शनिवार, 5 मार्च 2011

प्रगतिशील समाज का आधार और स्वरूप

व्यक्ति-निर्माण के लिए हमें गुण, कर्म, स्वभाव में घुसी हुई अवांछनीय दुष्प्रवृत्तियों को हटाना होगा । जीवन और उसके उद्देश्य को समझना होगा तथा किस आधार पर किसलिए, किस-प्रकार जिया जाय इस दर्शन-दृष्टि को परिष्कृत करना होगा । आज पशु और पिशाचों जैसी जीवन-दृष्टि बनती चली जा रही है, चिन्तन की प्रणाली ऐसी विकृत बन चली है कि अशुद्ध और अवांछनीय तत्व ही ग्राह्य दीखते हैं । महानता का अमृत पीने की रुचि नही रही, निकृष्टता का विष उल्लासपूर्वक पिया जा रहा है । घिनौने जीवनक्रम में सरसता लगती है ।
 
आदर्शवादिता के आधार पर अनुकरणीय जीवन जीने के लिए किसी में उमंग नहीं दीखती । सोचने और प्रेरणा देने वाला अन्तःकरण मानो माया-मूर्छा में ग्रस्त होकर एक प्रकार से दिग्भ्रान्त ही बन गया हो, ऐसी है आज के व्यक्ति की स्थिति । इसे बदले बिना कोई रास्ता नहीं । घटिया व्यक्ति घटिया परिस्थितियाँ पैदा करेंगे और उसके परिणाम दुःखदायी ही उत्पन्न होंगे । विश्व के सामने प्रस्तुत अगणित समस्याएँ वस्तुतः एक ही विष बीज से उत्पन्न वल्लरियाँ हैं । मानवीय आदर्शो की मात्रा चिन्तन और कर्तृत्व में से जितनी घटती चली जायगी, वातावरण उतना ही विषाक्त होता जायगा और विपत्तियों का अन्धकार उतना ही सघन होता जायगा । आज यही हो रहा है सो परिणाम भी सामने है ।
 
संसार को सुखी बनाने के लिए उपार्जन, चिकित्सा, शिक्षा, वाहन, शिल्प, कला, विज्ञान, विनोद आदि के साधनों को बढ़ाया जाना चाहिए । पर यह भूलना नहीं चाहिए कि कुबेर जैसी सम्पदा और इन्द्र जैसी सुविधा भी यदि हर व्यक्ति के पीछे जुटा दी जाय तो भी भावनात्मक स्तर ऊँचा उठे बिना चैन से रहना और शान्ति से रहने देना संभव न हो सकेगा । चिन्तन में असुरता कर्तृत्व में दुष्टता के अंश यदि बने ही रहे तो हर व्यक्ति अपने और दूसरों के लिए केवल संकट ही उत्पन्न करता रहेगा । इसलिए हमें मूल बात पर ध्यान देना चाहिए । जन-मानस के भावनात्मक परिष्कार को प्राथमिकता देनी चाहिए । यह एक ही उपाय है जिसके आधार पर विश्व शान्ति की आवश्यकता पूरा कर सकना वस्तुतः सम्भव एवं सुलभ हो सकता है । युग-निर्माण योजना ने सर्व-साधारण का ध्यान इसी ओर खींचा है और ऐसे प्रयोगात्मक प्रयत्न शुरू किये हैं जिन्हें बड़े साधनों से बड़े परिणाम में आरम्भ किया जा सके तो निर्माण की सही दिशा मिल सकती है और आज की नारकीय परिस्थितियों को कल सुख-शान्ति भरे वातावरण में परिवर्तित किया जा सकता है । 

व्यक्ति का चिन्तन और कर्तृत्व किस आधार पर बदला जाय इसकी संक्षिप्त चर्चा भी की जा चुकी है, दशा यही है । जब विस्तार में जाना होगा और काम को हाथ में लेना होगा तब इसमें हेर-फेर भी किया जा सकता है आज तो हमें इतना भर जानना है कि मनुष्यता के साथ घुल गये- पशुओं को और असुरता के अंशों को बहिष्कृत करना और मानवीय चेतना में देवत्व का अधिकाधिक समावेश करना विश्व निर्माण का प्रथम चरण होगा । आज या आज से हजार वर्ष बाद जब भी हमें सही दिशा मिलेगी श्रीगणेश यहीं से करना पड़ेगा । चिन्तन को प्रभावित करने वाले समस्त स्रोतों को हमें अपने अधिकार में करना चाहिए अथवा अलग से उन आधारों को उच्च स्तरीय प्रेरणा देने की सार्मथ्य बनाकर खड़ा करना होगा ताकि उनकी तुलना में इन दिनों लोक चेतना को कुमार्गगामिता की ओर खींचने वाले माध्यम पिछड़ने और परास्त होने की स्थिति में चले जायँ । 

व्यक्ति की तरह समाज का निर्धारण-निर्माण भी नये सिरे से करना होगा । पिछले अज्ञानान्धकार युग ने हमें अगणित ऐसी विकृत प्रथा-परम्पराएँ दी हैं जिनके कारण व्यक्तियों को कुमार्गगामी और पतनोन्मुख होने के लिये विवश होना पड़ रहा है । वह ठीक है कि प्रखर व्यक्तित्व समाज को बदल सकते हैं पर यह उससे भी अधिक ठीक है कि समाज के प्रचलित ढर्रें के अनुरूप जनसमूह ढलता चला जाता है । जो हो रहा है उसे देखते-देखते मनुष्य उसका अभ्यस्त हो जाता है । और फिर उसे वही ढर्रा उचित एवं प्रिय लगने लगता है । तब उसका विरोध करते भी नहीं बनता । मनुष्य की प्रगति कुछ ऐसी ही है आज अनेक अवांछनीय प्रथा-परम्पराएँ हमारे समाज में प्रचलित है पर उनकी बुराई न तो सूझती है और न हटाने की जरूरत लगती है । 

न्याय, औचित्य एवं विवेक द्वारा हमें समाज शरीर में प्रवष्टि उन तत्वों पर दृष्टि डालनी होगी जो उसे निरन्तर विषैला और खोखला करते चले जा रहे हैं । खोजने पर यह तत्व आसानी से सामने आ जाते हैं । मनुष्य-मनुष्य के बीच उपस्थित की गई नीच-ऊँच की मान्यता ऐसी सामाजिक बुराई है जिसके पीछे कोई तर्क, न्याय या औचित्य नहीं है । घोड़ा, गधा, बैल, हिरन आदि की तरह मनुष्य भी एक जाति है । देश, काल, प्रकृति, जल, वायु के कारण रंग और आकृतियों में थोड़ा अन्तर आता है पर इससे उसकी जाति में अन्तर नहीं आता । भाषा, प्रकृति आदि के आधार पर सुविधा के लिए जाति भेद करने भी हो तो भी उनमें नीच-ऊँच ठहराये जाने का कोई कारण नहीं । दुष्ट-दुश्चरित्रों को नीच और श्रेष्ठ सज्जनों का ऊँचा कहा जाय यहाँ तक तो बात समझ में आती है पर देश विशेष में पैदा होने के कारण किसी को नीच, किसी को ऊँचा माना जाय यह मान्यता सर्वथा अन्यायमूलक है । इससे नीचे समझे जाने वाले वर्गों का स्वाभिमान गिरता और प्रगति के स्वाभाविक अधिकारों से उन्हें वंचित रहना पड़ता है । कुछ लोग अकारण अपने को उच्च मानने का अहंकार करते हैं । 

अपने देश में यह जन्म-जातिके साथ जुड़ी हुई ऊँच-नीच की मान्यता अविवेक के अन्तिम चरण तक पहुँच चुकी है । एक जाति के अन्तर्गत भी उपजातियों के भेद से लोग परस्पर ऊँच-नीच का भेद करते हैं । अछूत कहे जाने वाले लोग भी अपनी जन-जातियों में ऊँच-नीच का अन्तर मानते हैं । इस मान्यता ने सारे समाज को विसंगठित कर दिया । नारंगी बाहर से एक दीखती है भीतर से उसमें फाँकों में से फाँके निकलती चली जाती हैं, इसी प्रकार एक भारतीय समाज कहने भर को एक है वस्तुतः यह जाति भेद ऊँच-नीच अन्तर के कारण हजारों, लाखों टुकड़ों में बँटा हुआ विशृंखलित समाज है । ऐसे लोग कभी संगठित नहीं हो सकते जहाँ संगठन न होगा वहाँ न समर्थता दिखाई देगी, न प्रगति की व्यवस्था बनेगी । 

इस सामाजिक अन्याय का फल हैं कि नीच समझे जाने वाले लोग तेजी से हिन्दू धर्म छोड़ते चले जा रहे हैं और खुशी-खुशी विधर्मी बन रहें हैं । यही स्थिति रही तो छोटी कही जाने वाली तिरस्कृत जाति के लोग विधर्मी बन जायेंगे । और अगले दिनों देश में ही सवर्ण हिन्दू अल्पमत में होकर रहेगें अथवा पाकिस्तान,नागालैण्ड, जैसे टुकड़े कटते चले जायेंगे । समय रहते हमें जन्म जाति के आधार पर प्रतिपादित की जाने वाली नीच-ऊँच की मान्यता के दुष्परिणामों को समझना चाहिए और उसके उन्मूलन का प्रबल प्रयत्न करना चाहिए । 

स्वच्छता, समय की पाबन्दी , व्यवस्था, सतर्कता, व्यक्तिगुण हैं । इन्हें सामाजिक मान्यता मिलनी चाहिए । हर सामाजिक प्रक्रिया में इन प्रवृत्तियों को प्रमुखता मिलनी चाहिए ताकि व्यक्तियों को अपनी रीति-नीति तदनुरूप ढालने के लिये विवश होना पड़े । दफ्तरों से लेकर विश्राम गृहों तक हर जगह समय पर काम हो, समय चुकने वाले अपने प्रमाद का समुचित दण्ड पायें ताकि वे बार-बार वैसी भूल न करें । गन्दगी और अव्यवस्था चाहे वह घरों में हो या सार्वजनिक स्थानों पर, व्यक्ति की दृष्टि में खटके और हर देखने वाला उसे हटाने का प्रयत्न करे । भीड़ लगाने के स्थान पर हर काम में लाइन लग कर काम करने का अपना स्वभाव बन जाय । जिसने जिस समय जिस काम को करने का वायदा किया है वह सार्मथ्य भर उस वचन की पाबन्दी का ध्यान रखे ताकि किसी का समय बर्बाद न होने पावे । समय की बर्बादी को धन बर्बाद करने जैसा ही अनुचित माना जाय । प्रगतिशील वर्गों जैसे यह सद्गुण अपनी सामाजिकता के भी अंग बनने चाहिए ।
-वाङ्मय ६६-४-१३,१४ 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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