।। श्री हरि:।।
आचारहीनं न पुनन्ति वेदा
यद्यप्यधीता: सह षड्भिरंगे:।
छन्दांस्येनं मुत्युकाले त्यजन्ति
नीडं शकुन्ता इव जातपक्षा:।।
(वसिष्टस्मृति 6/3, देवी भागवत 11/2/1)
" शिक्षा , कल्प, निरूक्त, छन्द, व्याकरण और ज्योतिष -इन छ: अंगो सहित अध्ययन किये हुए वेद भी आचारहीन मनुष्य को पवित्र नहीं करते। मृत्युकाल में आचारहीन मनुष्य को वेद वैसे ही छोड़ देते हैं, जैसे पंख उगने पर पक्षी अपने घोंसले को।
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आचाराल्लभते ह्यायुराचारादीप्सिता: प्रजा:।
आचाराöनमक्षय्यमाचारो हन्त्यलक्षणम्।।
(मनुस्मृति 4/156)
`मनुष्य आचार से आयु को प्राप्त करता हैं, आचार से अभिलाषित सन्तान को प्राप्त करता हैं, आचार से अक्षय धन को प्राप्त करता हैं और आचार से ही अनिष्ट लक्षण को नष्ट कर देता हैं।´
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दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति नििन्दत:।
दु:खभागी च सततं व्याधितो•ल्पायुरेव च।।
(मनुस्मृति 4/157, वसिश्ठस्मृति 6/6)
दुराचारी पुरूष संसार में निन्दित , सर्वदा दु:खभागी, रोगी और अल्पायु होता हैं।´
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आचार: फलते धर्ममाचार: फलते धनम्।
आचाराच्छिªयमाप्नोति आचारो हन्त्यलक्षणम्।।
(महाभारत, उद्योग. 113/15)
`आचार ही धर्म को सफल बनाता हैं, आचार ही धनरूपी फल देता हैं, आचार से मनुष्य को सम्पत्ति प्राप्त होती हैं और आचार ही अशुभ लक्षणों का नाश कर देता हैं।´
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कुलानि समुपेतानि गोभि: पुरूशतो•र्थत:।
कुलसंख्यां न गच्छन्ति यानि हीनानि वृत्तत:।।
वृत्ततस्त्वविहीनानि कुलान्यल्पधनान्यपि।
कुलसंख्यां च गच्छन्ति कशऽन्ति च महद् यश:।।
(महाभारत, उद्योग. 36/28-29)
`गौओं, मनुष्यों और धन से संपन्न होकर भी जो कुल सदाचार से हीन हैं, वे अच्छे कुल की गणना में नहीं आ सकते। परन्तु थोड़े धन वाले कुल भी यदि सदाचार से संपन्न हैं तो वे अच्छे कुलों की गणना में आ जाते हैं और महान् यश को प्राप्त करते हैं।´
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वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च।
अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हत:।।
(महाभारत, उद्योग. 36/30)
सदाचार की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिये। धन तो आता और जाता रहता हैं। धन क्षीण हो जाने पर भी सदाचारी मनुष्य क्षीण नहीं माना जाता, किन्तु जो सदाचार से भ्रष्ट हो गया, उसे तो नष्ट ही समझना चाहिये।´
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न कुलं वृत्तहीनस्य प्रमाणमिति मे मति:।
अन्तेश्वपि हि जातानं वृत्तमेव विशिश्यते।।
(महाभारत, उद्योग. 34/41)
`मेरा ऐसा विचार है कि सदाचार से हीन मनुष्य का केवल ऊँचा कुल मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि नीच कुल में उत्पन्न मनुष्यों का भी सदाचार श्रेष्ठ माना जाता हैं।´
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आचारप्रभवो धर्म: धर्मस्य प्रभुरच्युत:।
आश्रमाचारयुक्तेन पूजित: सर्वदा हरि:।।
(नारदपुराण, पूर्व. 4/22)
`आचार से धर्म प्रकट होता हैं और धर्म के स्वामी भगवान् vishnu हैं। अत: जो अपने आश्रम के आचार में संलग्न हैं, उसके द्वारा भगवान् श्रीहरि सर्वदा पूजित होते हैं।´
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स्दाचारवता पुंसा जितौ लोकावुभावपि।।
साधव: क्षीणदोशास्तु सच्छब्द: साधुवाचक:।
तेशामाचरणं यत्तु सदाचारस्स उच्यते।।
(विष्णुपुराण 3/11/2-3)
सदाचारी मनुष्य इहलोक और परलोक दोनों को ही जीत लेता हैं। `सत्´ शब्द का अर्थ साधु हैं और साधु वही हैं, जो दोषरहित हो। इस साधु पुरूष का जो आचरण होता हैं, उसी को सदाचार कहते हैं।´
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आचारहीन: पुरूशो लोके भवति नििन्दत:।
परत्र च सुखी न स्यात्तस्मादाचारवान् भवेत्।।
(शिवपुराण, वा.उ. 14/56)
`आचारहीन मनुष्य संसार में निन्दित होता हैं और परलोक में भी सुख नहीं पाता। इसलिये सबको आचारवान् होना चाहिये।´
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सर्वो•यं ब्राह्मणो लोके वृत्तेन तु विधीयते।
वृत्ते स्थितस्तु शूद्रो•पि ब्राह्मणत्वं नियच्छति।।
(महाभारत, अनु. 143/51)
`लोक में यह सारा ब्राह्मण-समुदाय सदाचार से ही अपने पर पर बना हुआ हैं। सदाचार में स्थित रहने वाला शूद्र भी (इस जन्म में) ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो सकता हैं।
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आचाराल्लभते चायुराचाराल्लभते प्रजा:।
आचारदéमक्षय्यमाचारो हन्ति पातकम्।।
आचार: परमो धर्मो नृणां कल्याणकारक:।
इह लोके सुखी भूत्वा परत्र लभते सुखम्।।
(देवी भागवत 11/1/10-11)
`आचार से ही आयु, सन्तान तथा प्रचुर अन्न की उपलब्धि होती है। आचार सम्पूर्ण पातकों को दूर कर देता है। आचारवान् मनुष्य इस लोक में सुख भोगकर परलोक में भी सुखी होता हैं।´
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आचारवान् सदा पूत: सदैवाचारवान् सुखी।
आचारवान् सदा धन्य: सत्यं च नारद।।
(देवीभागवत 11/24/98)
`(भगवान नारायण बोले-) नारद ! आचारवान् मनुष्य सदा पवित्र, सदा सुखी और सदा ही धन्य हैं-यह सत्य हैं, सत्य हैं।´
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