सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

चौबीस अक्षरों का शक्तिपुंज

गायत्री के नौ शब्द महाकाली की नौ प्रतिमाएँ हैं, जिन्हें आश्विन की नवदुर्गाओं में विभिन्न उपचारों के साथ पूजा जाता है । देवी भागवत में गायत्री को तीन शक्तियों-ब्राह्मणी, वैष्णवी, शांभवी के रूप में निरूपित किया गया है और नारी-वर्ग की महाशक्तियों को चौबीस की संख्या में निरूपित करते हुए उनमें से प्रत्येक के सुविस्तृत महात्म्यों का वर्णन किया है ।
 
गायत्री के चौबीस अक्षरों का अलंकारिक रूप से अन्य प्रसंगों में भी निरूपण किया गया है । भगवान् के दस ही नहीं, चौबीस अवतारों का भी पुराणों में वर्णन है । ऋषियों में सप्त ऋषियों की तरह उनमें से चौबीस को प्रमुख माना गया है-ये गायत्री के अक्षर ही हैं । देवताओं में से त्रिदेवों की ही प्रमुखता, है पर विस्तार में जाने पर पता चलता है कि वे इतने ही नहीं वरन् चौबीस की संख्या में भी मूर्द्घन्य प्रतिष्ठा प्राप्त करते रहे हैं । महर्षि दत्तात्रेय ने ब्रह्माजी के परामर्श से चौबीस गुरूओं से अपनी ज्ञान-पिसासा को पूर्ण किया था । ये चौबीस गुरू प्रकारांतर से गायत्री के चौबीस अक्षर ही हैं । 

सौरमंडल के नौ ग्रह हैं । सूक्ष्म-शरीर के छह चक्र और तीन ग्रंथि-समुच्चय विख्यात हैं, इस प्रकार उनकी संख्या नौ हो जाती है । इन सबकी अलग-अलग अभ्यर्थनाओं की रूपरेखा साधना-शास्त्रों में वर्णित हैं । गायत्री को नौ शब्दों की व्याख्या में निरूपित किया गया है, इनमें किस पक्ष की, किस प्रकार साधना की जाए तो उसके फलस्वरूप किस प्रकार उनमें सन्निहित दिव्यशक्तियों की उपलब्धि होती रहे । अष्टसिद्घियों और नौ निधियों को इसी परिकर के विभिन्न क्षेत्रों की प्रतिक्रिया समझा जा सकता है । 

अतींद्रिय क्षमताओं के रूप में परामनोविज्ञानी मानवीय सत्ता में सन्निहित जिन विभूतियों का वर्णन-निरूपण करते हैं, उन सबकी संगति गायत्री मंत्र के खंड-उपखंडों के साथ पूरी तरह बैठ जाती है । देवी भागवत सुविस्तृत उपपुराण है । उसमें महाशक्ति के अनेक रूपों की विवेचना तथा श्रंखला है । उसे गायत्री की रहस्यमय शक्तियों का उद्घाटन ही समझा जा सकता है । ऋषियुग के प्रायः सभी तपस्वी गायत्री का अवलंबन लेकर ही आगे बढ़े हैं । मध्यकाल में भी ऐसे सिद्घ-पुरूषों के अनेक कथानक मिलते हैं, जिनमें यह रहस्य सन्निहित है कि उनकी सिद्घियाँ-विभूतियाँ गायत्री पर ही अवलंबित हैं । 

यदि इन्हीं दिनों इस संदर्भ में अधिक जानना हो तो अखण्ड ज्योति संस्थान, मथूरा द्वारा प्रकाशित गायत्री महाविज्ञान के तीनों खण्डो का अवगाहन किया जा सकता हैं, साथ ही यह भी खोजा जा सकता है कि ग्रंथ के प्रणेता ने सामान्य व्यक्तित्व और स्वल्प साधन होते हुए भी कितने बड़े और कितने महत्वपूर्ण कार्य कितनी बड़ी संख्या में संपन्न किए हैं । उन्हें कोई समर्थ व्यक्ति, यों पाँच जन्मों में या पाँच शरीरों की सहायता से ही किसी प्रकार संपन्न कर सकता है । 

अन्यान्य धर्मों में अपने-अपने संप्रदाय से संबंधित एक-एक ही प्रमुख मंत्र है । भारतीय धर्म का भी एक ही उद्गम-स्त्रोत है-गायत्री । उसी के विस्तार के रूप में-पेड़ के तने, टहनी, फल-फूल आदि के रूप में-वेद, शास्त्र,पुराण, उपनिषद्, स्मृति, दर्शन, सूक्त आदि का विस्तार हुआ है । एक से अनेक और अनेक से एक होने की उक्ति गायत्री के ज्ञान और विज्ञान से संबंधित-अनेकानेक दिशाधाराओं से संबंधित-साधनाओं की विवेचना करके विभिन्न पक्षों को देखते हुए विस्तार के रहस्य को भली प्रकार समझा जा सकता है । 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

गायत्री का तत्त्वदर्शन और भौतिक उपलब्धियाँ

गायत्री-उपासना का सहज स्वरूप है-व्याहृतियों वाली त्रिपदा गायत्री का जप । 'ॐ र्भूभुवः स्वः' यह शीर्ष भाग है, जिसका तात्पर्य है कि आकाश, पाताल और धरातल के रूप में जाने जाने वाले तीनों लोकों में उस दिव्यसत्ता को समाविष्ट अनुभव करना । जिस प्रकार न्यायाधीश और पुलिस अधीक्षक की उपस्थिति में अपराध करने का कोई साहस नहीं करता, उसी प्रकार सर्वदा, सर्वव्यापी, न्यायकारी सत्ता की उपस्थिति अपनी सब ओर सदा-सर्वदा अनुभव करना और किसी भी स्तर की अनीति का आचरण न होने देना । 'ॐ' अर्थात् परमात्मा । उसे विराट् विश्व ब्रह्माण्ड के रूप में व्यापक भी समझा जा सकता है । यदि उसे आत्मासत्ता में समाविष्ट भर देखना हो तो स्थूल-शरीर, सूक्ष्म-शरीर और कारण-शरीर में परमात्म सत्ता की उपस्थिति अनुभव करनी पड़ती है और देखना पड़ता है कि इन तीनों ही क्षेत्रों में कहीं ऐसी मलीनता न जुटने पाए, जिसमें प्रवेश करते हुए परमात्म सत्ता को संकोच हो, साथ ही इन्हें इतना स्वस्थ, निर्मल एवं दिव्यताओं से सुसंपन्न रखा जाए कि जिस प्रकार खिले गुलाब पर भौरे अनायास ही आ जाते हैं, उसी प्रकार तीनों शरीरों में परमात्मा की उपस्थिति दीख पड़े और उनकी सहज सदाशयता की सुगंधि से समीपवर्ती समूचा वातावरण सुगंधित हो उठे । 

गायत्री मंत्र का अर्थ सहज सर्वविदित है- सवितुः-तेजस्वी । वरेण्यं-वरण करना, अपनाना । भर्गो-अनौचित्य को तेजस्विता के आधार पर दूर हटा फेंकना । देवस्य-देवत्व की पक्षधर विभूतियों को-धीमहि अर्थात् धारण करना । अंत में ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि इन विशेषताओं से संपन्न परमेश्वर हम सबकी बुद्घियों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें, सद्बुद्घि का अनुदान प्रदान करे । कहना न होगा कि ऐसी सद्बुद्घि प्राप्त व्यक्ति, जिसकी सद्भावना जीवंत हो, वह अपने दृष्टिकोण में स्वर्ग जैसी भरी-पूरी मनःस्थिति एवं भरी-पूरी परिस्थितियों का रसास्वादन करता है । वह जहाँ भी रहता है, वहाँ अपनी विशिष्टताओं के बलबूते स्वर्गीय वातावरण बना लेता है । 

स्वर्ग-प्राप्ति के अतिरिक्त दैवी अनुकंपा का दूसरा लाभ है-मोक्ष । मोक्ष अर्थात् मुक्ति-कषाय-कल्मषों से मुक्ति, दोष-र्दुगुणों से मुक्ति, भव-बंधनों से मुक्ति । यही भव-बंधन है, जो स्वतंत्र अस्तित्व लेकर जन्मे मनुष्यों को लिप्साओं और कुत्साओं के रूप में अपने बंधनों में बाँधता है । यदि आत्मशोधनपूर्वक इन्हें हटाया जा सके तो समझना चाहिए कि जीवित रहते हुए भी मोक्ष की प्राप्ति हो गई । इसके लिए मरणकाल आने की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती । गायत्री की पूजा-उपासना और जीवन-साधना यदि सच्चे अर्थो में की गई हो तो उसकी दोनों आत्कि ऋद्घि- सिद्घियाँ स्वर्ग और मुक्ति के रूप में निरंतर अनुभव में उभरती रहती हैं और उनके रसास्वादन से हर घड़ी-कृत हो चलने का अनुभव होता है । 
गायत्री-उपासना द्वारा अनेक भौतिक सिद्घियों व उपलब्धियों के मिलने का इतिहास पुराणों में वर्णित है । वशिष्ट के आश्रम में विद्यमान नंदिनी रूपी गायत्री ने राजा विश्वामित्र की सहस्त्रों सैनिकों वाली सेना की कुछ ही पलों में भोजन-व्यवस्था बनाकर उन सबको चकित कर दिया था । गौतम मुनि को माता गायत्री ने अक्षय पात्र प्रदान किया था, जिसके माध्यम से उन दिनों की दुर्भिक्ष-पीड़ित जनता को आहार प्राप्त हुआ था । दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ संपन्न कराने वाले श्रंगी ऋषि को गायत्री का अनुग्रह ही प्राप्त था, जिसके सहारे चार देवपुत्र उन्हें प्राप्त हुए । ऐसी ही अनेक कथा-गाथाओं से पौराणिक साहित्य भरा पड़ा है, जिसमें गायत्री-साधना के प्रतिफलों की चमत्कार भरी झलक मिलती है ।
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

नौ सद्गुणों की अभिवृद्घि ही गायत्री-सिद्घि

पाँच क्रियापरक और चार भावनापरक, (1-श्रमशीलता 2- शिष्टता 3- मितव्ययिता 4- सुव्यस्था 5- उदार सहकारिता 6- समझदारी 7- ईमानदारी 8- जिम्मेदारी 9- बहादुरी) इन नौ गुणों के समुच्चय को ही धर्म-धारणा कहते हैं । गायत्री-मंत्र के नौ शब्द इन्हीं नौ दिव्य-संपदाओं को धारण किए रहने की प्रेरणा देते हैं । यज्ञोपवीत के नौ धागे भी यही हैं । उन्हें गायत्री की प्रतीक प्रतिमा माना गया है और इनके निर्वाह के लिए सदैव तत्परता बरतने के लिए, उसे कंधे पर धारण कराया जाता है, अर्थात् मानवीय गरिमा के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए नौ अनुशासन भरे उत्तरदायित्व कंधे पर धारण करना ही वस्तुतः यज्ञोपवीत धारण का मर्म है । इन्हीं का सच्चे अर्थों में गायत्री मंत्र की जीवनचर्या में हृदयंगम कराया जाता है । 
गायत्री मंत्र की साधना से व्यक्ति में ये नौ सद्गुण उभरते हैं । इसी बात को इन शब्दों में भी कहा जा सकता है कि जो इन नौ गुणों का अवधारण करता है, उसी के लिए यह संभव है कि गायत्री मंत्र में सन्निहित ऋद्घि-सिद्घियों को अपने में उभरता देखे । गंदगी वाले स्थान पर बैठने के लिए कोई सुरूचि संपन्न भला आदमी तैयार नहीं होता, फिर यह आशा कैसे की जाए कि निकृष्ट स्तर का चिंतन, चरित्र और व्यवहार अपनाए रहने वालों पर किसी प्रकार का दैवी अनुग्रह बरसेगा और उन्हें यह गौरव मिलेगा, जो देवत्व के साथ जुड़ने वालों को मिला करता है । 

ज्ञान और कर्म का युग्म है । दोनों की सार्थकता इसी में है कि वे दोनों साथ-साथ रहें, एक-दूसरे को प्रभावित करें और देखने वालों को पता चले कि जो सीखा, समझा, जाना और माना गया है, वह मात्र काल्पनिक न होकर इतना सशक्त भी है कि क्रिया को, विधि-व्यवस्था को अपने स्तर के अनुरूप बना सके । 

जीवन-साधना से जुड़ने वाले गायत्री महामंत्र के नौ अनुशासनों का ऊपर उल्लेख हो चुका है । इन्हें अपने जीवनक्रम के हर पक्ष में समन्वित किया जाना चाहिए अथवा यह आशा रखें कि यदि श्रद्घा-विश्वासपूर्वक सच्चे मन से उपासना की गई हो तो उसका सर्वप्रथम परिचय इन सद्गुणों की अभिवृद्घि के रूप में परिलक्षित होगा । इसके बाद वह पक्ष आरंभ होगा, जिससे अलौकिक, आध्यात्मिक, अतींद्रिय अथवा समृद्घियों, विभूतियों के रूप में प्रमाण-परिचय देने की आशा रखी जाती है । 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

यज्ञोपवीत के रूप में गायत्री की अवधारणा

मंत्रदीक्षा के रूप में गायत्री की अवधारणा करते समय उपनयन-संस्कार कराने की भी आवश्यकता पड़ती है । इसी प्रक्रिया को द्विजत्व की मानवीय गरिमा के अनुरूप जीवन को परिष्कृत करने की अवधारणा भी कहते हैं । जनेऊ पहनना, उसे कंधे पर धारण करने का तात्पर्य जीवनचर्या को-कायकलेवर को देव मंदिर-गायत्री देवालय बना लेना माना जाता है । यज्ञोपवीत में नौ धागे होते हैं । इन्हें नौ मानवीय विशिष्टता को उभारने वाले सद्गुण भी कहा जा सकता है । एक गुण को स्मरण रखे रहने के लिए एक धागे का प्रावधान इसीलिए है कि इस अवधारणा के साथ-साथ उन नौ सद्गुणों को समुन्नत बनाने के लिए आद्यशक्ति गायत्री की समर्थ साधना में निरन्तर प्रयत्नशील रहा जाए, जो अनेक विभूतियों और विशेषताओं से मनुष्य को सुसंपन्न बनाती हैं । 

सौरमंडल में नौ सदस्य ग्रह हैं । रत्नों की संख्या भी नौ मानी जाती है । अंकों की श्रंखला भी नौ पर समाप्त हो जाती है । शरीर में नौ द्वार हैं । इसी प्रकार अनेकानेक सद्गुणों की, धर्म-लक्षणों की गणना में नौ को प्रमुखता दी गई है । वे पास में हों तो समझना चाहिए कि पुरातनकाल में नौ लखा हार की जो प्रतिष्ठा थी, वह अपने को भी करतलगत हो गई । ये नौ गुण इस प्रकार है - 
(१) श्रमशीलता- समय, श्रम और मनोयोग को किसी उपयुक्त प्रयोजन में निरंतर लगाए रहना । आलस्य-प्रमाद को पास न फटकने देना । समय का एक क्षण भी बरबाद न होने देना । निरंतर कार्य में संलग्न रहना । 

(२) शिष्टता- शालीनता, सज्ज्नता, भलमनसाहत का हर समय परिचय देना । अपनी नम्रता और दूसरों की प्रतिष्ठा का परिचय देना । दूसरों के साथ वही व्यवहार करना, जो औरों से अपने लिए चाहा जाता है । सभ्यता, सुसंस्कारिता और अनुशासन का निरंतर ध्यान रखना । मर्यादाओं का पालन और वर्जनाओं से बचाव का सतर्कतापूर्वक ध्यान रखना । 

(३) मितव्ययिता- 'सादा जीवन उच्च विचार' की अवधारणा। उद्घत-श्रंगारिक शेखीखोरी, अमीरी का अहंकारी प्रदर्शन तथा अन्य रूढ़ियों-कुरीतियों से जुड़े हुए अपव्यय से बचना सादगी है, जिसमें चित्र-विचित्र फैशन बनाने और कीमती जेवर धारण करने की कोई गुन्जाइश नहीं है । अधिक खरचीले व्यक्ति प्रायः बेईमानी पर उतारू तथा ऋणी देखे जाते हैं । उनमें ओछापन, बचकानापन और अप्रामाणिकता-अदूरदर्शिता का भी आभास मिलता है । 

(४) सुव्यस्था- हर वस्तु को सुव्यवस्थित, सुसज्जित स्थिति में रखना । फुहड़पन और अस्त-व्यस्तता, अव्यवस्था का दुर्गुण किसी भी प्रयोजन मे झलकने न देना । समय का निर्धारण करते हुए कसी हुई दिनचर्या बनाना और उसका अनुशासनपूर्वक परिपालन करना । चुस्त- दुरूस्त रहने के ये कुछ आवश्यक उपक्रम हैं । वस्तुएँ यथास्थान न रखने पर वे कूड़ा-कचरा हो जाती हैं । इसी प्रकार अव्यवस्थित व्यक्ति भी असभ्य और असंस्कृत माने जाते हैं । 

(५) उदार सहकारिता- मिल-जुलकर काम में रस लेना। पारस्परिक आदान-प्रदान का स्वभाव बनाना । मिल-बाँटकर खाने और हँसते-हँसाते समय गुजारने की आदत डालना । इसे सामाजिकता एवं सहकारिता भी कहा जाता है । अब तक की प्रगति का यही प्रमुख आधार रहा है और भविष्य भी इसी रीति-नीति को अपनाने पर समुन्नत हो सकेगा। अकेलेपन की प्रवृत्ति तो मनुष्य को कुत्सित और कुंठाग्रस्त ही रखती है । 

उर्पयुक्त पाँच गुण पंचशील कहलाते हैं, व्यवहार में लाए जाते हैं तब स्पष्ट दीख पड़ते हैं, इसलिए इन्हें अनुशासन-वर्ग में गिना जाता है । धर्म-धारण भी इन्हीं को कहते हैं । इनके अतिरिक्त भाव-श्रद्घा से संबंधित उत्कृष्टता के पक्षधर स्वभाव भी हैं, जिन्हें श्रद्घा-विश्वास स्तर पर अंतःकरण की गहराई में सुस्थिर रखा जाता है । इन्हें आध्यात्मिक देव-संपदा भी कह सकते हैं । आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता का विविध परिचय इन्हीं चार मान्यताओं के आधार पर मिलता है । चार वेदों का सार-निष्कर्ष यही है । चार दिशा-धाराएँ तथा वर्णाश्रम धर्म के पीछे काम करने वाली मूल मान्यताएँ भी यही हैं । 

(६) समझदारी- दूरदर्शी विवेकशीलता । नीर-क्षीर विवेक और औचित्य का ही चयन । परिणामों पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हुए कुछ करने का प्रयास । जीवन की बहुमूल्य संपदा के एक-एक क्षण का श्रेष्ठतम उपयोग । दुष्प्रवृत्तियों के साथ जुड़ी हुई दुर्घटनाओं के संबंध में समुचित सतर्कता का अवगाहन । 

(७) ईमानदारी- आर्थिक और व्यावहारिक क्षेत्र में इस प्रकार का बरताव जिसे देखने वाला सहज सज्जनता का अनुमान लगा सके, विश्वस्त समझ सके और व्यवहार करने में किसी आशंका की गुन्जाइश न रहे । भीतर और बाहर को एक समझे । छल, प्रवंचना, अनैतिक आचरण से दृढ़तापूर्वक बचना । 

(८) जिम्मेदारी- मनुष्य यों तो स्वतंत्र समझा जाता है, पर वह जिम्मेदारियों के इतने बंधनों से बँधा हुआ है कि अपने-परायों में से किसी के भी साथ अनाचरण की गुंजाइश नहीं रह जाती । ईश्वर प्रदत्त शरीर, मानस एवं विशेषताओं में से किसी का भी दुरूपयोग न होने पाए । परिवार के सदस्यों से लेकर देश, धर्म, समाज व संस्कृति के प्रति उत्तरदायित्वों का तत्परतापूर्वक निर्वाह । इसमें से किसी में भी अनाचार का प्रवेश न होने देना । 

(९) बहादुरी- साहसिकता, शौर्य और पराक्रम की अवधारणा । अनीति के सामने सिर न झुकाना । अनाचार के साथ कोई समझौता न करना । संकट देखकर घबराहट उत्पन्न न होने देना । अपने गुण-कर्म-स्वभाव में प्रवेश करती जाने वाली अवांछनीयता से निरंतर जूझना और उसे निरस्त करना । लोभ, मोह, अहंकार, कुसंग, दुर्व्यसन आदि सभी अनौचित्यों को निरस्त कर सकने योग्य संघर्षशीलता के लिए कटिबद्घ रहना । 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

शरीर की विभिन्न देव-शक्तियों का जागरण

विराट ब्रह्म की कल्पना में-विश्वपुरुष के शरीर में जहाँ-तहाँ विभिन्न देवताओं की उपस्थिति बताई गई है । गौ माता के शरीर में विभिन्न देवताओं के निवास का चित्र देखने को मिलता है । मनुष्य-शरीर भी एक ऐसा आत्मसत्ता का दिव्य मंदिर है, जिसमें विभिन्न स्थानों पर विभिन्न देवताओं की स्थिति मानी गई है । धार्मिक कर्मकाण्डों में स्थापना भाव भक्ति के आधार पर की जाती है । न्यासविधान इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए है । सामान्यतः ये सभी देवता प्रसुप्त स्थिति में रहते हैं, अनायास ही नहीं जाग पड़ते । अनेक साधनाएँ, तपश्चर्याएं इसी जागरण के हेतू हैं, सोता सिंह या सोता सर्प निर्जीव की तरह पड़े रहते हैं, पर जब वे जाग्रत होते हैं, तो अपना पूरा पराक्रम दिखाने लगते हैं । यही प्रक्रिया मंत्र-साधना द्वारा भी पूरी की जाती है । इस तथ्य को इस रूप में समझा जा सकता है कि मंत्र-साधना, विशेषतः गायत्री-उपासना से एक प्रकार का लुज-पुंज व्यक्ति जाग्रत, सजीव एवं सशक्त हो उठता है । उसी उभरी विशेषता को मंत्र की प्रतिक्रिया या फलित हुई सिद्धि कह सकते हैं । 
गायत्री मंत्र के चौबीस अक्षरों में सभी विभूतियों के जागरण की क्षमता है, साथ ही हर अक्षर एक ऐसे सद्गुण की ओर इंगित करता है, जो अपने आप में इतना सशक्त है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का हर पक्ष ऊँचाई की ओर उभारता है और उसकी सत्ता अपने आप ही अपना काम करने लगती है । फिर उन सफलताओं का उपलब्ध कर सकना सम्भव हो जाता है, जिनकी कि किसी देवी-देवता अथवा मंत्राराधन से आशा की जाती है । ओजस्, तेजस्, वर्चस् इन्हीं हो कहते हैं । प्रथम चरण में सूर्य जैसी तेजस्विता, ऊर्जा और गतिशीलता मनुष्य में उभरे तो समझना चाहिए कि उसने वह बलिष्ठता प्राप्त कर ली, जिसकी सहायता से ऊँची छलांग लगाना और कठिनाइयों से लड़ना सम्भव होता है । इसी प्रकार दूसरे चरण में देवत्व के वरण की बात है । मनुष्यों में ही पशु, पिशाच और देवता होते हैं। उसमें शालीनता, सज्जनता, विशिष्टता व भलमनसाहत देवत्व की विशेषताओं का ही प्रतिनिधित्व करती है । तीसरे चरण में सामुदायिक सद्बुद्घि के अभिवर्द्घन का निर्देशन है। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता, इसलिए कहा जाता है कि एकाकी स्तर के चिंतन तक सीमित न रहा जाए, सामूहिकता, सामाजिकता को भी उतना ही महत्त्व दिया जाए-सद्बुद्घि से अपने समेत सबको सुसज्जित किया जाए। यह भूल न जाया जाए कि र्दुबुद्घि ही दुष्टता और भ्रष्टता की दिशा उत्तेजना देती है और यही दुर्गति का निमित्त कारण बनती है । 
दर्शन और प्रक्रिया मिलकर ही अधूरापन दूर करते हैं । गायत्री मंत्र का उपासनात्मक कर्मकांड भी फलप्रद हैं, क्योंकि शब्द-गुम्फन अंतः की सभी रहस्यमयी शक्तियों को उत्तेजित करता है, पर यह भी भूला न जाए कि स्वच्छ, शुद्घ, परिष्कृत व्यक्तित्व जब गुण-कर्म स्वभाव की उत्कृष्टता से परिष्कृत-अनुप्राणित होता है, तभी वह समग्र परिस्थिति बनती है, जिसमें साधना से सिद्घि की आशा की जा सकती है । घिनौने, पिछड़े, अनगढ़ और कुकर्मी व्यक्ति यदि पूजा-पाठ करते भी रहें तो उसका कोई उपयुक्त प्रतिफल नहीं देखा जाता । ऐसे ही एकांगी प्रयोग जब निष्फल रहते हैं तो लोग समूची उपासना तथा आध्यात्मिकता को व्यर्थ बताते हुए देखे जाते हैं । बिजली के दोनों तार मिलने पर ही करेंट चालू होता है अन्यथा वे सभी उपकरण बेकार हो जाते हैं, जो विभिन्न प्रयोजनों से लाभान्वित करने के लिए बनाए गए हैं । 

इसीलिए उपासना के साथ जीवनसाधना और लोकमंगल की आराधना को भी संयुक्त रखने का र्निदेश है । पूजा उन्हीं की सफल होती है, जो व्यक्तित्व और प्रतिभा को परिष्कृत करने में तत्पर रहते हैं, साथ ही सेवा-साधना एवं पुण्य परमार्थ को सींचने, खाद लगाने में भी उपेक्षा नहीं बरतते । त्रिपदा गायत्री में जहाँ शब्द-गठन की दृष्टि से तीन चरण हैं, वहीं साथ में यह भी अनुशासन है कि धर्म-धारणा और सेवा-साधना का खाद-पानी भी उस वट-वृक्ष को फलित होने की स्थिति तक पहुँचाने के लिए ठीक तरह सँजोया जाता रहे । 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

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