बुधवार, 27 जुलाई 2011

रामायण जीना सिखाती हैं, महाभारत मरना सिखाती है।

1) प्रेम तन्दरुस्त इन्सान का स्वभाव हैं और काम और मोह बीमार व्यक्ति का स्वभाव है।
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2) प्रेम आध्यात्मिक प्रगति का प्रधान अवलम्बन है।
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3) प्रेम आदान नहीं प्रदान चाहता है।
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4) प्रेम-तत्त्व अन्तःकरण में जितना होगा, उसी अनुपात में सद्गुणों का विकास होगा और इसी विकास से आत्मबल की मात्रा नापी जा सकती है। कहना न होगा कि आत्म-बल ही मनुष्य की गरिमा का सार हैं और उसी के बल पर बाह्म और आन्तरिक ऋद्धि-सिद्धिया उपलब्ध की जाती है।
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5) प्रेमी को प्रभु त्याग नहीं सकते।
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6) प्रेरणा जहा खतम होती हैं, नियति का आरम्भ वहीं से होता है।
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7) प्रजापति ने देव, दानव और मानवों का मार्गदर्शन करते हुए उन्हे एक शब्द का उपदेश किया था ‘ द ’। तीनो चतुर थे, उन्होने संकेत का सही अर्थ अपनी स्थिति और आवश्यकता के अनुरुप निकाल लिया। कहा गया था ‘ द ’। देवताओं ने दमन (संयम), दैत्यों ने ‘दया’, मानवों ने ‘ दान ’ के रुप में उस संकेत का भाष्य किया, जो सर्वथा उचित था।
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8) श्रद्धा का परिचय प्रत्यक्ष करुणा के रुप में मिलता है।
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9) श्रद्धा का अर्थ हैं परिपूर्ण विश्वास। ऐसा विश्वास जिसमें शंका-कुशंका का, तर्क-विर्तक आदि की कोई गुजाईश न हो।
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10) श्रद्धा का अर्थ हैं-श्रेष्ठता के प्रति अटूट आस्था।
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11) श्रद्धा के अभिसिंचन से पत्थर में देवता का उदय किया जा सकता है।
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12) श्रद्धा ही जननी है।
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13) श्रद्धा स्वयं में एक सशक्त मान्यता प्राप्त विज्ञान है।
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14) श्रद्धा वह अलौकिक तत्व हैं, जिससे पल-पल चमत्कार घटित होते है।
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15) श्रद्धा तत्परता की जननी हैं।
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16) श्रद्धा आविर्भाव सरलता और पवित्रता के संयोग से होता है।
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17) श्रद्धा और भक्ति के शिकंजे में परमात्मा को जकडा जा सकता है।
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18) श्रद्धा, विश्वास, साहस, धैर्य, एकाग्रता, स्थिरता, दृढता और संकल्प ही वे तत्व हैं, जिनके आधार पर साधनाए सफल होती है।
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19) श्रम ईश्वर की सबसे बडी उपासना है।
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20) श्रम करने में ही मानव की मानवता है।
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21) श्रम का अर्थ हैं-आनन्द और अर्कमण्यता का अर्थ हैं-दुःख।
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22) श्रम स्वर्ण का एक ढेला हैं, उसे जिस साचे में ढाल दीजिए, वैसा ही आभूषण बन जाएगा।
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23) श्री कृष्ण को प्रणाम करके यदि यात्रा प्रारम्भ की जाये तो विजय प्राप्त होती है।
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24) रामायण जीना सिखाती हैं, महाभारत मरना सिखाती है।

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