शुक्रवार, 12 सितंबर 2008

श्रीमद्भगवद्गीता

श्रीमद्भगवद्गीता ऐसा सुमधुर गीत हैं, जिसे स्वयं भगवान ने गाया हैं। धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में खड़े विश्वरुप विश्वगुरु श्रीकृष्ण ने कर्म का यह काव्य कहा हैं। इसमें सृष्टि का सरगम हैं, जीवन के बोल हैं। सृष्टिसृजन, स्थिति और विलय का कोई भी ऐसा रहस्य नहीं हैं, जिसे इस भगवद्गान में गाया न गया हो। इसी तरह जीवन के सभी आयाम, सभी विद्याएँ इसमें बड़े ही अपूर्व ढंग से प्रकट हुई हैं। इस दिव्य गीत के सृष्टि सप्तक (सप्तलोक) को प्रकृति अष्टक (अष्टधा प्रकृति) के साथ स्वयं भगवती चित्शक्ति ने अपनी चैतन्य धाराओं में गूँथा हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता का परिचय स्वयं भगवद्गीता के प्रत्येक अध्याय के अंत में कहा गया हैं। “ ओम तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रम्हविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे............. नाम..............अध्याय: । " ओंकार परमेश्वर का तत्-सत् रुप में स्मरण करते हुए बताया गया हैं कि यह भगवद्गान उपनिषद् हैं, यह ब्रम्हविद्या हैं, यह योगशास्त्र हैं, जो कृष्ण और अर्जुन संवाद बनकर प्रकट हुआ हैं। भगवद्गीता के इस परिचय में गहनता और व्यापकता दोनों हैं। यह भगवद्गीता उपनिषदों की परम्परा में श्रेष्ठतम उपनिषद् हैं।

इस उपनिषद् के आचार्य श्रीकृष्ण हैं और शिष्य धनुषपाणि अर्जुन हैं। आचार्य श्रीकृष्ण समस्त ज्ञान का आदि और अन्त हैं। वे स्वयं अनन्त हैं। शिष्य अर्जुन जिज्ञासु हैं, गुरुनिष्ठ हैं और अपने सदगुरु भगवान गुरु को पूर्णत: समर्पित है। सदगुरु व सत्शिष्य की इसी स्थिति में ब्रम्हविद्या प्रकट होती हैं। सृष्टि व जीवन के सभी रहस्य कहे-सुने-समझे व आत्मसात किये जाते हैं, परन्तु इन रहस्यों का साक्षात् व साकार तभी स्पष्ट होता हैं, जब शिष्य योगसाधक बन कर सदगुरु द्वारा उपदिष्ट योग-साधना का अभ्यास करे। योग की विविध तकनीको का इसमें प्राकट्य होने से ही गीता योगशास्त्र हैं। उपनिषद्प्रणीत यह ब्रम्हविद्या-योगशास्त्र तभी समझा जा सकता हैं, जब कृष्ण-अर्जुन संवाद की स्थिति बनें। श्रीमद्भगवद्गीता तो केवल उनके अन्तस् में अपने स्वरों को झंकृत करती हैं, जो भगवान के साथ समस्वरित हैं। ‘गीता जयंती पर्व हमें इसी की स्मृति कराता हैं।

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