शनिवार, 5 मार्च 2011

युग परिवर्तन की संभावनाएँ साकार होकर रहेंगी

अपनी इन्हीं मान्यताओं और क्रिया पद्धतियों को लेकर युग-निर्माण योजना एक सुनियोजित और सुव्यवस्थित गति से आगे बढ़ती चली जा रही है । दूसरे संगठन या आंदोलन दो आधार लेकर चलते हैं- (१) आर्थिक साधन, (२) तथाकथित बड़े और प्रभावशाली व्यक्तियों का सम्बंध । बड़े कहलाने वाले सगठनों की चमक-दमक हलचल दिख पड़ती हैं, उनमें बड़े आदमियों का बुद्घि-कौशल व्यक्तित्व और धन छाया रहता हैं । और उसी आधार पर वह आवरण खड़ा रहता हैं । जड़ बिल्कुल खोखली होती हैं । नीचे से ईंट निकली की सारा ढाँचा लड़खड़ाकर गिर पड़ता हैं । कल के बड़े आंदोलन और बड़े संगठन आज विस्मृति के गर्त में गिरते दिखाई पड़ते हैं । युग निर्माण योजना का मूल आधार जीवित भावना सम्पन्न और सुसंस्कारी व्यक्तियों का संग्रह हैं । इसे एक अद्भुत उपलब्धि ही कहना चाहिए कि एक-एक करके ढूँढ़ते हुए व्यक्तिगत ढूँढ़-खोज परख करते हुए व्यक्तिगत संपर्क के आधार पर ऐसे भावनाशील और आदर्शवादी व्यक्तित्व ढूँढ़ निकाले गये । उन्हें एक मात्र सूत्र मे माला की तरह गुँथा गया और एक ऐसी बहुमुखी कार्य पद्घति दी गई जिसके आधार पर वह संघठन प्रचारात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक विविध प्रवृत्तियों के अपने क्षेत्र में, अपने ढंग से, अपनी योग्यतानुसार चलता रह सके । कार्य करने से ही अभ्यास बढ़ता हैं, अनुभव होता हैं और उत्साह उमड़ता हैं और साहस चलता हैं । शतसूत्री योजनाओं मे संलग्न युग निर्माण परिवार अब ऐसी स्थिति में विकसित हो गया हैं कि जिन आदर्शों को लेकर यह अभियान आरंभ हुआ था, उसकी संभावना को सफलता के रूप में देखा जा सके । 

कार्य भले ही कम हुआ हो, पर कार्यकर्त्ताओं ने अपने क्षेत्र में असाधारण श्रद्घा अर्जित की हैं, जन-शक्ति को साथ लेकर चलने में आश्चार्यजनक सफलता पाई है । पिछले दिनों की उपलब्धियों पर दृष्टिपात करने से दो तथ्य ऐसे हैं जिन्हें देखते हुए यह विश्वास किया जा सकता है । कि कुछ दिन पहले जिस आन्दोलन को बहस, सनक, कल्पना की उड़ान, छोटे मुँह की बात, असंभव आदि कहकर उपहास उड़ाया जाता था । वह अगले दिनों तक यथार्थता बनने जा रहा है । इसके दो कारण हैं-१. परिवार का आदर्शवादी आस्थाओं के आधार पर गठन । २. जनता की आकांक्षाओं के, युग की माँग के अनुरूप कार्य पद्धति का अपनाया जाना । गाँधी जी का आन्दोलन इन दो कारणों से ही सफल हुआ था । एक तो उन दिनों एक से एक बढ़कर भावनाशील और निर्मल चरित्र व्यक्ति इसमें सम्मिलित हुए थे, दूसरे देश की जनता का बच्चा-बच्चा जिस स्वतंत्रता की आवश्यकता अनुभव करता था । उसी की पूर्ति को लक्ष्य बनाकर काँग्रेस चल रही थी । ठीक यही इतिहास ज्यों का त्यों युग निर्माण योजना दुहरा रही है और ठीक उसी आधार पर उसे जन सहयोग मिल रहा है तथा असंभव समझा जाने वाला लक्ष्य नितांत संभव होता दीख रहा है । 
-वाङ्मय ६६-३-२० 

जनता की जो आकांक्षायें आज हैं, उसी के अनुरूप युग निर्माण योजना मार्गदर्शन दे रही है, भावनाओं का परिवर्तन, सृजनात्मक कार्यों में पारस्परिक सहयोग का उत्साहपूर्वक नियोजन, अवांछनीयता से हर क्षेत्र में लड़ पड़ने का शौर्य-साहस यह तीनों ही प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं जो एक बार उभरी सो उभरी । असुरता में ही पनपने की शक्ति हो सो बात नहीं है, देवत्व में भी आत्मविस्तार की क्षमता है । उसे यदि अवसर मिल सके तो उसका अभिवर्द्धन और भी अधिक द्रुतगति से होता है । एक व्यक्ति दूसरों को बनाए-यही है सच्चा और ठोस आधार । 

पोला आधार वह है जिसमें लाउडस्पीकर चिल्लाते और अखबार लंबे-लंबे समाचार छापते हैं । मंच-पंडाल बनते, धुँआधार भाषण होते और पर्चे-पोस्टरों के गुब्बारे उड़ते हैं । किराए पर जुलूस की भीड़ जमा करने का भी अब एक व्यवस्थित धंधा चल पड़ा है । यह फुलझड़ियाँ बिल्कुल बचकानी हैं और आंदोलनों के नाम पर यही तमाशे हर ओर खड़े दिखाई पड़ते हैं । इस विडम्बना के युग में युग-निर्माण योजना अपना अलग आधार लेकर चल रही है । व्यक्ति द्वारा व्यक्ति को बनाया जाना, दीपक द्वारा दीपक को जलाया जाना, यही है अपना सिद्धांत । चंदा माँगते फिरने से काम शुरु करना नहीं वरन् घर से खैरात शुरु करना, स्वयं समय और पैसा खर्च करके अपनी निष्ठा का परिचय देना और उसी से दूसरों में अनुकरण की आकांक्षा उत्पन्न करना यही है अपना वह क्रिया-कलाप जिसने लक्ष्य की ओर द्रुतगति से चलने में कीर्तिमान स्थापित किया है । 
-वाङ्मय ६६-३-२१ 

युग निर्माण योजना की सबसे बड़ी संपत्ति उस परिवार के परिजनों की निष्ठा है, जिसे कूटनीति एवं व्यक्तिगत महत्वाकाक्षाओं के आधार पर नहीं, धर्म और अध्यात्म की निष्ठा के आधार पर बोया, उगाया और बढ़ाया गया है । किसी को पदाधिकारी बनने की इच्छा नहीं, फोटो छपाने के लिए भी तैयार नहीं, नेता बनने के लिए कोई उत्सुक नहीं, कुछ कमाने के लिए नहीं, कुछ गँवाने के लिए जो आए हों उनके बीच इस प्रकार कल छल छद्म लेकर कोई घुसने का भी प्रयत्न करे तो उस मोर का पर लगाने वाले कौवे को सहज ही पहचान लिया जाता है और चलता कर दिया जाता है । यही कारण है कि इस विकासोन्मुख हलचल में सम्मिलित होने के लिए कई व्यक्तिगत महत्वाकांक्षी आए पर वे अपनी दाल गलती न देखकर वापस लौट गए । यहाँ निस्पृह और भावनाशील, परमार्थ-परायण, निष्ठा के धनी को ही सिर माथे पर रखा जाता है । धूर्तता को सिर पर पाँव रखकर उल्टे लौटना पड़ता है । यह विशेषता इस संगठन में न होती तो महत्वाकांक्षाओं ने अब तक इस अभियान को भी कब का निगलकर हजम कर लिया होता । 

अखबारों में अपने लिए कोई स्थान नहीं, उन बेचारों को राजनीतिक हथकंडे और सिनेमा के करतब छापने से ही फुरसत नहीं, धनियों को अपनी यश-लोलुपता तथा धंधे-पानी का कुछ जुगाड़ बनता नहीं दीखता, इस दृष्टि से मिशन को साधनहीन कहा जा सकता है पर निष्ठा से भरे-पूरे और विश्व मानव की सेवा के लिए कुछ बढ़-चढ़कर अनुदान प्रस्तुत करने के लिए व्याकुल अंतःकरण ही अपनी वह शक्ति है जिसके आधार पर देश के नहीं विश्व के कोने-कोने में, घर-घर और जन-जन के मन में इस प्रकाश की किरणें पहुँचने की आशा की जा रही है । एक से दस-एक से दस -एक से दस की रट लगाए हुए हम आज के थोड़े से व्यक्ति कल जनमानस पर छा जायँगे । इसे किसी को आश्चर्य नहीं मानना चाहिए । लगन संसार की सबसे बड़ी शक्ति है । आदर्शों को कार्यान्वित करने के लिए आतुर व्यक्ति भी यदि युग परिवर्तन के स्वप्न साकार नहीं कर सकते तो फिर और कौन उस भार को वहन करेगा? 

इन आरंभिक दिनों में कुछ साधन मिल जाते तो कितना अच्छा होता । समाचार पत्रों ने अभियान का महत्व समझा होता और इन उदीयमान प्रवृत्तियों के प्रचार कार्य को अपनी कुछ पंक्तियों में स्थान दिया होता तो और भी अधिक सुविधा होती । कुछ साधन सम्पन्न ऐसे भी होते जो यश का बदला पाने की इच्छा के बिना पैसे से सहायता कर सके होते, कुछ कलाकार, साहित्यकार, गायक ऐसे मिले होते जो धन बटोरने की मृगतृष्णा में अपनी विभूतियाँ भी खो बैठने की अपेक्षा उन्हें नव निर्माण के लिए समर्पित कर सके होते, कुछ प्रतिभाशाली लोग राजनीति की कुचालों में उलझे बार-बार लातें बटोरते फिरने की ललक छोड़कर अपने व्यक्तित्व को लोक-मंगल की इस युग पुकार को सुन सकने में लगा सके होते तो कितना अच्छा होता । 

पर अभी उनका समय कहाँ आया है? फूल खिलने में देर है । अभी तो यहाँ बोने के दिन चल रहे हैं । भौंरे, मधुमक्खियों, तितलियाँ आयेंगी तो बहुत, कलाप्रेमी और सौन्दर्यपारखी भी चक्कर काटेंगे, पर इन बुआई के दिनों में एक घड़ा पानी और एक थैला खाद लेकर कौन आ सकता है? इस दुनिया में सफलता मिलने पर जयमाला पहनाई जाती है । इसके लिए प्रयास कर रहे साधनहीन को तो व्यंग्य-उपहास और तिरस्कार का ही पात्र बनाया जाता है । यह आशा हमें भी करनी चाहिए । 

साधन संपन्न का यह स्वभाव होता है कि वह हर विशेषता को, हर प्रतिभा को अपने इशारे पर चलाना चाहता है पर विश्व को नई दिशा देने वाले उनके पीछे चलने के लिए नहीं, उन्हीं की विकृति दिशा को सुधारने के लिए सन्नद्ध हैं । ऐसी स्थिति में उनमें खीज, असहयोग उपहास तथा विरोध के भाव उठें, तो कोई आश्चर्य नहीं । 

निराशा की कोई बात नहीं । अपना उपास्य जनदेवता है । उसकी शक्ति सबसे बड़ी है । जनमानस का उभार शक्ति का स्रोत है । वह जिधर निकलता है उधर ही रास्ता बनता चला जाता है । नव-निर्माण की गंगा का अवतरण अपना रास्ता भी बना ही लेगा । मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का प्रयास आज अपने शैशव में भी आशा और विश्वास की हरियाली लहलहा रही है । कल उस पर फूल और फल भी लदे हुए देखे जा सकेंगे । एक से दस बनने की जो शपथ इस मिशन के परिजनों ने ली है वह अपना रंग दिखाएगी । असंभव दीखने वाला कार्य संभव हो सकेगा । 
-वाङ्मय ६६-३-२१,२२ 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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