शनिवार, 5 मार्च 2011

भाव-संवेदना

भाव-संवेदना रूपी गंगोत्री के सूख जाने पर व्यक्ति निष्ठुर बनता चला जाता है । आज का सबसे बड़ा दुर्भिक्ष इन्हीं भावनाओं के क्षेत्र का है । जब भी अवतारी चेतना आई है, उसने एक ही कार्य किया-अंदर से उस गंगोत्री के प्रवाह के अवरोध को हटाना एवं सृजन-प्रयोजनों में उसे नियोजित करना । कुछ कथानकों द्वारा व दृष्टांतों के माध्यम से इस तथ्य को भलीभाँति समझा जा सकता है ।
देवर्षि नारद एवं वेदव्यास के वात्तार्लाप के एक तथ्य स्पष्ट होता है कि मानवीय गरिमा का उदय जब भी होता है, सबसे पहले भावचेतना का जागरण होता है । तभी वह ईश्वर-पुत्र की गरिमामय भूमिका निभा पाता है । चैतन्य जैसे अंतदृर्ष्टि-संपन्न महापुरुष भी शास्त्र-तर्क मीमांसा के युग में इसी चिंतन को दे गए । भाव श्रद्धा के प्रकाश में मनुष्यता जो खो गई है, पुनः पाई जा सकती है । पीतांबरा मीरा जीवन भर करुणा विस्तार का, ममत्व का ही संदेश देती रहीं । जब संकल्प जागता है तो अशोक जैसा निष्ठुर भी बदल जाता है- चंड अशोक से अशोक महान् बन जाता है । जीसस का जीवन की करुणा के जन-जन तक विस्तार से एक घटना मात्र से महात्मा गाँधी इस भाव-संवेदना के जन-जन तक विस्तार का संदेश देता है । मिस्टर गाँधी इसी भाव-संवेदना के जागरण से एक घटना मात्र से महात्मा गाँधी बन गए-जीवन भर आधी धोती पहनकर एक पराधीन राष्ट्र को स्वतंत्र करने में सक्षम हुए ठक्कर बापा के जीवन में भी यही क्रान्ति आई । वस्तुतः अवतारी चेतना जब भी सक्रिय होती है, इसी रूप में व्यक्ति को बेचैन कर उसके अंतराल को आमूलचूल बदल डालती है ।

वेदव्यास की अंतव्थर्था 
''आपके चेहरे पर खिन्नता के चिन्ह्न!'' आगंतुक ने सरस्वती नदी के तट पर, आश्रम के निकट बैठे हुए मनीषी के मुखमंडल पर छाए भावों को पढ़ते हुए कहा । इधर विगत कई दिनों से वह व्यथित थे । नदी के तट पर बैठकर घंटों विचारमग्न रहना, शून्य की ओर ताकते रहना, उनकी सामान्य दिनचर्या बन गई थी । आज भी कुछ उसी प्रकार बैठे थे । 

आगंतुक के कथन से विचार-शृंखला टूटी । ''अरे, देवऋषि आप !'' चेहरे पर आश्चर्य व प्रसन्नता की मिली-जुली अभिव्यक्ति झलकी । 

''पर आप व्यथित क्यों हैं?'' उन्होंने पास पडे़ आसन पर बैठते हुए कहा-''पीड़ा-निवारक को पीड़ा वैद्य को रोग-कैसी विचित्र स्थिति है!'' 
''विचित्र नहीं, विवशता कहिए । इसे उस अंतव्यर्था के रूप में समझिए, जो पीड़ा-निवारक को सामने पड़े पीड़ित को देखकर, उसके कष्ट हरने में असफल होने पर होती है । वैद्य को उस समय होती है, जब वह सामने पड़े रोगी को स्वस्थ कर पाने में असफल हो जाता है ।'' 

कुछ रुककर उन्होंने गहरी श्वास ली और पुनः वाणी को गति दी-''व्यक्ति और समाज के रूप में मनुष्य सन्निपात के रोग से ग्रस्त है । कभी हँसता है, कुदकता-फुदकता है, कभी अहंकार के ठस्से में अकड़ा रहता है । परस्पर का विश्वास खो जाने पर आचार-विचार का स्तर कैसे बने? जो थोड़ा-बहुत दिखाई देता है, वह अवशेषों का दिखावा भर है । 

''और परिवार...............इतना कहकर उनके मुख पर एक क्षीण मुस्कान की रेखा उभरी, नजर उठाकर सामने बैठे देवऋषि की ओर देखा- ''इनकी तो और भी करुण दशा है । इनमें मोह रह गया है, प्रेम मर गया है । मोह भी तब तक, जब तक स्वार्थ सधे । विवाहित होते ही संतानें माँ-बाप को तिलांजलि दे देती हैं । सारी रीति ही उलटी है- उठे को गिराना, गिरे को कुचलना, कुचले को मसलना, यही रह गया है । आज मनुष्य और पशु में भेद आचार-विचार की दृष्टि से नहीं वरन् आकार-प्रकार की दृष्टि से है ।'' कहते-कहते ऋषि का चेहरा विवश हो गया । भावों को जैसे-तैसे रोकते हुए धीरे से कहा- ''देवता बनने जा रहा मनुष्य पशु से भी गया-गुजरा हो रहा है ।'' 
''महर्षि ! व्यास आप तो मनीषियों के मुकुटमणि हैं ।'' जैसे कुछ सोचते हुए देवऋषि ने कहा-''आपने प्रयास नहीं किये?'' 

''प्रयास!......प्रयास किए बिना भला जीवित कैसे रहता । जो भटकी मानवता को राह सुझाने हेतु प्रयत्नरत नहीं है, हाथ-पर हाथ धरे बैठा है, स्वयं की बौद्धिकता के अहं से ग्रस्त है, उसे मनीषी कहलाने, यहाँ तक कि जीवित रहने का कभी हक नहीं है ।'' 

''किस तरह के प्रयास किए?'' 
''मानवीय बुद्घि के परिमाजर्न हेतु प्रयास । इसके लिए वैदिक मंत्रों का पुनः वर्गीकरण किये, कर्मकांडो का स्वरूप सँवारा, ताकि मंत्रों में निहित दिव्य-भावों को ग्रहण करने में सुभीता हो, पर........ ।'' 
''पर क्या?'' 
''प्राणों को छोड़कर लोग सिर्फ कर्मकांडो के कलेवर से चिपट गए । वेद, अध्ययन की जगह पूजा की वस्तु बन गए । यहीं तक सीमित रहता, तब भी गनीमत थी । इनकी ऊटपटांग व्याख्याएँ करके जाति-भेद की दीवारें खड़ी की जाने लगीं । 
''फिर .......?'' 
'' पुराणों की रचना की-जिसका उद्देश्य था, वेद में निहित सत्य-सद्विचार को कथाओं के माध्यम से जन-जन के गले उतारा जा सके जिससे बौद्धिकता के उन्माद का शमन हो । किंतु....... ।'' 
''किंतु क्या?'' 
''यह प्रयास भी आंशिक सफल रहा । सहयोगियों ने स्मृतियाँ रचीं, पर ये सब बुद्धिमानों के जीविकोपार्जन का साधन बनकर रह गए, जन-जन के मानस में फेर-बदल करने का अभियान पूरा नहीं हुआ-बुद्धि सुधरी नहीं, अहं गया नहीं, परिणाम महाभारत के युद्धोन्माद के रूप में सामने आया । विज्ञान धन का का गुलाम और धन दुर्बुद्धि के हाथ की कठपुतली, सारे साधन इसी के इर्द-गिर्द । अपने को ज्ञानी कहते व विद्वान-बुद्धिमान, बलवान् समझने वाले, सभी दुर्बुद्धि के दास पर सिद्ध हुए । देश और समाज का वैभव एक बार फिर चकनाचूर हुआ, पर मैं अकेले चलता रहा-प्रयासों में शिथिलता नहीं आने दी ।'' महर्षि के स्वर में उत्साह था और देवऋषि के चेहरे पर उत्सुकता झलक रही थी । 

कुछ रुककर बोले-''महाभारत की रचना की, मानवीय कुकृत्यों की वीभत्सता का चित्रण किया । सत्कर्मों की राह दिखाई-वह सभी कुछ ढूँढकर सँजोया, जिसका अवलंबन ले मानव सुधर सके-सँवर सके । बुद्धि विगत से सीख सके, पर परिणाम वही-ढाक के तीन पात ।'' 

तो क्या प्रयास से विरत हो गए महर्षि?''-देवऋषि का स्वर था । ''नहीं-विरत क्यों होता? कत्तर्व्यनिष्ठा का ही दूसरा नाम मनुष्यता है । एक मनीषी का जो कर्तव्य है, अंतिम साँस तक अनवरत करता रहूँगा ।'' 
''सचमुच यही है निष्ठा?'' 

''हाँ तो महाभारत, का समुचित प्रभाव न देखकर यह सोच उभरी कि शायद इतने विस्तृत ग्रंथ को लोग समयाभाव के कारण पढ़ न सके हों? इस कारण ब्रह्मसूत्र की रचना की । सरल सूत्रों से जीवन-जीने के आवश्यक तत्वों को सँजोया । एकता-समता की महत्ता बताई । एक ही परमसत्ता हर किसी में समाहित है- कहकर, भाईचारे की दिव्यता तुममें है-कहकर, स्वयं को दिव्य बनाने-अपना उद्धार करने की प्रेरणा दी । पर हाय री मानवी बुद्धि! तूने ग्रहणशीलता तो जैसे सीखी नहीं । पंडिताभिमानियों ने इस पर बुद्धि की कलाबाजियाँ खाते हुए तरह-तरह के भाष्य लिखने शुरू कर दिए, शास्त्रार्थ की कबड्डी खेलनी शुरू कर दी । जीवन-जीने के सूत्रों का यह ग्रंथ अखाड़ा बनकर रह गया । 

''अब पुनः समाधान की तलाश में हूँ । अंर्तव्यथा का कारण यह नहीं है कि मेरे प्रयास असफल हो गए अपितु मानव की दुर्दशा, दुर्मति-जन्य दुर्गति देखी नहीं जाती । असह्य बेचैनी है अंदर, पर क्या करूँ? राह नहीं सूझ रही ।'' कहकर वह आशाभरी नजरों से देवऋषि की ओर देखने लगे । 

देवऋषि का सत्परामर्श 
''समाधान है ।'' 
''क्या?-स्वर उल्लासपूर्ण था, जैसे सृष्टि का वैभव एक साथ आ जुड़ा हो । 
''भाव-संवेदनाओं का जागरण-इसे दूसरे शब्दों में सोई हुई आत्मा का जागरण भी कह सकते हैं ।'' 
''और अधिक स्पष्ट करें । '' 
''आपने मानव-जीवन की विकृति को पहचाना, अब प्रकृति को और गहराई से पहचानिए, निदान मिल जाएगा । '' 
''क्या है प्रकृति?'' 
''मनुष्य के सारे क्रियाकलाप अहं-जन्य हैं और बुद्धि-मन-इंद्रियाँ सब बेचारे इसी के गुलाम हैं । मानवीय सत्ता का केंद्र आत्मा है, यह परमात्मसत्ता अर्थात् सरसता, सक्रियता और उन्नत भावों के समुच्चय का अंश है । आत्मा का जागरण अर्थात् उन्नत भावों-दिव्य संवेदनाओं का जागरण । न केवल जागृति वरन् सक्रियता, श्रेष्ठ कार्यों के लिए-दिव्य-जीवन के लिए । '' 
''पर भाव तो बहुत कोमल होते हैं?''-महर्षि के स्वरों में हिचकिचाहट थी । 
''नहीं-ये एक साथ कोमल और कठोर दोनों हैं । सत्प्रवृत्तियों के लिए पुष्प जैसे कोमल, उनमें सुगंध भरने वाले और दुष्प्रत्तियों के लिए वज्र की तरह, एक ही आघात में उन्हें छितरा देने वाले ।......भावों के जागते ही उनका पहला प्रहार अहंकार पर होता है । उसके टूटते-बिखरते ही मन और बुद्धि आत्मा के अनुगामी बन जाते हैं । मन तब उन्नत कल्पनाएँ करता है, बुद्धि हितकारक समाधान सोचती है । भाव-संवेदनाओं का जागरण एकमेव समाधान है-व्यक्ति विशेष का ही नहीं........समूचे मानव-समूह का । मन और बुद्धि, दोनों को कुमार्ग के भटकाव से निकालकर सन्मार्ग पर लगा देने की क्षमता भाव संवेदनाओं में ही है । '' 

''पर मानवीय बुद्धि बड़ी विचित्र है । कहीं भावों की जगह कुत्सा न भड़का लें? '' 
''आपकी आशंका निराधार नहीं है, महर्षि! किंतु इस कारण भयभीत होकर पीछे हटना आवश्यक नहीं है । आवश्यक है सावधानी और जागरूकता-भाव कर्मोन्मुख होंगे-लोकहितकारी लक्ष्यों के लिए ही भाव-संवेदना का आह्वान किया जाएगा भावों के अमृत को सद्विचारों के पात्रों में ही सँजोया जाएगा, विवेक की छलनी से उन्हें छाना जाएगा तो परिणाम सुखकारक ही होंगे । 

लेखनी से प्राण फूँकिए-जनमानस के मर्म को इस तरह स्पर्श करिए कि हर किसी की संवेदना-सदाशयता फड़फड़ा उठे । आत्मचेतना अकुलाकर कह उठे ।-
''नत्वहं कामये राज्यं न सौख्यं ना पुनभर्वम् । कामये दुःख तप्तानां प्राणिनां आर्त नाशनम् ।'' 

''जनसमूह की आत्मा अभी मरी नहीं है-मुर्छित भर है । इस मुर्छित लक्ष्मण को सचेतन, सत्कर्म में तत्पर और राम-काज में निरत करने के लिए संजीवनी चाहिए । यह संजीवनी है- भाव-संवेदना । दे सकेंगे आप? यदि दे सकें तो विश्वास करें-स्थिति कितनी ही जटिल क्यों न हो, अँधेरा कितना ही सघन क्यों न हो, आत्मा के दिव्य भावों का तेज व प्रकाश उसे तहस-नहस करने में समर्थ हो सकेगा । 

''भाव चेतना का जागरण होते ही मनुष्य एक बार पुनःसिद्ध कर सकेगा कि वह ईश्वर-पुत्र है- दिव्यजीवन जीने में समक्ष है, वह धरती का देवता है और धरती को 'स्वगार्दपि गरीयसी', बना सकता है, किन्तु.....कहकर देवऋषि ने महर्षि की ओर देखा । 
''किन्तु क्या? '' व्यास के चेहरे पर ढृढ़ता थी । 
''वेदव्यास के साथ उनके शिष्य-परिकर को जुटना पड़ेगा-उनके द्वारा विनिर्मित संजीवनी को जन-जन तक पहुँचाने में । आपके द्वारा सृजित भाव-मेघों को आपके शिष्य वायु की तरह धारण करके हर दिशा और हर क्षेत्र में तथा आपके द्वारा उत्पन्न इस सुगंध को जन-जन के हृदयों तक पहुँचाएँ, इस कार्य को युगधर्म व युगयज्ञ मानकर चलें-तभी सफलता संभव होगी । '' 

''शिष्य-परिकर अपना सवर्स्व होम कर भी युगपरिवर्तन का यह यज्ञ पूरा करेगा ।''-महर्षि के शब्दों में विश्वास था । 

''तो मानव-जीवन को दिव्य बनने -आज की परिस्थितियाँ कल उलटने में देर नहीं । ''-देवऋषि मुस्कराए । 
''मिल गया समाधान'' -वेदव्यास ने भावविह्वल स्वरों में देवऋषि को माथा नवाया । वह जुट गए युग की भागवत रचने और शिष्यों द्वारा उसे जन-जन तक पहुँचाने में । 

और नारद? वे चल दिए, फिर किसी की संवेदनाओं को उमगाने और उसे समाधान सुझाने हेतु ।

-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रगतिशील समाज का आधार और स्वरूप

व्यक्ति-निर्माण के लिए हमें गुण, कर्म, स्वभाव में घुसी हुई अवांछनीय दुष्प्रवृत्तियों को हटाना होगा । जीवन और उसके उद्देश्य को समझना होगा तथा किस आधार पर किसलिए, किस-प्रकार जिया जाय इस दर्शन-दृष्टि को परिष्कृत करना होगा । आज पशु और पिशाचों जैसी जीवन-दृष्टि बनती चली जा रही है, चिन्तन की प्रणाली ऐसी विकृत बन चली है कि अशुद्ध और अवांछनीय तत्व ही ग्राह्य दीखते हैं । महानता का अमृत पीने की रुचि नही रही, निकृष्टता का विष उल्लासपूर्वक पिया जा रहा है । घिनौने जीवनक्रम में सरसता लगती है ।
 
आदर्शवादिता के आधार पर अनुकरणीय जीवन जीने के लिए किसी में उमंग नहीं दीखती । सोचने और प्रेरणा देने वाला अन्तःकरण मानो माया-मूर्छा में ग्रस्त होकर एक प्रकार से दिग्भ्रान्त ही बन गया हो, ऐसी है आज के व्यक्ति की स्थिति । इसे बदले बिना कोई रास्ता नहीं । घटिया व्यक्ति घटिया परिस्थितियाँ पैदा करेंगे और उसके परिणाम दुःखदायी ही उत्पन्न होंगे । विश्व के सामने प्रस्तुत अगणित समस्याएँ वस्तुतः एक ही विष बीज से उत्पन्न वल्लरियाँ हैं । मानवीय आदर्शो की मात्रा चिन्तन और कर्तृत्व में से जितनी घटती चली जायगी, वातावरण उतना ही विषाक्त होता जायगा और विपत्तियों का अन्धकार उतना ही सघन होता जायगा । आज यही हो रहा है सो परिणाम भी सामने है ।
 
संसार को सुखी बनाने के लिए उपार्जन, चिकित्सा, शिक्षा, वाहन, शिल्प, कला, विज्ञान, विनोद आदि के साधनों को बढ़ाया जाना चाहिए । पर यह भूलना नहीं चाहिए कि कुबेर जैसी सम्पदा और इन्द्र जैसी सुविधा भी यदि हर व्यक्ति के पीछे जुटा दी जाय तो भी भावनात्मक स्तर ऊँचा उठे बिना चैन से रहना और शान्ति से रहने देना संभव न हो सकेगा । चिन्तन में असुरता कर्तृत्व में दुष्टता के अंश यदि बने ही रहे तो हर व्यक्ति अपने और दूसरों के लिए केवल संकट ही उत्पन्न करता रहेगा । इसलिए हमें मूल बात पर ध्यान देना चाहिए । जन-मानस के भावनात्मक परिष्कार को प्राथमिकता देनी चाहिए । यह एक ही उपाय है जिसके आधार पर विश्व शान्ति की आवश्यकता पूरा कर सकना वस्तुतः सम्भव एवं सुलभ हो सकता है । युग-निर्माण योजना ने सर्व-साधारण का ध्यान इसी ओर खींचा है और ऐसे प्रयोगात्मक प्रयत्न शुरू किये हैं जिन्हें बड़े साधनों से बड़े परिणाम में आरम्भ किया जा सके तो निर्माण की सही दिशा मिल सकती है और आज की नारकीय परिस्थितियों को कल सुख-शान्ति भरे वातावरण में परिवर्तित किया जा सकता है । 

व्यक्ति का चिन्तन और कर्तृत्व किस आधार पर बदला जाय इसकी संक्षिप्त चर्चा भी की जा चुकी है, दशा यही है । जब विस्तार में जाना होगा और काम को हाथ में लेना होगा तब इसमें हेर-फेर भी किया जा सकता है आज तो हमें इतना भर जानना है कि मनुष्यता के साथ घुल गये- पशुओं को और असुरता के अंशों को बहिष्कृत करना और मानवीय चेतना में देवत्व का अधिकाधिक समावेश करना विश्व निर्माण का प्रथम चरण होगा । आज या आज से हजार वर्ष बाद जब भी हमें सही दिशा मिलेगी श्रीगणेश यहीं से करना पड़ेगा । चिन्तन को प्रभावित करने वाले समस्त स्रोतों को हमें अपने अधिकार में करना चाहिए अथवा अलग से उन आधारों को उच्च स्तरीय प्रेरणा देने की सार्मथ्य बनाकर खड़ा करना होगा ताकि उनकी तुलना में इन दिनों लोक चेतना को कुमार्गगामिता की ओर खींचने वाले माध्यम पिछड़ने और परास्त होने की स्थिति में चले जायँ । 

व्यक्ति की तरह समाज का निर्धारण-निर्माण भी नये सिरे से करना होगा । पिछले अज्ञानान्धकार युग ने हमें अगणित ऐसी विकृत प्रथा-परम्पराएँ दी हैं जिनके कारण व्यक्तियों को कुमार्गगामी और पतनोन्मुख होने के लिये विवश होना पड़ रहा है । वह ठीक है कि प्रखर व्यक्तित्व समाज को बदल सकते हैं पर यह उससे भी अधिक ठीक है कि समाज के प्रचलित ढर्रें के अनुरूप जनसमूह ढलता चला जाता है । जो हो रहा है उसे देखते-देखते मनुष्य उसका अभ्यस्त हो जाता है । और फिर उसे वही ढर्रा उचित एवं प्रिय लगने लगता है । तब उसका विरोध करते भी नहीं बनता । मनुष्य की प्रगति कुछ ऐसी ही है आज अनेक अवांछनीय प्रथा-परम्पराएँ हमारे समाज में प्रचलित है पर उनकी बुराई न तो सूझती है और न हटाने की जरूरत लगती है । 

न्याय, औचित्य एवं विवेक द्वारा हमें समाज शरीर में प्रवष्टि उन तत्वों पर दृष्टि डालनी होगी जो उसे निरन्तर विषैला और खोखला करते चले जा रहे हैं । खोजने पर यह तत्व आसानी से सामने आ जाते हैं । मनुष्य-मनुष्य के बीच उपस्थित की गई नीच-ऊँच की मान्यता ऐसी सामाजिक बुराई है जिसके पीछे कोई तर्क, न्याय या औचित्य नहीं है । घोड़ा, गधा, बैल, हिरन आदि की तरह मनुष्य भी एक जाति है । देश, काल, प्रकृति, जल, वायु के कारण रंग और आकृतियों में थोड़ा अन्तर आता है पर इससे उसकी जाति में अन्तर नहीं आता । भाषा, प्रकृति आदि के आधार पर सुविधा के लिए जाति भेद करने भी हो तो भी उनमें नीच-ऊँच ठहराये जाने का कोई कारण नहीं । दुष्ट-दुश्चरित्रों को नीच और श्रेष्ठ सज्जनों का ऊँचा कहा जाय यहाँ तक तो बात समझ में आती है पर देश विशेष में पैदा होने के कारण किसी को नीच, किसी को ऊँचा माना जाय यह मान्यता सर्वथा अन्यायमूलक है । इससे नीचे समझे जाने वाले वर्गों का स्वाभिमान गिरता और प्रगति के स्वाभाविक अधिकारों से उन्हें वंचित रहना पड़ता है । कुछ लोग अकारण अपने को उच्च मानने का अहंकार करते हैं । 

अपने देश में यह जन्म-जातिके साथ जुड़ी हुई ऊँच-नीच की मान्यता अविवेक के अन्तिम चरण तक पहुँच चुकी है । एक जाति के अन्तर्गत भी उपजातियों के भेद से लोग परस्पर ऊँच-नीच का भेद करते हैं । अछूत कहे जाने वाले लोग भी अपनी जन-जातियों में ऊँच-नीच का अन्तर मानते हैं । इस मान्यता ने सारे समाज को विसंगठित कर दिया । नारंगी बाहर से एक दीखती है भीतर से उसमें फाँकों में से फाँके निकलती चली जाती हैं, इसी प्रकार एक भारतीय समाज कहने भर को एक है वस्तुतः यह जाति भेद ऊँच-नीच अन्तर के कारण हजारों, लाखों टुकड़ों में बँटा हुआ विशृंखलित समाज है । ऐसे लोग कभी संगठित नहीं हो सकते जहाँ संगठन न होगा वहाँ न समर्थता दिखाई देगी, न प्रगति की व्यवस्था बनेगी । 

इस सामाजिक अन्याय का फल हैं कि नीच समझे जाने वाले लोग तेजी से हिन्दू धर्म छोड़ते चले जा रहे हैं और खुशी-खुशी विधर्मी बन रहें हैं । यही स्थिति रही तो छोटी कही जाने वाली तिरस्कृत जाति के लोग विधर्मी बन जायेंगे । और अगले दिनों देश में ही सवर्ण हिन्दू अल्पमत में होकर रहेगें अथवा पाकिस्तान,नागालैण्ड, जैसे टुकड़े कटते चले जायेंगे । समय रहते हमें जन्म जाति के आधार पर प्रतिपादित की जाने वाली नीच-ऊँच की मान्यता के दुष्परिणामों को समझना चाहिए और उसके उन्मूलन का प्रबल प्रयत्न करना चाहिए । 

स्वच्छता, समय की पाबन्दी , व्यवस्था, सतर्कता, व्यक्तिगुण हैं । इन्हें सामाजिक मान्यता मिलनी चाहिए । हर सामाजिक प्रक्रिया में इन प्रवृत्तियों को प्रमुखता मिलनी चाहिए ताकि व्यक्तियों को अपनी रीति-नीति तदनुरूप ढालने के लिये विवश होना पड़े । दफ्तरों से लेकर विश्राम गृहों तक हर जगह समय पर काम हो, समय चुकने वाले अपने प्रमाद का समुचित दण्ड पायें ताकि वे बार-बार वैसी भूल न करें । गन्दगी और अव्यवस्था चाहे वह घरों में हो या सार्वजनिक स्थानों पर, व्यक्ति की दृष्टि में खटके और हर देखने वाला उसे हटाने का प्रयत्न करे । भीड़ लगाने के स्थान पर हर काम में लाइन लग कर काम करने का अपना स्वभाव बन जाय । जिसने जिस समय जिस काम को करने का वायदा किया है वह सार्मथ्य भर उस वचन की पाबन्दी का ध्यान रखे ताकि किसी का समय बर्बाद न होने पावे । समय की बर्बादी को धन बर्बाद करने जैसा ही अनुचित माना जाय । प्रगतिशील वर्गों जैसे यह सद्गुण अपनी सामाजिकता के भी अंग बनने चाहिए ।
-वाङ्मय ६६-४-१३,१४ 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

अपना विशिष्ट कर्तव्य और उत्तरदायित्व

भगवान ऐसे महान् उत्तरदायित्वों की पूर्ति कुछ विशिष्ट आत्माओं के कंधों पर डालता है । युग-निर्माण परिवार के सदस्य-गण एक ऐसी ही सुदृढ़ शृंखला की कड़ियाँ हैं, जिन्हें अपने पूर्व संचित उच्च संस्कारों के कारण वह गौरव प्राप्त हुआ है कि वे भगवान की इच्छापूर्ण करने वालों की अगली पंक्ति में खड़े होने का सौभाग्य और गर्व-गौरव प्राप्त कर सकें । इस उत्तरदायित्व का भार अपने कन्धों पर जब इच्छा, अनिच्छा से आ ही गया तो उचित यही है कि उसकी पूर्ति मे तत्परतापूर्वक जुटा जाय । 

परिवर्तन होकर रहेगा 
ऐसे निष्ठावान व्यक्ति जो आदर्शवाद को केवल पसन्द ही न करें वरन् उसे व्यवहार में लाने के लिए कटिबद्ध हों और उस मार्ग में चलते हुए यदि असुविधाओं से भरा हुआ जीवन व्यतीत करना पड़े तो उसके लिए भी तत्पर रहें, महापुरुष कहलाते हैं । उन्हें ही इस धरती के धर्मस्तंभ कहते हैं । विख्यात होना न होना अवसर की बात है । नींव में रखें पत्थरों को कोई नहीं जानता, किन्तु शिखर के कँगूरे सबको दीखते हैं पर श्रेय इन कँगूरों को नहीं नींव के पत्थरों को ही रहता है । कँगूरे टूटते-फूटते और हटते, बदलते रहते हैं पर नींव के पत्थर अडिग हैं । जब तक भवन रहता है तब तक ही नहीं वरन् उसके नष्ट हो जाने के बाद भी वे जहाँ के तहाँ बने रहते हैं । इसी प्रवृत्ति के बने हुए लौह-स्तंभों को युग-पुरुष कहते हैं । उन्हीं के द्वारा युगों का निर्माण एवं परिवर्तन व्यवस्था सम्पन्न होती है । 
-वाङ्मय ६६-४-३ 

विश्व शान्ति का विशाल भवन खड़ा करने के लिए ऐसे ही लौह स्तंभों की आवश्यकता है जो बातें बनाने में, यश लूटने में दक्ष न हों वरन् त्याग और बलिदान का दबाव सहने के लिए भी तैयार रहें । ताजमहल विश्व की सबसे सुन्दर और सुदृढ़ इमारतों में एक है । उसकी नींव में लाखों मन लोहा और सीसा लगाया गया है । ताकि उसकी मजबूती और स्थिरता में कमी न आवे । उसके हर पत्थर को परखकर लिया गया है- जिसे लगाया गया है उसे उचित रूप से घिसा और चमकाया गया है । नक्कासी करते समय जो पत्थर छैनी और हथौड़ों की चोटें शान्ति पूर्वक सहते रहे हैं वे ही उस सुन्दर इमारत में सुसज्जित रूप से प्रतिष्ठा प्राप्त कर रहे हैं । कारीगर की चोटें जो नहीं सह सके; टूट गये, उनको कूड़े-कचरे में ही स्थान मिल सका । 

युग निर्माण आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है । विश्व-व्यापी विपन्नताओं का समाधान और किसी प्रकार संभव नहीं, रास्ता एक ही है-केवल एक । जब तक मानव मन में भरी हुई दुष्प्रवृत्तियों को हटाकर उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियों की प्रतिष्ठापना न होगी तब तक संसार की एक भी उलझन न सुलझेगी । 

प्रवृत्तियों के परिवर्तन की दिशा में हर मनुष्य चाहे वह कितना ही अयोग्य एवं तुच्छ क्यों न हो, कुछ न कुछ कर सकता है । ऐसा कृतत्व जनमानस में उत्पन्न किया जाना चाहिए । प्रश्न केवल यह है कि इसे करे कौन? नींव का पत्थर, नाव का पतवार, रेल की पटरी, मोटर का पेट्रोल देखने में तुच्छ भले ही लगें पर अनिवार्य आवश्यकता तो उन्हीं की रहती है । यह आवश्यकता पूर्ण न हो तो इन शक्तिशाली यंत्रों की गतिविधियाँ रुकी ही पड़ी रहेंगी । आज प्रगति का अभियान इसीलिए रुका पड़ा है कि उसे अग्रगामी बनाने वाले लौह-पुरुष दृष्टिगोचर नहीं होते । सस्ती वाहवाही लूटने वाले लुटरे हर जगह मौजूद हैं, नाम बड़ाई के भूखे भिखारी जनसेवा के सदावर्त से अपनी भूख बुझाने के लिए इधर-उधर मारे-मारे फिरते रहते हैं पर बीज की तरह गलकर विशाल वृक्ष के रूप में परिणत जो हो सकें ऐसा साहस किन्हीं विरलों में होता है । 

युग निर्माण की नींव खोदी जा चुकी है और उस विशाल भवन के निर्माण की योजना भी बन चुकी है । अब केवल नींव में रखे जाने वाले पत्थरों की तलाश है । भारत भूमि की विशेषता और ऋषि रक्त की महत्ता पर जब ध्यान देते हैं तो यह विश्वास सहज ही हो जाता है कि कर्तव्य की पुकार सुनने और उसे पूरा करने वाले तत्व यहाँ सदा से रहे हैं और अब भी उनका बीज नाश नहीं हुआ है । 

यह सब कैसे, किसके द्वारा, किस तरह होगा इसकी एक रूपरेखा युग निमार्ण योजना ने प्रस्तुत की है । प्रस्तुतकर्त्ता का दावा है कि अगले दिनों इसी पटरी पर प्रगति की रेलगाड़ी द्रुतगति से दौड़ेगी । दूसरे विकल्प सोचे भले जायँ पर वे सफलता के लक्ष्य तक पहुँच न सकेंगे । समय बतायेगा कि इन पंक्तियों में प्रस्तुत भविष्य की रूपरेखा उतनी सही, सार्थक और सफल होकर रही और उसने विश्व मानव के परित्राण में कितना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । योजना के पीछे ईश्वरीय इच्छा या प्रेरणा की झाँकी जो देखते हैं उन्हें भविष्य सही सोचने वाला ही प्रमाणित करेगा । 
-वाङ्मय ६६-४-४ 


हमें नव-निर्माण के लिए इसी मनोभूमि की निष्ठा तथा दृष्टि को विकसित करने की चेष्टा करनी चाहिए । नव-निर्माण की अपनी योजना इसी पृष्ठभूमि पर बनाई जा रही है । हम मानकर चलते हैं कि शासन तथा व्यवस्था की दृष्टि से प्रजातन्त्री शासन पद्धति अन्य सब पद्धतियों से अच्छी है । हम यह मानकर चलते हैं कि मनुष्य केवल भौतिक साधनों की सुव्यवस्था से ही सन्तुष्ट नहीं रह सकता, उसे आत्मिक प्रगति की भी आवश्यकता है । इसके लिए, धर्म, संस्कृति और अध्यात्म को जीवित रहना चाहिए । हम नहीं चाहते कि शासन इन तत्वों को नष्ट करके मनुष्य को मात्र मशीन बना दे । हम यह मानकर चलते हैं कि हर मनुष्य के भीतर पशुता की तरह देवत्व भी विद्यमान है और उसे विश्वास है कि मनुष्य की सर्वोपरि शक्ति 'विचारणा' है उसे यदि उत्कृष्टता की दिशा में मोड़ा जा सके तो धरती पर स्वर्ग अवतरण और मनुष्य में देवत्व के उदय की सम्भावानाएँ मूर्तिमान हो सकती हैं । जन-सहयोग के द्वारा एकत्रित अनुदानों को हम पहाड़ों से ऊँचा और समुद्र से विशाल मानते हैं और यह विश्वास करते हैं कि यदि इस स्वेच्छा-सहयोग को लोक-मंगल के लिए मोड़ा जा सके तो नव-निर्माण के लिए जितने साधनों की आवश्यकता है उससे अधिक ही मिल सकते हैं । हम जानते हैं कि विश्व का नैतिक पुनरुत्थान करने की सर्वतोमुखी क्षमता से सम्पन्न भारत जैसे महान परम्पराओं वाले देश के लिए प्रजातन्त्र प्रणाली ही उपयुक्त हो सकती है, बशर्ते कि इस पद्धति को पश्चिम की नकलची न रहने देकर अपने देश की परिस्थिति के अनुरूप ढाल लिया जाय । 
-वाङ्मय ६६-४-९ 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

हमें स्वयं भी विभूतिवान सिद्ध होना होगा

अभी इन दिनों युग-परिवर्तन के प्रचण्ड अभियान का शुभारम्भ हुआ है । ज्ञान यज्ञ की हुताशन वेदी पर बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक क्रान्ति की ज्वाला प्रज्जवलित करने वाली आहुतियाँ दी जा रही हैं । जन्मेजय के नाग यज्ञ की तरह फुफकारते हुए विषधर तक्षकों को ब्रह्म तेजस्, स्वाहाकार द्वारा घसीटा ही जायगा तो उस रोमांचकारी दृश्य को देखकर दर्शकों के होश उड़ने लगेंगे । वह दिन दूर नहीं जब आज की अरणि मन्थन से उत्पन्न स्फुल्लिंग शृंखला कुछ ही समय उपरान्त दावानल बनकर कोटि-कोटि जिह्वाएँ लपलपाती हुई वीभत्स जंजालों से भरे अरण्य को भस्मसात करती हुई दिखाई देंगी । 

अभी भारत मे-हिन्दू धर्म में-धर्ममन्च से, युग निर्माण परिवार मे यह मानव जाति का भाग्य निर्माण करने वाला अभियान केन्द्रित दिखाई पड़ता हैं । पर अगले दिनों उसकी वर्तमान सीमाएँ अत्यन्त विस्तृत होकर असीम हो जायेंगी । तब किसी संस्था-संगठन का नियन्त्रण निर्देश नहीं चलेगा वरन् कोटि-कोटि घटकों से विभिन्न स्तर के ऐसे ज्योति-पुंज फूटते दिखाई पड़ेंगे,जिनकी अकूत शक्ति द्वारा सम्पन्न होने वाले कार्य अनुपम और अदभुत ही कहे जायेंगे । महाकाल ही इस महान परिवर्तन का सूत्रधार हैं और वही समय अनुसार अपनी आज की मंगलाचरण थिरकन को क्रमशःतीव्र से तीव्रतर, तीव्रतम करता चला जायगा । ताण्डव नृत्य से उत्पन्न गगनचुम्बी ज्वाज्वल्यमान आग्नेय लपटों द्वारा पुरातन को नूतन में परिवर्तित करने की भूमिका किस प्रकार,किस रूप में अगले दिनों सम्पन्न होने जा रही हैं, आज उन सबको सोच सकना, कल्पना परिधि में ला सकना सामान्य बुद्घि के लिए प्रायः असंभव ही हैं । फिर भी जो भवितव्यता हैं वह होकर रहेगी । युग को बदलना ही हैं, आज की निविड़ निशा कल के प्रभातकालीन अरूणोदय में परिवर्तित हो कर रहेगा । 
-वाङ्मय ६६-३-३९,४० 

हम इन दिनों विभूतियों को प्रेरणा देने के कार्य में लगे हैं और यह प्रयास आरंभ भले ही छोटे क्षेत्र से हुआ हो पर अब अधिकाधिक व्यापक विस्तृत होता चला जा रहा है । युग परिवर्तन की भूमिका लगभग महाभारत जैसी होगी । उसे लंकाकाण्ड स्तर का भी कहा जा सकता है । स्थूल बुद्धि इतिहासकार इन्हें भारतवर्ष के अमुक क्षेत्र में घटने वाला घटनाक्रम भले ही कहते रहें पर तत्वदर्शी जानते हैं कि अपने-अपने समय में इन प्रकरणों का युगान्तरकारी प्रभाव हुआ था । अब परिस्थितियाँ भिन्न हैं । अब विश्व का स्वरूप दूसरा है । समस्याओं का स्तर भी दूसरा ही होगा, भावी युग परिवर्तन प्रक्रिया का स्वरूप और माध्यम भूतकालीन घटनाक्रम से मेल नहीं खा सकेगा किन्तु उसका मूलभूत आधार वही रहेगा जो कल्प-कल्पान्तरों से युग-परिवर्तनकारी उपक्रमों के अवसर पर कार्यान्वित होता रहा है । 

युग निर्माताओं की इस सृजन सेना के अधिनायकों के उत्तरादयित्व का भार वहन कर सकने में समर्थ आत्माओं को साधना-सत्रों में अभीष्ट अनुदान के लिए बुलाया जाता रहता है । यहीं प्रक्रिया विकसित होकर विश्वव्यापी बनने जा रही है । परिवर्तन न तो भारत तक सीमित रहेगा और न उसकी परिधि हिन्दू धर्म तक अवरुद्ध रहेगी । परिवर्तन विश्व का होना है । निर्माण समस्त जाति का होगा । धरती पर स्वर्ग का अवतरण और मनुष्य में देवत्व का उदय किसी देश, जाति, धर्म, वर्ग तक सीमित नही रह सकता उसे असीम ही बनना पड़ेगा । इन परिस्थितियों में युग निर्माण प्रक्रिया का विश्वव्यापी होना एक वास्तविक तथ्य है ।
-वाङ्मय ६६-३-४०,४१ 

युग परिवर्तन की घड़ियों में भगवान अपने विशेष पार्षदों को महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ सम्पादित करने के लिए भेजता है । युग-निर्माण परिवार के परिजन निश्चित रूप से उसी शृंखला की अविच्छिन्न कड़ी है । उस देव ने उन्हें अत्यन्त पैनी सूक्ष्म-दृष्टि से ढूँढा और स्नेह सूत्र में पिरोया है । यह कारण नहीं है । यो सभी आत्माएँ ईश्वर की सन्तान हैं, पर जिन्होंने अपने को तपाया निखारा है उन्हें ईश्वर का विशेष प्यार-अनुग्रह उपलब्ध रहता है । यह उपलब्धि भौतिक सुख-सुविधाओं के रूप में नहीं है यह लाभ की प्रवीणता और कर्मपरायणता के आधार पर कोई भी आस्तिक-नास्तिक प्राप्त कर सकता है । भगवान जिसे प्यार करते हैं उसे परमार्थ प्रयोजन के लिए स्फुरणा एवं साहसिकता प्रदान करते हैं । सुरक्षित पुलिस एवं सेना आड़े वक्त पर विशेष प्रयोजनों की पूर्ति के लिए भेजी जाती है । युग-निर्माण परिवार के सदस्य अपने को इसी स्तर के समझें और अनुभव करें कि युगान्तर के अति महत्त्वपूर्ण अवसर पर उन्हें हनुमान अंगद जैसी भूमिका सम्पादित करने को यह जन्म मिला है । इस देवसंघ में इसलिए प्रवेश हुआ है । युग-परिवर्तन के क्रिया-कलाप में असाधारण आकर्षण और कुछ कर गुजरने के लिए सतत अन्तःस्फुरण का और कुछ कारण हो ही नहीं सकता । हमें तथ्य को समझना चाहिए । अपने स्वरूप और लक्ष्य को पहचानना चाहिए और आलस्य प्रमाद में बिना एक क्षण गँवाये अपने अवतरण का प्रयोजन पूरा करने के लिए अविलम्ब कटिबद्ध हो जाना चाहिए । इस से कम में युग-निर्माण परिवार के किसी सदस्य को शान्ति नहीं मिल सकती । अन्तर्रात्मा की अवज्ञा उपेक्षा करके जो लोभ-मोह के दलदल में घुसकर कुछ लाभ उपार्जन करना चाहेंगे तो भी अन्तर्द्वन्द्व उन्हें उस दिशा में कोई बड़ी सफलता मिलने न देगा । माया मिली न राम वाली दुविधा में पडे़ रहने की अपेक्षा यही उचित है दुनियादारी के जाल-जंजाल में घुसते चले जाने वाले अन्धानुयायियों में से अलग छिटक कर अपना पथ स्वयं निर्धारित किया जाय । अग्रगामी पंक्ति में आने वालों को ही श्रेय भाजन बनने का अवसर मिलता है महान प्रयोजनों के लिए भीडे़ तो पीछे भी आती रहती हैं और अनुगामियों से कम नहीं कुछ अधिक ही काम करती हैं परन्तु श्रेय-सौभाग्य का अवसर बीत गया होता है । मिशन के सूत्र संचालकों की इच्छा है कि युग निर्माण परिवार की आत्मबल सम्पन्न आत्मायें इन्हीं दिनों आगे आयें और अग्रिम पंक्ति में खड़े होने वाले युग-निर्माताओं की ऐतिहासिक भूमिकायें निबाहें । इन पंक्तियों का प्रत्येक अक्षर इसी संदर्भ से ओत-प्रोत समझा जाना चाहिए
- वाङ्मय ६६-३-४१ 

संसार मे दिन-दिन बढ़ती जाने वाली उलझनों का एकमात्र कारण मनुष्य के आन्तरिक स्तर, चरित्र दृष्टिकोण एवं आदर्श का अधोगामी होना है । इस सुधार के बिना अन्य सारे प्रयत्न निरर्थक हैं । बढ़ा हुआ धन, बढ़े हुये साधन, बढ़ी हुई सुविधाएँ कुमार्गगामी व्यक्ति को और भी अधिक दुष्ट बनायेंगी । इन बढ़े हुए साधनों का उपयोग वह विलासिता, स्वार्थपरता, अहंकार की पूर्ति और दूसरों के उत्पीड़न में ही करेगा । असंयमी मनुष्य को कभी रोग-शोक से छुटकारा नहीं मिल सकता, भले ही उसे स्वास्थ्य सुधार के कैसे ही अच्छे अवसर क्यो न मिलते रहें । 
-वाङ्मय ६६-३-५३ 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

युग परिवर्तन की संभावनाएँ साकार होकर रहेंगी

अपनी इन्हीं मान्यताओं और क्रिया पद्धतियों को लेकर युग-निर्माण योजना एक सुनियोजित और सुव्यवस्थित गति से आगे बढ़ती चली जा रही है । दूसरे संगठन या आंदोलन दो आधार लेकर चलते हैं- (१) आर्थिक साधन, (२) तथाकथित बड़े और प्रभावशाली व्यक्तियों का सम्बंध । बड़े कहलाने वाले सगठनों की चमक-दमक हलचल दिख पड़ती हैं, उनमें बड़े आदमियों का बुद्घि-कौशल व्यक्तित्व और धन छाया रहता हैं । और उसी आधार पर वह आवरण खड़ा रहता हैं । जड़ बिल्कुल खोखली होती हैं । नीचे से ईंट निकली की सारा ढाँचा लड़खड़ाकर गिर पड़ता हैं । कल के बड़े आंदोलन और बड़े संगठन आज विस्मृति के गर्त में गिरते दिखाई पड़ते हैं । युग निर्माण योजना का मूल आधार जीवित भावना सम्पन्न और सुसंस्कारी व्यक्तियों का संग्रह हैं । इसे एक अद्भुत उपलब्धि ही कहना चाहिए कि एक-एक करके ढूँढ़ते हुए व्यक्तिगत ढूँढ़-खोज परख करते हुए व्यक्तिगत संपर्क के आधार पर ऐसे भावनाशील और आदर्शवादी व्यक्तित्व ढूँढ़ निकाले गये । उन्हें एक मात्र सूत्र मे माला की तरह गुँथा गया और एक ऐसी बहुमुखी कार्य पद्घति दी गई जिसके आधार पर वह संघठन प्रचारात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक विविध प्रवृत्तियों के अपने क्षेत्र में, अपने ढंग से, अपनी योग्यतानुसार चलता रह सके । कार्य करने से ही अभ्यास बढ़ता हैं, अनुभव होता हैं और उत्साह उमड़ता हैं और साहस चलता हैं । शतसूत्री योजनाओं मे संलग्न युग निर्माण परिवार अब ऐसी स्थिति में विकसित हो गया हैं कि जिन आदर्शों को लेकर यह अभियान आरंभ हुआ था, उसकी संभावना को सफलता के रूप में देखा जा सके । 

कार्य भले ही कम हुआ हो, पर कार्यकर्त्ताओं ने अपने क्षेत्र में असाधारण श्रद्घा अर्जित की हैं, जन-शक्ति को साथ लेकर चलने में आश्चार्यजनक सफलता पाई है । पिछले दिनों की उपलब्धियों पर दृष्टिपात करने से दो तथ्य ऐसे हैं जिन्हें देखते हुए यह विश्वास किया जा सकता है । कि कुछ दिन पहले जिस आन्दोलन को बहस, सनक, कल्पना की उड़ान, छोटे मुँह की बात, असंभव आदि कहकर उपहास उड़ाया जाता था । वह अगले दिनों तक यथार्थता बनने जा रहा है । इसके दो कारण हैं-१. परिवार का आदर्शवादी आस्थाओं के आधार पर गठन । २. जनता की आकांक्षाओं के, युग की माँग के अनुरूप कार्य पद्धति का अपनाया जाना । गाँधी जी का आन्दोलन इन दो कारणों से ही सफल हुआ था । एक तो उन दिनों एक से एक बढ़कर भावनाशील और निर्मल चरित्र व्यक्ति इसमें सम्मिलित हुए थे, दूसरे देश की जनता का बच्चा-बच्चा जिस स्वतंत्रता की आवश्यकता अनुभव करता था । उसी की पूर्ति को लक्ष्य बनाकर काँग्रेस चल रही थी । ठीक यही इतिहास ज्यों का त्यों युग निर्माण योजना दुहरा रही है और ठीक उसी आधार पर उसे जन सहयोग मिल रहा है तथा असंभव समझा जाने वाला लक्ष्य नितांत संभव होता दीख रहा है । 
-वाङ्मय ६६-३-२० 

जनता की जो आकांक्षायें आज हैं, उसी के अनुरूप युग निर्माण योजना मार्गदर्शन दे रही है, भावनाओं का परिवर्तन, सृजनात्मक कार्यों में पारस्परिक सहयोग का उत्साहपूर्वक नियोजन, अवांछनीयता से हर क्षेत्र में लड़ पड़ने का शौर्य-साहस यह तीनों ही प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं जो एक बार उभरी सो उभरी । असुरता में ही पनपने की शक्ति हो सो बात नहीं है, देवत्व में भी आत्मविस्तार की क्षमता है । उसे यदि अवसर मिल सके तो उसका अभिवर्द्धन और भी अधिक द्रुतगति से होता है । एक व्यक्ति दूसरों को बनाए-यही है सच्चा और ठोस आधार । 

पोला आधार वह है जिसमें लाउडस्पीकर चिल्लाते और अखबार लंबे-लंबे समाचार छापते हैं । मंच-पंडाल बनते, धुँआधार भाषण होते और पर्चे-पोस्टरों के गुब्बारे उड़ते हैं । किराए पर जुलूस की भीड़ जमा करने का भी अब एक व्यवस्थित धंधा चल पड़ा है । यह फुलझड़ियाँ बिल्कुल बचकानी हैं और आंदोलनों के नाम पर यही तमाशे हर ओर खड़े दिखाई पड़ते हैं । इस विडम्बना के युग में युग-निर्माण योजना अपना अलग आधार लेकर चल रही है । व्यक्ति द्वारा व्यक्ति को बनाया जाना, दीपक द्वारा दीपक को जलाया जाना, यही है अपना सिद्धांत । चंदा माँगते फिरने से काम शुरु करना नहीं वरन् घर से खैरात शुरु करना, स्वयं समय और पैसा खर्च करके अपनी निष्ठा का परिचय देना और उसी से दूसरों में अनुकरण की आकांक्षा उत्पन्न करना यही है अपना वह क्रिया-कलाप जिसने लक्ष्य की ओर द्रुतगति से चलने में कीर्तिमान स्थापित किया है । 
-वाङ्मय ६६-३-२१ 

युग निर्माण योजना की सबसे बड़ी संपत्ति उस परिवार के परिजनों की निष्ठा है, जिसे कूटनीति एवं व्यक्तिगत महत्वाकाक्षाओं के आधार पर नहीं, धर्म और अध्यात्म की निष्ठा के आधार पर बोया, उगाया और बढ़ाया गया है । किसी को पदाधिकारी बनने की इच्छा नहीं, फोटो छपाने के लिए भी तैयार नहीं, नेता बनने के लिए कोई उत्सुक नहीं, कुछ कमाने के लिए नहीं, कुछ गँवाने के लिए जो आए हों उनके बीच इस प्रकार कल छल छद्म लेकर कोई घुसने का भी प्रयत्न करे तो उस मोर का पर लगाने वाले कौवे को सहज ही पहचान लिया जाता है और चलता कर दिया जाता है । यही कारण है कि इस विकासोन्मुख हलचल में सम्मिलित होने के लिए कई व्यक्तिगत महत्वाकांक्षी आए पर वे अपनी दाल गलती न देखकर वापस लौट गए । यहाँ निस्पृह और भावनाशील, परमार्थ-परायण, निष्ठा के धनी को ही सिर माथे पर रखा जाता है । धूर्तता को सिर पर पाँव रखकर उल्टे लौटना पड़ता है । यह विशेषता इस संगठन में न होती तो महत्वाकांक्षाओं ने अब तक इस अभियान को भी कब का निगलकर हजम कर लिया होता । 

अखबारों में अपने लिए कोई स्थान नहीं, उन बेचारों को राजनीतिक हथकंडे और सिनेमा के करतब छापने से ही फुरसत नहीं, धनियों को अपनी यश-लोलुपता तथा धंधे-पानी का कुछ जुगाड़ बनता नहीं दीखता, इस दृष्टि से मिशन को साधनहीन कहा जा सकता है पर निष्ठा से भरे-पूरे और विश्व मानव की सेवा के लिए कुछ बढ़-चढ़कर अनुदान प्रस्तुत करने के लिए व्याकुल अंतःकरण ही अपनी वह शक्ति है जिसके आधार पर देश के नहीं विश्व के कोने-कोने में, घर-घर और जन-जन के मन में इस प्रकाश की किरणें पहुँचने की आशा की जा रही है । एक से दस-एक से दस -एक से दस की रट लगाए हुए हम आज के थोड़े से व्यक्ति कल जनमानस पर छा जायँगे । इसे किसी को आश्चर्य नहीं मानना चाहिए । लगन संसार की सबसे बड़ी शक्ति है । आदर्शों को कार्यान्वित करने के लिए आतुर व्यक्ति भी यदि युग परिवर्तन के स्वप्न साकार नहीं कर सकते तो फिर और कौन उस भार को वहन करेगा? 

इन आरंभिक दिनों में कुछ साधन मिल जाते तो कितना अच्छा होता । समाचार पत्रों ने अभियान का महत्व समझा होता और इन उदीयमान प्रवृत्तियों के प्रचार कार्य को अपनी कुछ पंक्तियों में स्थान दिया होता तो और भी अधिक सुविधा होती । कुछ साधन सम्पन्न ऐसे भी होते जो यश का बदला पाने की इच्छा के बिना पैसे से सहायता कर सके होते, कुछ कलाकार, साहित्यकार, गायक ऐसे मिले होते जो धन बटोरने की मृगतृष्णा में अपनी विभूतियाँ भी खो बैठने की अपेक्षा उन्हें नव निर्माण के लिए समर्पित कर सके होते, कुछ प्रतिभाशाली लोग राजनीति की कुचालों में उलझे बार-बार लातें बटोरते फिरने की ललक छोड़कर अपने व्यक्तित्व को लोक-मंगल की इस युग पुकार को सुन सकने में लगा सके होते तो कितना अच्छा होता । 

पर अभी उनका समय कहाँ आया है? फूल खिलने में देर है । अभी तो यहाँ बोने के दिन चल रहे हैं । भौंरे, मधुमक्खियों, तितलियाँ आयेंगी तो बहुत, कलाप्रेमी और सौन्दर्यपारखी भी चक्कर काटेंगे, पर इन बुआई के दिनों में एक घड़ा पानी और एक थैला खाद लेकर कौन आ सकता है? इस दुनिया में सफलता मिलने पर जयमाला पहनाई जाती है । इसके लिए प्रयास कर रहे साधनहीन को तो व्यंग्य-उपहास और तिरस्कार का ही पात्र बनाया जाता है । यह आशा हमें भी करनी चाहिए । 

साधन संपन्न का यह स्वभाव होता है कि वह हर विशेषता को, हर प्रतिभा को अपने इशारे पर चलाना चाहता है पर विश्व को नई दिशा देने वाले उनके पीछे चलने के लिए नहीं, उन्हीं की विकृति दिशा को सुधारने के लिए सन्नद्ध हैं । ऐसी स्थिति में उनमें खीज, असहयोग उपहास तथा विरोध के भाव उठें, तो कोई आश्चर्य नहीं । 

निराशा की कोई बात नहीं । अपना उपास्य जनदेवता है । उसकी शक्ति सबसे बड़ी है । जनमानस का उभार शक्ति का स्रोत है । वह जिधर निकलता है उधर ही रास्ता बनता चला जाता है । नव-निर्माण की गंगा का अवतरण अपना रास्ता भी बना ही लेगा । मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का प्रयास आज अपने शैशव में भी आशा और विश्वास की हरियाली लहलहा रही है । कल उस पर फूल और फल भी लदे हुए देखे जा सकेंगे । एक से दस बनने की जो शपथ इस मिशन के परिजनों ने ली है वह अपना रंग दिखाएगी । असंभव दीखने वाला कार्य संभव हो सकेगा । 
-वाङ्मय ६६-३-२१,२२ 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

धन दान नहीं, समयदान

धन का दान करने वाले बहुत हैं । धन के बल पर नहर सड़क बन सकती हैं । लोकमानस को उत्कृष्ट नहीं बनाया जा सकता । यह कार्य सत्पुरुषों के भावनापूर्ण समय दान से ही संभव होगा । युग-निर्माण के लिए धन की नहीं, समय की, श्रद्धा की, भावना की, उत्साह की आवश्यकता पड़ेगी । नोटों के बन्डल यहाँ कूड़े-करकट के समान सिद्ध होंगे । समय का दान ही सबसे बड़ा दान है, सच्चा दान है । धनवान लोग अश्रद्धा एवं अनिच्छा रहते हुए भी मान, प्रतिफल, दबाव या अन्य किसी कारण से उपेक्षापूर्वक भी कुछ पैसे दान खाते फेंक सकते हैं, पर समयदान वही कर सकेगा जिसकी उस कार्य में श्रद्धा होगी । इस श्रद्धायुक्त समय-दान में गरीब और अमीर समान रूप से भाग ले सकते हैं । युग-निर्माण के लिए इसी दान की आवश्यकता पड़ेगी और आशा की जाएगी कि अपने परिवार के लोगों में से कोई इस दिशा में कंजूसी न दिखावेगा । 
-वाङ्मय ६६-३-७ 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

युग निर्माण के उपयुक्त प्रबुद्ध व्यक्तियों की आवश्यकता

पीछे तो इसका विस्तार अपरिमित क्षेत्र में होना है । अगणित व्यक्ति, संगठन, देश और समूह इस योजना को अपने-अपने ढ़ग से कार्यान्वित करेंगे । जिस प्रकार अध्यात्मवाद, साम्यवाद, भौतिकतावाद आदि अनेक 'वाद' कोई संस्था नहीं, वरन् विचारधारा एवं प्रेरणा होती है, व्यक्ति या संगठन इन्हें अपने-अपने ढ़ग से कार्यान्वित करते है, इसी प्रकार युग-निर्माण कार्यक्रम एक प्रकाश-प्रवाह एवं प्रोत्साहन उत्पन्न करने वाला एक मार्गदर्शक बनकर विकसित होगा । आज 'गायत्री परिवार' उसकी प्रथम भूमिका सम्पादित करने का प्रयत्न मात्र ही कर सकेगा । इतना कार्य कर सकने की क्षमता उसमें मौजूद है यह भली प्रकार सोच-समझकर, नाप तौलकर ही कार्य आरम्भ किया गया है । 'लोकहँसाई' का हमें भी ध्यान है । 
-वाङ्मय ६६-2-७२ 

नई प्रबुद्ध पीढ़ी का अवतरण 
ऐसे संस्कारवान बालकों के शिक्षा के लिए नालन्दा, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों की आवश्यकता होगी जहाँ का प्रत्येक पाठ, प्रत्येक आचरण, प्रत्येक शिक्षण महामानव बनाने वाला हो । ऐसे विश्व विद्यालय बनाने और चलाने के लिए संभवतः हम इस शरीर से जिन्दा न रहेंगे पर उसकी योजना तो स्वजनों के मस्तिष्क में छोड़ ही जानी होगी । युग निर्माण कार्य महान है उसके लिए महान योजनाएँ प्रस्तुत करनी होंगी । नई पीढ़ी का रचना कार्य प्रबुद्ध युवकों के धर्म विवाहों से आरम्भ होगा । इसे एक प्रचंड आन्दोलन का रूप हमें शीघ्र ही देना होगा ।
-वाङ्मय ६६-२-७५ 

सुसंस्कृत व्यक्तियों की आवश्यकता 
अब युग की रचना के लिए ऐसे व्यक्तित्वों की ही आवश्यकता है जो वाचालता और प्रचार-प्रसार से दूर रह कर अपने जीवनों को प्रखर एवं तेजस्वी बनाकर अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करें और जिस तरह चन्दन का वृक्ष आस-पास के पेड़ों को सुगन्धित कर देता है उसी प्रकार अपनी उत्कृष्टता से अपना समीपवर्ती वातावरण भी सुरभित कर सकें । अपने प्रकाश से अनेकों को प्रकाशवान कर सकें । 

धर्म को आचरण में लाने के लिए निस्सन्देह बड़े साहस और बड़े विवेक की आवश्यकता होती है । कठिनाईयों का मुकाबला करते हुए सदुद्देश्य की ओर धैर्य और निष्ठापूर्वक बढ़ते चलना मनस्वी लोगों का काम है । ओछे और कायर मनुष्य दस-पाँच कदम चलकर ही लड़खड़ा जाते है । किसी के द्वारा आवेश या उत्साह उत्पन्न किये जाने पर थोडे़ समय श्रेष्ठता के मार्ग पर चलते हैं पर जैसे ही आलस्य, प्रलोभन या कठिनाई का छोटा-मोटा अवसर आया कि बालू की भीत की तरह औंधे मुँह गिर पड़ते हैं । आदर्शवाद पर चलने का मनोभाव देखते देखते अस्त-व्यस्त हो जाता है । ऐसे ओछे लोग अपने को न तो विकसित कर सकते हैं और न शान्तिपूर्ण सज्जनता की जिन्दगी ही जी सकते हैं फिर इनसे युग-निर्माण के उपयुक्त उत्कृष्ट चरित्र उत्पन्न करने की आशा कैसे की जाए? आदर्श व्यक्तित्वों के बिना दिव्य समाज की भव्य रचना का स्वप्न साकार कैसे होगा । गाल बजाने वाले, पर उपदेश कुशल लोगों द्वारा यह कर्म सम्भव होता सो वह अब से बहुत पहले ही सम्पन्न हो चुका होता । जरूरत उन लोगों की है जो आध्यात्मिक आदर्शों की प्राप्ति को जीवन की सब से बड़ी सफलता अनुभव करें और अपनी आस्था की सच्चाई प्रमाणित करने के लिये बड़ी से बड़ी परीक्षा का उत्साहपूर्ण स्वागत करें । 
-वाङ्मय ६६-२-७६ 

आदर्श व्यक्तित्व ही किसी देश या समाज की सच्ची समृद्धि माने जाते हैं । जमीन में गड़े धन की चौकसी करने वाले साँपों की तरह तिजोरी में जमा नोटों की रखवाली करने वाले कंजूस तो गली- कूँचों में भरे पडे़ हैं । ऐसे लोगों से कोई प्रगति की अपेक्षा नहीं की जा सकती । प्रगति के एकमात्र उपकरण प्रतिभाशाली चरित्रवान व्यक्तित्व ही होते हैं । हमें युग-निर्माण के लिए ऐसा ही आत्माएँ चाहिए । इनके अभाव में सब सुविधा-साधन होते हुए भी अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति में तनिक भी प्रगति न हो सकेगी । 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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