शनिवार, 7 अगस्त 2010

परिजनों में सुसंस्कार जगाएँ, यज्ञीयभाव से अनुप्राणित अन्न खायें-खिलायें ।

समस्या व्यक्ति निर्माण की 

उज्ज्वल भविष्य की कामना सभी करते हैं, किन्तु उसके लिए उज्ज्वल चरित्र सम्पन्न व्यक्ति चाहिए । जिनके मन-मस्तिष्क में हीन भाव और ओछे विचार भरे हैं, उनसे उज्ज्वल भविष्य के निर्माण की आशा कैसे की जा सकती है? अच्छे व्यक्ति सबको चाहिए, परन्तु उन्हें गढ़ा, खरादा कहाँ जाय? 

युगऋषि ने इस समस्या का समाधान दिया है । इसीलिए उन्होंने व्यक्ति निर्माण के साथ परिवार निर्माण की जरूरत बताई है । परिवार को उन्होंने व्यक्ति निर्माण की टकसाल, चरित्र निर्माण की प्रयोग शाला-व्यायामशाला तथा समाज निर्माण की सक्रिय, मजबूत इकाई कहा है । जो लोग युग निर्माण की ईश्वरीय योजना में सार्थक, सुनिश्चित, टिकाऊ योगदान करना चाहते हैं, उन्हें परिवारों को युगऋषि द्वारा बतलाई गई उक्त परिभाषाओं के अनुरूप बनाना चाहिए । 

सृजनकार्य कामनाओं के ख्वाब देखने से नहीं सधते, उसके लिए तो तप और कौशल का विकास और प्रयोग करना होता है । परिवार में ऐसा वातावरण बनाना होता है, जो जाने-अनजाने सभी के मन-अंतःकरण पर धीरे-धीरे अपना प्रभाव छोड़ता रहें । 

ऐसा वातावरण घर-परिवार में बनाने के लिए ऋषि ने पाँच सूत्र दिए हैं - १. पूजा स्थल पर नमन-वन्दन २. सामूहिक प्रार्थना का क्रम ३. पारिवारिक सत्संग ४. नित्य प्रणाम-अभिनन्दन का क्रम तथा ५. बलिवैश्व प्रक्रिया का पालन । 

इनके उद्देश्य और स्वरूप निम्नानुसार हैं - 

१. नमन-वन्दन - घर के किसी उपयुक्त स्थल पर पूजा का छोटा-बड़ा स्थान हो । वहाँ गायत्री माता का चित्र रहे अथवा परम्परागत पूजागृहों में कम से कम गायत्री महामंत्र की स्थापना हो । जो सदस्य नियमित उपासना करते हों, वे उपासना क्रम में गायत्री मंत्र का जप अवश्य करें । मंत्र जप अथवा इष्ट नाम जप के साथ भावना करें ''हे परमात्मा! हम सबको सद्बुद्धि दें, उज्ज्वल भविष्य के मार्ग पर आगे बढ़ाएँ ।'' परिवार के बाकी सदस्य अपने मुख्य कार्य पर जाने के पहले या भोजन के पहले वहाँ मस्तक झुकाकर अपने लिए और सबके लिए उज्ज्वल भविष्य की प्रार्थना करके जायें । पू. गुरुदेव ने कहा है ''मनुष्य महान है, और उससे भी महान है उसका सृजेता ।'' उसके साथ भावभरा सम्पर्क बनाये रहने से व्यक्ति के अंदर महानता के बीज विकसित होने लगते हैं । 

२. सामूहिक प्रार्थना - अनुभवी संतों का मत है कि जो एक साथ प्रार्थना करते हैं, वे आपस में प्यार-सहकार पूर्वक साथ-साथ बने रहते हैं । हो सके तो रोज शाम को, नहीं तो कम से कम सप्ताह में एक बार साथ-साथ प्रार्थना, आरती, भजन करें । पाँच या एक दीपक जलाकर दीपयज्ञ के साथ यह क्रम सरसता एवं सरलता से चल जाता है । क्रम पूरा होने पर सब अपने से बड़ों को प्रणाम करें, बड़े छोटों को स्नेह-आशीष दें । 

३. पारिवारिक सत्संग -इसे भी नित्य या साप्ताहिक सत्संग के साथ जोड़ा जाना उपयोगी रहता है । स्थिति के अनुसार अलग से भी इसका क्रम चलाया जा सकता है । आजकल फिल्म, टीवी, विभिन्न घटनाक्रमों आदि से हीन विचारों का आक्रमण तो होता ही रहता है । उनसे बचने का उपाय यही है कि घर-परिवार में सत्संग, कथाओं, उदाहरणों के माध्यम से मन-मस्तिष्क में अच्छे विचारों, भावों का संचार किया जाता रहे । 

४. नित्य प्रणाम-अभिनन्दन -सबेरे उठकर अथवा स्नान या पूजा के बाद अपने से सभी बड़ों को झुककर प्रणाम करें । बड़े छोटों को स्नेह-आशीष देते हुए उनके द्वारा किए गये अच्छे कामों की सराहना करें या वैसी प्रेरणा दें । 

५. बलिवैश्वदेव प्रक्रिया -यह यज्ञ का ऐसा सुगम स्वरूप है, जिसे हर कोई सहजता से कर सकता है । इसी के साथ इसका महत्त्व असाधारण है! इसके अन्तर्गत पकाए गये भोजन का एक अंश यज्ञ भगवान को अर्पित करने के बाद ही भोजन किया/कराया जाता है! 

असाधारण महत्त्व 

एक प्रसिद्ध कहावत है 'जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन ।' अन्न के स्थूल गुणों से शरीर का पोषण होता है तथा उसके अन्दर सन्निहित सूक्ष्म भावों-संस्कारों के अनुरूप मन का विकास होता है । अन्न में यज्ञीय भावना और यज्ञीय प्रक्रिया से श्रेष्ठ मन बनाने योग्य संस्कार स्थापित किए जा सकते हैं । 

गीता ३/१० में कहा गया है-''प्रजापति ने यज्ञ और प्रजा को साथ-साथ रचा और प्रजा से कहा कि तुम यज्ञ की आराधना करो, यह तुम्हारी इष्ट अवश्यकताएँ पूरी करेगा ।'' स्पष्ट है कि प्रजा को अपने वाञ्छित विकास के लिए यज्ञ का सहारा लेना जरूरी है । 

परमार्थ, त्याग, सहकार युक्त श्रेष्ठ कर्म को यज्ञ कहते है । अन्न में यज्ञीय संस्कार होगा, तो उसे खाने वाले का मन श्रेष्ठ बनेगा । यदि यज्ञीय भाव की उपेक्षा की गई, तो भोजन में केवल अपने संकीर्ण स्वार्थ और सुख के हीन संस्कार बस जायेंगे । उससे विकसित मन कभी श्रेष्ठ कर्मों में रस नहीं लेता । 

गीताकार ने कहा है - 

यज्ञ से शेष बचे अन्न को खाने वाले सज्ज्ान सभी पाप कर्मों से मुक्त हो जाते हैं । जो केवल अपने लिए ही पकाते हैं, वे तो पाप ही खाते हैं । (गीता ३/१३३) 

इसीलिए पूज्य गुरुदेव ने वांङ्मय (२६/६.५) में लिखा है -''दैनिक उपासना में केवल गायत्री जप ही पर्याप्त नहीं है, अग्निहोत्र भी उसके साथ चलना चाहिए । यज्ञ करने में जन सामान्य को जो कठिनाइयाँ (समय, अधिक खर्च, संसाधन, कठिन विधान)आती हैं, इन सबका निवारण बलिवैश्व में हो जाता है । इस सर्वसुलभ प्रक्रिया को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए । 

सुगम विधि-विधान 

बलिवैश्व की महत्ता बहुत बड़ी है और विधि-विधान बहुत सुगम है । इसे घर में गृहणियाँ बड़ी सहजता से कर सकती हैं । प्रक्रिया इस प्रकार है - 

- इष्टदेव को भोग लगाने के भाव से सफाई एवं पवित्र भावना के साथ भोजन पकाया जाय । 

-पकाए हुए भोजन में से नमक, मिर्च-मसाले वाले पदार्थ छोड़कर, फीके या मीठे पदार्थों में से थोड़ा-सा अंश एक साफ तश्तरी में निकाल लें । उसमें थोड़ा-सा घी, शक्कर अथवा हवन सामग्री मिलाकर उसकी बड़े चने के आकार की ५ गोलियाँ बना लें । 

-यदि चूल्हे में ईंधन जलाकर भोजन बनाया गया है, तो उसमें से कुछ अंगारे किसी मिट्टी के सकोरे या धातु के चौड़े पात्र में रख लें । फिर नीचे लिखे क्रम से पाँच आहुतियाँ भावनापूर्वक दें । 

गायत्री मंत्र बोलकर स्वाहा के साथ पहली आहुति होमें तथा कहें-इदं ब्रह्मणे इदं न मम । दूसरी आहुति इसी प्रकार होमकर कहें-इदं देवेभ्यः इदं न मम । तीसरी आहुति के बाद कहें-इदं ऋषिभ्यः इदं न मम । चौथी आहुति के बाद कहें-इदं नरेभ्यः इदं न मम । पाँचवी आहुति के बाद कहें-इदम् भूतेभ्यः इदं न मम । 

पाँचों आहुतियों के बाद अग्नि के चारों और जल फेर कर हवन पात्र को एक ओर रख दें । अन्न भस्म हो जाने, अग्नि शांत हो जाने पर उस भस्म को तुलसी के गमले या किसी पवित्र स्थल पर वृक्ष की जड़ में डाल दें । 

यदि स्टोव पर या गैस के बर्नर पर भोजन पकाया जाता हो, तो भी यह आहुतियाँ सहजता से दी जा सकती हैं । लोहे की मजबूत जाली वाली छन्नी को लौ के ऊपर करके आहुतियाँ डाली जा सकती हैं । कोई धातु का कम गहरा पात्र सड़ासी से पकड़ कर लौ पर करे अथवा सब्जी चलाने के धातु के चमचे, जिसमें बघार आदि लगाए जाते हैं, उसे लौ पर रखकर आहुतियाँ दी जा सकती हैं । शान्तिकुंज में तांबे का एक ऐसा पात्र भी तैयार किया गया है, जिसे गैस पर रख कर उसमें आहुतियाँ समर्पित की जा सकती हैं । सभी प्रयोग करके देखे गये हैं और सफल हैं । अपनी सुविधानुसार किसी को भी अपनाया जा सकता है । 

पंच महायज्ञ 

बलिवैश्व की ५ आहुतियों को पंच महायज्ञ कहा गया है । यों तो किन्ही बहुत बड़े यज्ञों को महायज्ञ कहा जाता है, किन्तु इस छोटे से सुगम क्रम को महायज्ञ क्यों कहा गया? यह बात अजीब सी लगती है । ध्यान देने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यहाँ यज्ञीय कर्मकाण्ड के प्रतीक को नहीं, उसके पीछे के तत्त्वदर्शन को महत्व दिया गया है । 

उक्त पाँच आहुतियाँ क्रमशः ब्रह्म, देव, ऋषि, नर (मनुष्य) एवं भूत (लघु जीवों) के निमित्त दी गई हैं । इन्हें क्रमशः १ ब्रह्मयज्ञ, २. देवयज्ञ, ३. ऋषियज्ञ ४. नरयज्ञ तथा ५. भूतयज्ञ कहा गया है । इस प्रसंग में पूज्य गुरुदेव वांङ्मय क्र. २६/६.३ में लिखते हैं - 

पंच महायज्ञों में जिन ब्रह्म, देव, ऋषि आदि का उल्लेख है, उनके निमित्त आहुति देने का अर्थ इन्हें अदृश्य व्यक्ति मानकर भोजन कराना नहीं, वरन् यह है कि इन शब्दों के पीछे जिन देव वृत्तियों का, सत्प्रवृत्तियों का संकेत है, उनके अभिवर्धन के लिए अंशदान करने की तत्परता अपनाई जाय । 

१. ब्रह्मयज्ञ का अर्थ है ब्रह्मज्ञान-आत्मज्ञान की प्रेरणा । ईश्वर और जीव के बीच चलने वाला पारस्परिक आदान-प्रदान । 

२. देवयज्ञ का उद्देश्य है-पशु से मनुष्य तक पहुँचाने वाले प्रगतिक्रम को आगे बढ़ाना । देवत्व के अनुरूप गुण, कर्म, स्वभाव का विकास-विस्तार । पवित्रता और उदारता का अधिकाधिक संवर्धन । 

३. ऋषियज्ञ का तात्पर्य है-पिछड़ों को अपने में संलग्न करुणार्द्र जीवन-नीति, सदाशयता संवर्धन की तपश्चर्या । मानवी गरिमा के अनुरूप वातावरण एवं समाज व्यवस्था का निर्माण । मानवी गरिमा का संरक्षण । नीति और व्यवस्था का परिपालन, नर में नारायण का उत्पादन । विश्वमानव का श्रेय साधन । 

५. भूतयज्ञ की भावना है-प्राणिमात्र तक आत्मीयता का विस्तार । अन्यान्य जीवधारियों के प्रति सद्भावना पूर्ण व्यवहार । वृक्ष-वनस्पतियों तक के विकास का प्रयास । 

इन पाँचों प्रवृत्तियों में व्यक्ति और समाज की सर्वतोमुखी प्रगति पवित्रता और सुव्यवस्था के सिद्धांत जुड़े हुए हैं । उन्हें उदात्त जीवन नीति के सूत्र कह सकते हें । जीवनचर्या और समाज व्यवस्था में इन सिद्धांतों का जिस अनुपात में समावेश होता जाएगा, उसी क्रम से सुखद परिस्थितियों का निर्माण निर्धारित होता चला जाएगा । बीज छोटा होता है, किन्तु उसका फलितार्थ विशाल वृक्ष बनकर सामने आता है । चिनगारी छोटी होती है, अनुकूल अवसर मिलने पर वही दावानल का रूप धारण कर लेती है । गणित के सूत्र छोटे होते हैं, पर उनसे जटिलताएँ सरल होती चली जाती हैं । अणु-जीवाणु-शुक्राणु तनिक से होते हैं, पर जब भी उन्हें अपना पराक्रम दिखाने का अवसर मिलता है, चमत्कारी प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं । 

मोटी दृष्टि से देखने में बलिवैश्व यज्ञ का बहुत अधिक महत्त्व दिखाई नहीं देता । उसे करने में न कोई बड़ा लाभ होता है और न करने पर किसी हानि की संभावना दिखाई नहीं पड़ती । पर यदि बारीकी से देखा जाय, तो प्रतीक तुच्छ होते हुए भी उसके पीछे काम करने वाली प्रेरणा अति महान है । प्रश्न आस्था की प्रतिष्ठापना का है । धर्मकृत्य तो उसके प्रतीक भर होते हैं । इसलिए उसका नाम भी प्रतीक पूजा ही है । प्रतीक अर्थात् प्रतिनिधि देवताओं की आकृतियाँ एवं प्रतिमाएँ आँख से देखने पर कौतुक-कौतूहल जैसी लगती हैं, पर उनके पीछे श्रद्धा को बढ़ाने और जगाने वाले जो तत्व जुड़े हुए हैं, उन्हीं को शास्त्रकारों ने प्राण-प्रतिष्ठा कहा है । प्राण-प्रतिष्ठा न होने से प्रतिमाएँ खिलौना भर रह जाती हैं । देवत्व तो श्रद्धा में ही सन्निहित है । बलिवैश्व को देव प्रतिमा और उसके क्रिया कृत्य को देवाराधन माना जाय, तो निश्चित ही उससे वही उद्देश्य पूरा होगा, जो विशालकाय धर्मानुष्ठानों होता है । 

वर्तमान युग में आस्था संकट ही समस्त विपत्तियों का तात्विक कारण है । अनास्था ने ही उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता की मान्यताओं और परम्पराओं को उलट दिया है, फलतः मनुष्य जाति के सामने अगणित विभीषिकाएँ उठ खड़ी हुई हैं । उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए आस्था संकट से जूझना ही प्रमुख कार्य है । उसी दिशा में एक रचनात्मक कदम बलिवैश्व परम्परा का पुनर्जीवन है ।

-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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