ऋषि अंगिरा के शिष्य उदयन बड़े प्रतिभाशाली थे, पर अपनी प्रतिभा के स्वतंत्र प्रदर्शन की उमंग उनमें रहती थी। साथी-सहयोगियो से अलग अपना प्रभाव दिखाने का प्रयास यदा-कदा किया करते थे। ऋषि ने सोचा, यह वृति इसे ले डूबेगी, समय रहते समझाना होगा।
सरदी का दिन था। बीच में रखी अंगीठी में कोयले दहक रहे थे। सत्संग चल रहा था। ऋषि बोले, कैसी सुन्दर अंगीठी दहक रही हैं। इसका श्रेय इसमें दहक रहे कोयलों को है न ? सभी ने स्वीकार किया।
ऋषि पुन: बोले, देखो अमुक कोयला सबसे बड़ा, सबसे तेजस्वी है। इसे निकालकर मेरे पास रख दो। ऐसे तेजस्वी का लाभ अधिक निकट से लूँगा।
चिमटे से पकड़कर वह बड़ा तेजस्वी अंगार ऋषि के समीप रख दिया, पर यह क्या , अंगार मुरझा-सा गया। उस पर राख की परतें आ गई और वह तेजस्वी अंगार काला कोयला भर रह गया।
ऋषि बोले, बच्चो, देखो तुम चाहे जितने तेजस्वी हो, पर इस कोयले जैसी भूल मत कर बैठना। अंगीठी में सबके साथ रहता तो अन्त तक तेजस्वी रहता और सबके बाद तक गरमी देता, पर अब न इसका श्रेय रहा और न इसकी प्रतिभा का लाभ हम उठा सके।
शिष्यों को समझाया गया, परिवार वह अंगीठी है , जिसमें प्रतिभाएँ संयुक्त रुप से तपती है। व्यक्तगित प्रतिभा का अहंकार न टिकता है, न फलित होता है। परिवार के सहकार-सहयोग में वास्तविक बल है।
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