडराने लगती हैं, वैसे ही दिव्य ईश्वरीय शक्तियाँ साधक की ओर आकषिर्त होने लगती हैं । कबीर उसे अपने ढंग से कहते हैं -
कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर ।
पाछे-पाछे हरि फिरै, कहत कबीर-कबीर॥
नाम स्मरण, जप, उपासना के प्रभाव का कैसा सुन्दर-सटीक वर्णन किया है! उनका जप मुख-वाणी से शुरू तो होता है, पर वह अंतःकरण की गहराइयों में उतर जाता है । मुख-जीभ चले न चले, पर अंतःकरण से उभरा स्मरण साधक के रोम-रोम को पुलकित कर देता है । तब वे कहते हैं - मन मस्त हुआ तब क्यों बोले? इसीलिए उनकी सलाह है कि-
कर का मनका डार दे, मनका मनका फेर ।
युगऋषि ने कहा है- साधक में स्नेह-स्मरण की तरंगें उठती हैं, तो आवाज की अनुगूँज की तरह ईश्वरीय स्नेह की तरंगों का उसे अनुभव होता है । उस स्थिति में पहुँचकर कबीर कहते हैं-
कबीरा माला ना जपी, मुख से कह्यो न राम ।
सुमरन मेरा हरि करे, मैं पाऊँ विश्राम॥
यदि कबीर के सूत्रों के अनुसार जप-स्मरण साधना करें, तो उपासना में कमाल तो होगा ही ।
कबीर की प्रेम साधना
ईश्वर प्रेम रूप है । वह तो प्रेम उडे़लता ही रहता है । जो उसके प्रेम को ग्रहण कर पाता है, वह दिव्य सम्पदा का अधिकारी बनकर प्रेम बाँटने लगता है । वह प्रेम जितना बाँटा जाता है, दिया जाता है, उतना ही बढ़ता जाता है । ऐसा प्रेम कहाँ से मिले? कबीर अपने बेबाक अंदाज में कहते हैं-
प्रेम न बाडी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा परजा जेहि रुचे, शीष देय लै जाय ।
यह बड़ी कठोर लगने वाली, परंतु बड़ी मनोरम और अनिर्वाय शर्त है । 'शीष देय' का अर्थ है अपना अहं, कत्तार्पन का अभिमान देना होगा । इससे कम में प्रेम सधता नहीं । वे प्रेम को समझना ही पाण्डित्य की, ज्ञान की साथर्कता मानते हैं । कहते हैं-
पोथी पढि-पढि जग मुआ, पण्डित भया न कोय ।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।
प्रेम के ढाई अक्षर का पहला अक्षर 'प' आधा है । दो अक्षर 'रे' और 'म' पूरे हैं । 'प' साधक की पहचान है । साधक का अस्तित्व है तभी तो प्रेम है, किन्तु अहं हो तो प्रेम कैसा होगा? इसलिए पहचान का पहला अक्षर प आधा है । अस्तित्व है-अहं नहीं ।
अगला अक्षर 'र' है । 'र' संस्कृत में प्रकाश का, चेतना का पयार्य है । र के साथ ए की मात्रा । यह र के विस्तार का भाव है । विस्तार वहाँ तक, जहाँ तक प्रकाश-चेतना के मायाकृत भेद समाप्त हो जायें-वह एक ही रह जाये ।
दूसरा अक्षर है 'म'- यह (अ+उ+म) या राम (र+आ+म) में विलय का प्रतीक है । अहंकार रहित अस्तित्व आधा प-रे के संयोग से स्वयं को चेतना का ही रूप मानें । उस भाव का विस्तार हो और वह परम चेतन के साथ एकरूप, विलय की स्थिति में पहुँचे, तब बने प्रेम ।
कबीर प्रभु स्मरण में प्रेम को मुख्य तत्त्व मानते हैं । सभी कर्मकाण्ड उसके सहयोगी भर है । साधना के विभिन्न आयामों का उन्होंने उल्लेख किया है । ध्यान में साधक मन को शून्य में स्थिर करने का प्रयास करते हैं । मन को विषय मुक्त बनाने का प्रयत्न करते हैं । कुछ साधक जप को अजपा जप, सहज जप में बदल लेते हैं । श्वास-प्रश्वास के साथ जप घुलने लगता है । कुछ साधक नादयोग की, अनहद नाद की साधना करके उसमें मन को लय करने का प्रयास करते हैं ।
कबीर के अनुसार यह सब साधन प्रभु के सान्निध्य में रस की अनुभूति के लिए हैं । ये सब रास्ते में ही रुक जाते हैं, अंत में तो केवल प्रेम-स्नेह ही रह जाता है । वे लिखते हैं-
शून्य मरे, अजपा मरे, अनहद ह मर जाय ।
राम सनेही ना मरे, कहै कबीर समझाय॥
उनके अनुसार यह ढाई अक्षर वाला 'प् रे म' या स्नेह ही अमृत तत्त्व है । यह ढाई अक्षर समझ में आ जाय, आभास में उतर जाय, तो कमाल तो होगा ही ।
कबीर की वैराग्य साधना
कबीर गृहस्थ वैरागी हैं । सम्पन्नता में उन्हें हृदयहीनता का खतरा दिखता है । इसलिए वे गाते हैं
'मन लागो मेरो यार फकीरी में ।'
सम्पन्नता के क्रम में हृदयहीनता आई तो प्रेम साधना खण्डित होगी । यह खतरा वे मोल नहीं लेना चाहते हैं । फकीरी-गरीबी भली ।
युगऋषि ने भी कहा है- 'गरीबी हमारी शान है ।'
लेकिन वे अव्यावहारिक सिद्धांतवादी अतिवादी नहीं हैं । धन-साधन की भी एक सीमा तक जरूरत स्वीकार करते हैं, किन्तु उसे मर्यादित रखने के लिए प्रभु से निवेदन करते हैं-
साई इतना दीजिए, जामें कुटुम्ब समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूँ, अतिथि न भूखा जाय॥
यह एक ऐसा अद्भुत सूत्र है, जिसका पालन समाज के हर वर्ग के व्यक्ति कर सकते हैं । संसारी को उतना तो चाहिए ही और इससे अधिक की जरूरत नहीं है । यह सूत्र समझ में आ जाये, तो वतर्मान समय में मनुष्य के लिए तमाम मुसीबतें पैदा करने वाली धन की अनगढ़ होड़ सहज ही समाप्त हो जाय । जितने धन साधन है, उन्हीं में सब स्नेह-सुख शांति के साथ रहने में समर्थ हो जाएँ ।
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