गुरुवार, 10 मार्च 2011

गायत्री उपासना और गायत्री महामंत्र :


गायत्री महामंत्र और उसका अर्थ
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।
भावार्थ उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें । वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे ।

गायत्री उपासना हम सबके लिए अनिवार्य 
गायत्री को भारतीय संस्कृति की जननी कहा गया है । वेदों से लेकर धर्मशास्त्रों तक समस्त दिव्य ज्ञान गायत्री के बीजाक्षरों का ही विस्तार है । माँ गायत्री का आँचल पकड़ने वाला साधक कभी निराश नहीं हुआ । इस मंत्र के चौबीस अक्षर चौबीस शक्तियों-सिद्धियों के प्रतीक हैं । गायत्री उपासना करने वाले की सभी मनोकामनाएँ पूरी होती हैं, ऐसा ऋषिगणों का अभिमत है ।

गायत्री वेदमाता हैं एवं मानव मात्र का पाप नाश करने की शक्ति उनमें है । इससे अधिक पवित्र करने वाला और कोई मंत्र स्वर्ग और पृथ्वी पर नहीं है । भौतिक लालसाओं से पीड़ित व्यक्ति के लिए भी और आत्मकल्याण की इच्छा रखने वाले मुमुक्षु के लिए भी एकमात्र आश्रय गायत्री ही है । गायत्री से आयु, प्राण, प्रजा, पशु,कीर्ति, धन एवं ब्रह्मवर्चस के सात प्रतिफल अथर्ववेद में बताए गए हैं, जो विधिपूर्वक उपासना करने वाले हर साधक को निश्चित ही प्राप्त होते हैं ।

भारतीय संस्कृति में आस्था रखने वाले हर प्राणी को नित्य-नियमित गायत्री उपासना करनी चाहिए । विधिपूर्वक की गयी उपासना साधक के चारों ओर एक रक्षा कवच का निर्माण करती है व विभिन्न विपत्तियों, आसन्न विभीषिकाओं से उसकी रक्षा करती है । प्रस्तुत समय संधिकाल का है । आगामी वर्षों में पूरे विश्व में तेजी से परिवर्तन होगा । इस विशिष्ट समय में की गयी गायत्री उपासना के प्रतिफल भी विशिष्ट होंगे । युगऋषि, वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने गायत्री के तत्त्वदर्शन को जन-जन तक पहुँचाया व उसे जनसुलभ बनाया है । प्रत्यक्ष कामधेनु की तरह इसका हर कोई पयपान कर सकता है । जाति, मत, लिंग भेद से परे गायत्री सार्वजनीन है । सबके लिए उसकी साधना करने व लाभ उठाने का मार्ग खुला हुआ है । 

गायत्री उपासना का विधि-विधान 
गायत्री उपासना कभी भी, किसी भी स्थिति में की जा सकती है । हर स्थिति में यह लाभदायी है, परन्तु विधिपूर्वक भावना से जुड़े न्यूनतम कर्मकाण्डों के साथ की गयी उपासना अति फलदायी मानी गयी है । तीन माला गायत्री मंत्र का जप आवश्यक माना गया है । शौच-स्नान से निवृत्त होकर नियत स्थान, नियत समय पर, सुखासन में बैठकर नित्य गायत्री उपासना की जानी चाहिए ।

उपासना का विधि-विधान इस प्रकार है 
(१) ब्रह्म सन्ध्या - जो शरीर व मन को पवित्र बनाने के लिए की जाती है । इसके अंतर्गत पाँच कृत्य करने होते हैं ।
(अ) पवित्रीकरण - बाएँ हाथ में जल लेकर उसे दाहिने हाथ से ढँक लें एवं मंत्रोच्चारण के बाद जल को सिर तथा शरीर पर छिड़क लें । ॐ अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थांगतोऽपि वा । यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥ ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु ।
(ब) आचमन - वाणी, मन व अंतःकरण की शुद्धि के लिए चम्मच से तीन बार जल का आचमन करें । हर मंत्र के साथ एक आचमन किया जाए । ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा । ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा । ॐ सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा ।
(स) शिखा स्पर्श एवं वंदन - शिखा के स्थान को स्पर्श करते हुए भावना करें कि गायत्री के इस प्रतीक के माध्यम से सदा सद्विचार ही यहाँ स्थापित रहेंगे । निम्न मंत्र का उच्चारण करें । ॐ चिद्रूपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते । तिष्ठ देवि शिखामध्ये, तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे॥
(द) प्राणायाम - श्वास को धीमी गति से गहरी खींचकर रोकना व बाहर निकालना प्राणायाम के क्रम में आता है । श्वास खींचने के साथ भावना करें कि प्राण शक्ति, श्रेष्ठता श्वास के द्वारा अंदर खींची जा रही है, छोड़ते समय यह भावना करें कि हमारे दुर्गुण, दुष्प्रवृत्तियाँ, बुरे विचार प्रश्वास के साथ बाहर निकल रहे हैं । प्राणायाम निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ किया जाए ।
ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः, ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम् । ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् । ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं, ब्रह्म भूर्भुवः स्वः ॐ ।
(य) न्यास - इसका प्रयोजन है-शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश तथा अंतः की चेतना को जगाना ताकि देव-पूजन जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके । बाएँ हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की पाँचों उँगलियों को उनमें भिगोकर बताए गए स्थान को मंत्रोच्चार के साथ स्पर्श करें ।
ॐ वाङ् मे आस्येऽस्तु । (मुख को)
ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु । (नासिका के दोनों छिद्रों को)
ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु । (दोनों नेत्रों को)
ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु । (दोनों कानों को)
ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु । (दोनों भुजाओं को)
ॐ ऊर्वोमे ओजोऽस्तु । (दोनों जंघाओं को)
ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि, तनूस्तन्वा मे सह सन्तु । (समस्त शरीर पर)
आत्मशोधन की ब्रह्म संध्या के उपरोक्त पाँचों कृत्यों का भाव यह है कि साधक में पवित्रता एवं प्रखरता की अभिवृद्धि हो तथा मलिनता-अवांछनीयता की निवृत्ति हो । पवित्र-प्रखर व्यक्ति ही भगवान् के दरबार में प्रवेश के अधिकारी होते हैं ।

(२) देवपूजन - गायत्री उपासना का आधार केन्द्र महाप्रज्ञा-ऋतम्भरा गायत्री है । उनका प्रतीक चित्र सुसज्जित पूजा की वेदी पर स्थापित कर उनका निम्न मंत्र के माध्यम से आवाहन करें । भावना करें कि साधक की प्रार्थना के अनुरूप माँ गायत्री की शक्ति वहाँ अवतरित हो, स्थापित हो रही है ।
ॐ आयातु वरदे देवि त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि । गायत्रिच्छन्दसां मातः! ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते॥ ॐ श्री गायत्र्यै नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि, ततो नमस्कारं करोमि ।
(ख) गुरु - गुरु परमात्मा की दिव्य चेतना का अंश है, जो साधक का मार्गदर्शन करता है । सद्गुरु के रूप में पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी का अभिवंदन करते हुए उपासना की सफलता हेतु गुरु आवाहन निम्न मंत्रोच्चारण के साथ करें ।
ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः । गुरुरेव परब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ अखण्डमंडलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम् । तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ॐ श्रीगुरवे नमः, आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि ।
(ग) माँ गायत्री व गुरु सत्ता के आवाहन व नमन के पश्चात् देवपूजन में घनिष्ठता स्थापित करने हेतु पंचोपचार द्वारा पूजन किया जाता है । इन्हें विधिवत् संपन्न करें । जल, अक्षत, पुष्प, धूप-दीप तथा नैवेद्य प्रतीक के रूप में आराध्य के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं । एक-एक करके छोटी तश्तरी में इन पाँचों को समर्पित करते चलें । जल का अर्थ है - नम्रता-सहृदयता । अक्षत का अर्थ है - समयदान अंशदान । पुष्प का अर्थ है - प्रसन्नता-आंतरिक उल्लास । धूप-दीप का अर्थ है - सुगंध व प्रकाश का वितरण, पुण्य-परमार्थ तथा नैवेद्य का अर्थ है - स्वभाव व व्यवहार में मधुरता-शालीनता का समावेश ।

ये पाँचों उपचार व्यक्तित्व को सत्प्रवृत्तियों से संपन्न करने के लिए किये जाते हैं । कर्मकाण्ड के पीछे भावना महत्त्वपूर्ण है । 

(३) जप - गायत्री मंत्र का जप न्यूनतम तीन माला अर्थात् घड़ी से प्रायः पंद्रह मिनट नियमित रूप से किया जाए । अधिक बन पड़े, तो अधिक उत्तम । होठ हिलते रहें, किन्तु आवाज इतनी मंद हो कि पास बैठे व्यक्ति भी सुन न सकें । जप प्रक्रिया कषाय-कल्मषों-कुसंस्कारों को धोने के लिए की जाती है ।

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।

इस प्रकार मंत्र का उच्चारण करते हुए माला की जाय एवं भावना की जाय कि हम निरन्तर पवित्र हो रहे हैं । दुर्बुद्धि की जगह सद्बुद्धि की स्थापना हो रही है । 

(४) ध्यान - जप तो अंग-अवयव करते हैं, मन को ध्यान में नियोजित करना होता है । साकार ध्यान में गायत्री माता के अंचल की छाया में बैठने तथा उनका दुलार भरा प्यार अनवरत रूप से प्राप्त होने की भावना की जाती है । निराकार ध्यान में गायत्री के देवता सविता की प्रभातकालीन स्वर्णिम किरणों को शरीर पर बरसने व शरीर में श्रद्धा-प्रज्ञा-निष्ठा रूपी अनुदान उतरने की भावना की जाती है, जप और ध्यान के समन्वय से ही चित्त एकाग्र होता है और आत्मसत्ता पर उस क्रिया का महत्त्वपूर्ण प्रभाव भी पड़ता है । 

(५) सूर्यार्घ्यदान - विसर्जन-जप समाप्ति के पश्चात् पूजा वेदी पर रखे छोटे कलश का जल सूर्य की दिशा में र्अघ्य रूप में निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ चढ़ाया जाता है ।
ॐ सूर्यदेव! सहस्रांशो, तेजोराशे जगत्पते । अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर॥
ॐ सूर्याय नमः, आदित्याय नमः, भास्कराय नमः॥
भावना यह करें कि जल आत्म सत्ता का प्रतीक है एवं सूर्य विराट् ब्रह्म का तथा हमारी सत्ता-सम्पदा समष्टि के लिए समर्पित-विसर्जित हो रही है ।
इतना सब करने के बाद पूजा स्थल पर देवताओं को करबद्ध नतमस्तक हो नमस्कार किया जाए व सब वस्तुओं को समेटकर यथास्थान रख दिया जाए । जप के लिए माला तुलसी या चंदन की ही लेनी चाहिए । सूर्योदय से दो घण्टे पूर्व से सूर्यास्त के एक घंटे बाद तक कभी भी गायत्री उपासना की जा सकती है । मौन-मानसिक जप चौबीस घण्टे किया जा सकता है । माला जपते समय तर्जनी उंगली का उपयोग न करें तथा सुमेरु का उल्लंघन न करें । 

सतयुग की वापसी - सार संक्षेप




इस सदी की समापन वेला में अब तक हुई प्रगति के बाद एक ही निष्कर्ष निकलता है कि संवेदना का स्रोत तेजी से सूखा है, मानवी अंतराल खोखला हुआ है। भाव संवेदना जहाँ जीवंत - जाग्रत होती है वहाँ स्वतः ही सतयुगी वातावरण विनिर्मित होता चला जाता है। भाव संवेदना से भरे-पूरे व्यक्ति ही उस रीति-निति को समझ पाते हैं, जिसके आधार पर संपदाओं का, सुविधाओं का सदुपयोग बन पाता है।

समर्थता, कुशलता और संपन्नता की आए दिनों जय-जयकार होती देखी जाती है। यह भी सुनिश्चित है की इन्हीं तीन क्षेत्रों में फैली अराजकता ने वे संकट खड़े किए हैं, जिनसे किसी प्रकार उबरने के लिए व्यक्ति और समाज छटपटा रहा है। इन तीनों से ऊपर उठकर एक चौथी शक्ति है - भाव संवेदना। यही दैवी अनुदान के रूप में जब मनुष्य की स्वच्छ अंतरात्मा पर उतरती है तो उसे निहाल बनाकर रख देती है। इस एक के आधार पर ही अनेकानेक दैवी तत्त्व उभरते चले जाते हैं।

सतयुग की वापसी इसी संवेदना के जागरण, करुणा के उभार से होगी। बस एक ही विकल्प इन दिनों है - भाव संवेदना का जागरण। उज्ज्वल भविष्य का यदि कोई सुनिश्चित आधार है तो वह एक ही है कि जन-जन की भाव संवेदनाओं को उत्कृष्ट, आदर्श और उदात्त बनाया जाए। इसी से वह विश्व उद्यान हरा-भरा, फला-फूला व संपन्न बन सकेगा।

- पं श्रीराम शर्मा आचार्य
सतयुग की वापसी 
(उज्ज्वल भविष्य की संरचना)

Today’s empathy deficit and the promise of a better future

As this century* draws to a close and we take stock of all the progress we have made till now, one cannot help but draw a conclusion that the once vibrant and rich spring of empathy within us is rapidly drying up and we all are increasingly becoming empty inside.

In an empathic civilization, where people acknowledge and act upon commonalities we have as humans, there exists an environment that is conducive to a bright future for the global community.

Only empathetic people can understand and relate to a system by which proper and just utilization of resources and facilities is possible. To empathize is to civilize, it is only through empathy that we can dream of a society based on common values, working towards a common good.

We are quite fond of eulogizing talent, excellence and opulence.

But at the same time it's quite true that widespread anarchy in these very areas is responsible for the dire straits in which humanity is in today.

These are the very factors that are responsible for this present calamitous situation from which man and society are struggling to emerge.

There is a power superlative to these three - Common humaneness or empathy.

Empathy is above sympathy, to be sympathetic is to understand the pain of others, to be empathetic is to go beyond, project our sensibilities towards that person, put ourselves in their shoes and experience (be it in a limited way) what the other person is going through.

When this divine blessing [empathy], descends on a pure soul it embraces that soul with bliss. On the basis of this alone, innumerable divine traits arise and express themselves within us. The return of paradise [heavenly atmosphere of peace, bliss and harmony] on earth, the promise of a better and just future for everyone, is possible only via the awakening of this sentiment - empathy, common humaneness, rekindling of compassion.

There is just one way - revival and recommitting to our most human of traits - Empathy.

If there is any foundation on which we can lay our plans for a bright future for everyone, then it is this - to arise, awaken common humaneness in everyone and make it superlative, ideal and noble. Empathy is in everyone, it's one of our most basic traits, one with which we are born with, but to lay the foundation of a better society, we must make it excellent, flawless and virtuous.

This is the only way by which this beautiful world of ours can thrive and flourish.

- Pt. Shriram Sharma Acharya
Translated from the book - Satyug Ki Wapsi
(Ujjwal Bhavishya ki Sanrachana)
*This is written in 1990

समर्थता का सदुपयोग

बेल पेड़ से लिपट कर ऊँची तो उठ सकती है, पर उसे अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए आवश्यक रस भूमि के भीतर से ही प्राप्त करना होगा । पेड़ बेल को सहारा भर दे सकता है, पर उसे जीवित नहीं रख सकता । अमरबेल जैसे अपवाद उदाहरण या नियम नहीं बन सकते ।

व्यक्ति का गौरव या वैभव बाहर बिखरा दीखता है । उसका बड़प्पन आँकने के लिए उसके साधन एवं सहायक आधार-भूत कारण प्रतीत होते हैं । पर वस्तुतः बात ऐसी है नहीं ।

मानवी प्रगति के मूलभूत तत्त्व उसके अन्तराल की गहराई में ही सन्निहित रहते हैं । परिश्रमी, व्यवहारकुशल और मिलनसार प्रकृति के व्यक्ति सम्पत्ति उपार्जन में समर्थ होते हैं । जिनमें इन गुणों का आभाव है, वे पूर्वजों की छोड़ी हुई सम्पदा की रखवाली तक नहीं कर सकते । भीतर का खोखलापन उन्हें बाहर से भी दरिद्र ही बनाये रहता है ।

गरिमाशील व्यक्ति किसी देवी देवता के अनुग्रह से महान नहीं बनते । संयमशीलता, उदारता और सज्जनता से मनुष्य सुदृढ़ बनता है, पर आवश्यक यह भी है कि उस दृढ़ता का उपयोग लोक मंगल के लिए किया जाय । पूँजी का उपयोग सत्प्रयोजनों के निमित्त न किया जाय तो वह भारभूत ही होकर रह जांति है । आत्मशोधन की उपयोगिता तभी है, जब वह चंदन की तरह अपने समीपवर्ती वातावरण में सत्प्रवृत्तियों की सुगंध फैला सके ।
- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
आप भी हमारे सहयोगी बने।


Invest your abilities wisely

A creeper can climb high by clinging onto a tall tree, but to maintain its existence, to live, it must depend on the nutrition, life force it gets draws from deep within the earth. A tree can merely support the creeper, but cannot keep it alive. Parasitic flora like Cuscuta (Dodder) cannot be taken as an example, or do not dictate the rule in this particular context.

We can see the expanse of a person’s glory and opulence on the outside. And to gauge this greatness, we use the metrics of his/her means, or his/her associates.

But really, this is not the complete truth.

The essential elements needed for success are actually embedded deep within us. Hardworking, tactful and genuinely amiable people are capable of generating wealth. People who lack these traits are not capable of even maintaining their inherited wealth.

As they lack these vital qualities inside, on the outside they remain impoverished.

Eminent people must earn their place in this world, its not bestowed upon them by the blessing of a God or a Goddess. Austereness, generosity and virtue make a man strong, but it is necessary that this strength of character should be used for the welfare of others.

Assets if they cannot serve altruistic aims become an onerous burden.

Self-analysis is beneficial only when it can diffuse good qualities in the surrounding atmosphere as a sandalwood piece diffuses fragrance anywhere it’s placed.
- Pt. Shriram Sharma Acharya

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