सोमवार, 19 अक्तूबर 2009

नये क्षेत्रों में थोड़े प्रयास से चल पड़ने वाले 'प्रज्ञा मंदिर' सक्रिय हों ।

विद्या विस्तार कार्यक्रमों के माध्यम से इस वर्ष हर क्षेत्र में सैकड़ों नये स्थानों में मिशन को प्रवेश मिलना सुनिश्चित है । आयोजनों में प्रभावित होने वाले श्रद्धालु नर-नारियों से सम्पर्क बनाकर उन्हें साधक, सहयोगी एवं प्रज्ञापुत्र स्तर तक विकसित करना होगा । उनसे सम्पर्क बनाने के लिए एक व्यवस्थित तंत्र बनाना होगा । इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए पूज्य गुरुदेव ने प्रज्ञा संस्थानों (गायत्री शक्तिपीठों, प्रज्ञापीठों आदि) की रूपरेखा बनाई । नये स्थानों पर थोड़ा भी उत्साह उभरते ही लोग सीधे प्रज्ञापीठ, शक्तिपीठ बनाने की बात सोचने लगते हैं । ऐसा सोचना और करना उचित नहीं है । यदि स्थान की आवश्यकता अनुभव हो, तो पहले वहाँ थोड़े प्रयासों, थोड़े संसाधनों से चल पड़ने वाले प्रज्ञा मंदिर सक्रिय किए जाने चाहिए । पूज्य गुरुदेव ने सन् १९८२ में ही प्रकाशित पुस्तक 'प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप और कार्यक्रम' में इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला है । प्रस्तुत आलेख पूज्यवर द्वारा लिखित उद्धरणों को आधार बनाकर लिखा गया है । परिजन, जोन, उपजोन एवं जिला समन्वय समितियों के सदस्य इसे ध्यान पूर्वक पढ़ें-समझें और तदनुसार संतुलित कदम बढ़ाएँ । 

छोटे, किन्तु प्रभावी संस्थान
प्रज्ञा संस्थानों के अन्तर्गत सबसे छोटी स्थापना प्रज्ञा मन्दिर की है । इस माध्यम से उन कार्यक्रमों को छोटे रूप में क्रियान्वित किया जा सकता है, जो प्रज्ञापीठों में बड़े रूप में सम्पन्न किए जाते हैं । यह स्थापना अपने रहने के मकान के एक कमरे में भी की जा सकती है । अपना एक कमरा खाली न हो, तो किसी मित्र का, मन्दिर, धर्मशाला का या किराये का कमरा प्राप्त किया जाय । उसमें दो चौकियाँ ऊपर- नीचे रखकर पूजा मंच बनाया जाय । इस पर बड़े साइज का गायत्री माता का चित्र स्थापित किया जाय । नित्य का पूजा उपचार तथा आरती सहगान का प्रबन्ध किया जाय । 

इसी कमरे की दो आलमारियों में प्रज्ञा पुस्तकालय की नियमित व्यवस्था बनाई जाय । यह कार्य स्वयं ही दो घण्टे निकालने पर अत्यन्त सरलता एवं सफलता के साथ चलता रह सकता है । जहाँ सुविधा हो, वहाँ इस पुण्य-प्रक्रिया को नियमित रखने के लिए दो या अधिक घण्टों के लिए कोई पार्ट टाइम विद्यार्थी वेतन पर भी रखा जा सकता है । उस क्षेत्र के शिक्षित लोगों से सम्पर्क साधा जाय और नियमित रूप से पढ़ने के लिए सहमत किया जाय । जो उत्साह दिखाये, उनके पास सप्ताह में एक या दो बार (झोला पुस्तकालय के द्वारा) युग साहित्य पहुँचाने और वापिस लेने का क्रम बिठाया जाय । 

जिनके पास ये पुस्तकें पहुँचा करें, वे अपने परिवार के अन्य सदस्यों को भी पढ़ाया या सुनाया करें, ऐसी प्रेरणा भी उन्हें देनी चाहिए । विद्यार्थी अपनी कक्षा एवं पाठशाला के सहपाठियों को युग साहित्य की छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ अदल-बदल कर पढ़ाते रह सकते हैं । अध्यापकों, अध्यापिकाओं के लिये अपने छात्रों को घर ले जाकर इन पुस्तकों को पढ़ने की प्रेरणा देना और भी सरल है । चिकित्सक, दुकानदार, दफ्तर के बाबू, अधिकारी अपने सम्पर्क वालों में यह पढ़ाने-वापिस लेने की प्रक्रिया अत्यन्त सरलतापूर्वक चलाते रह सकते हैं । प्रज्ञा मन्दिर संस्थापकों को इनसे सम्पर्क साधना चाहिए और अपने प्रज्ञा पुस्तकालय की पुस्तकें इन क्षेत्रों में भी प्रसारित करने का प्रयत्न करना चाहिए । अपना निजी परिवार-पड़ोस एवं मित्र परिचितों का क्षेत्र तो इस प्रक्रिया से लाभानन्वित होता ही रह सकता है । 

प्रज्ञा मन्दिरों की व्यवस्था कोई तेजस्वी व्यक्ति अकेले भी कर सकता है । पर अच्छा यह हो कि ४-५ की टोली यह कार्य संभाले । जीवन्त महिलाएँ भी मिलजुल कर प्रज्ञा मन्दिर की गतिविधियाँ चला सकती हैं । सब प्रयास करें तो १५-२० घरों में ज्ञानघट तथा धर्मघट तो रखे ही जा सकते हैं । महिलाएँ धर्मघट में न्यूनतम एक मुट्ठी अन्न डालें । इतने से प्रज्ञा मन्दिर में नियुक्त कार्यकर्त्ता का निर्वाह खर्च निकल सकता है । इसे ब्रह्मभोज के समकक्ष पुण्य माना जाना चाहिए । 

पूज्य गुरुदेव कहते रहे हैं कि युगदेवता के साथ साझेदारी के लिए कम से कम आधा कप चाय अथवा रोटी की कीमत ज्ञानघट में नित्य श्रद्धापूर्वक डाली जाय । नैष्ठिक साधक माह में एक दिन की आय भी डाल सकते हैं । इस प्रकार हुई आय का पारदर्शी हिसाब रखा जाय और सहमति पूर्वक उचित खर्चा किया जाय । 

क्रमशः विकसित हों 
प्रज्ञा मंदिर अपना कार्यक्षेत्र उतना ही मानें, जहाँ तक अपने समयदानी परिजन सहज सम्पर्क क्रम चला सकें । कोशिश यह की जानी चाहिए कि आयोजनों में जहाँ तक के परिजनों की सक्रिय भागीदारी रही हो, वहाँ तक प्रकाश फैलाने की जिम्मेदारी उठाई जा सके । उस क्षेत्र को छः हिस्सों में बाँटकर सम्पर्क की कार्य योजना बनाई जा सकती है । यदि प्रतिदिन दो घंटे का भी समय दिया जाय, तो प्रतिदिन के एक हिस्से में पुस्तकें देने-लेने, आत्मीयता बढ़ाने जैसे क्रम आसानी से चलाये जा सकते हैं । पूज्य गुरुदेव ने लिखा है - 

सातवाँ दिन-छुट्टी का दिन साप्ताहिक सत्संग का रखा जाये । सामूहिक जप, संक्षिप्त हवन एवं सहगान के तीन उपासनात्मक कार्यक्रम और एक घण्टे का विचार-विनिमय चलने लगे, तो समझना चाहिए कि प्रज्ञापीठों में चलने वाले ज्ञानयज्ञ की संक्षिप्त विधि-व्यवस्था क्रियान्वित होने लगी । छोटे कमरे में हवन की व्यवस्था ठीक से न बन पड़े और धुएँ या गर्मी के कारण सत्संग में व्यवधान पड़े, तो अगरबत्ती के रूप में हवन और दीपक के रूप में घृत की आहुति की भावना करके चौबीस बार गायत्री मंत्र पाठ से भी संक्षिप्त हवन की आवश्यकता पूर्ण कर सकते हैं । संगीत समेत सहगान कीर्तन हो या बिना संगीत के, यह स्थानीय सुविधा-व्यवस्था पर निर्भर करता है । साप्ताहिक सत्संग में विचार विनिमय का विषय यह होना चाहिए कि उपस्थित लोग अपनी वर्तमान परिस्थिति में अपने सीमित क्षेत्र में प्रज्ञा अभियान को अग्रगामी बनाने के लिए क्या कुछ कर सकते हैं? 

प्रज्ञा मन्दिर में आने वालों तथा युग साहित्य पढ़ने वालों को स्थानीय 'प्रज्ञा परिवार' मान लिया जाये और उनमें से जो-जो सहमत होते चलें, उन-उन के जन्मदिन मनाने की व्यवस्था बनाते रहा जाये । प्रज्ञा मन्दिर के संचालक या सहयोगी सरलतापूर्वक इतने जन्म-दिवसोत्सवों का प्रबन्ध कर सकते हैं । नये लोगों को इस नई व्यवस्था की जानकारी नहीं होती, अतएव उनका मार्गदर्शन ही नहीं, सहयोग भी करना होता है । जन्म दिवस चाहे प्रज्ञा केन्द्र पर मनाये जायें, चाहे घरों पर; किन्तु उन्हें खर्चीला न बनाने दिया जाय । भेंट में पुष्प एवं सद्भावनाएँ तथा स्वागत में थोड़ा-थोड़ा प्रसाद देने का अनुशासन निभाया जाय । 

धीरे-धीरे संसाधन बढ़ायें 
जब सामान्य क्रम चल पड़े और सहयोग जुटने लगे, तो फिर संस्थान के लिए संसाधन भी बढ़ाये जा सकते हैं गुरुदेव ने झोला पुस्तकालय के साथ ज्ञानरथों को भी सक्रिय करने पर जोर दिया है । 

लिखा है-थोड़ा धन एकत्रित हो जाय, तो फेरी वालों की धकेल जैसा सादा-सस्ता ज्ञानरथ बनाया जा सकता है । उसके माध्यम से घर-घर पुस्तकें पहुँचाने, वापस लाने के अतिरिक्त बिक्री का सिलसिला भी जारी रखा जाय । बिक्री के कमीशन से नियुक्त कार्यकर्त्ता की आंशिक पूर्ति हो जाती है । जो कमी पड़े, उसकी पूर्ति ज्ञानघटों वाली राशि में से कर दी जाय । नियुक्त कार्यकर्त्ता भोजन के उपरान्त नित्य ज्ञानरथ लेकर साहित्य पढ़ाने और बेचने निकले । हाट-बाजारों से लेकर घरों, स्कूलों, कारखानों, घाटों, मन्दिरों आदि जनसंकुल स्थानों पर पहुँचे । प्रचार बोर्ड एवं सजे ज्ञानरथ को लेकर दर्शकों का ध्यान आकर्षित करे । चलाने वाला वाक्पटु हो तो रास्ता-चलतों को रोककर प्रज्ञा अभियान की, प्रस्तुत युग साहित्य की गरिमा से सर्वसाधारण को परिचित कराता रह सकता है । चटाई बिछाकर लोगों को बैठने और पढ़ने के लिए साहित्य देता रह सकता है । इस प्रकार बिक्री का सिलसिला भी चलता रहेगा और पढ़ाने-वापस लेने वाली प्रक्रिया भी भली प्रकार जारी रहेगी । 

आरम्भ में मन्दिर का श्रीगणेश करते समय अखण्ड ज्योति, युगशक्ति, महिला जागृति पत्रिकाओं के पुराने अंक संग्रह करके उन पर बाँसी कागज चिपका लिया जाय और उसे ही प्रारम्भिक पुस्तकालय मानकर चलाया जाय । इसके बाद ज्ञानघटों-घमर्घटों की राशि से प्रज्ञा मन्दिर के साहित्य एवं कार्यकर्त्ता के पारिश्रमिक की पूर्ति का कार्यक्रम चलता रह सकता है । 

जहाँ प्रज्ञा मन्दिरों के उपरोक्त सामान्य क्रियाकलाप चल पड़ें, वहाँ प्रज्ञापीठों द्वारा चलाये जाने वाले रचनात्मक एवं सुधारात्मक प्रयास भी प्रारम्भ किये जा सकते हैं । 

प्रगति के चरण बढ़ते रहें 
विकसित प्रज्ञा मंदिरों में से किसी को उनकी शक्ति-सामर्थ्य के अनुसार नवचेतना विस्तार केन्द्र (स-३ के कायार्लय) जैसी मान्यता भी दी जा सकती है । जब पर्याप्त समयदानी एवं सहयोगी उभर आयें, संसाधन बढ़ने लगें, तो उन्हें प्रज्ञापीठ स्तर तक भी ले जाया जा सकता है । युगऋषि ने इस संदर्भ में लिखा है- 

प्रयास किया जाना चाहिए कि प्रज्ञा मन्दिर आगे चलकर प्रज्ञापीठ के रूप में विकसित हो जाएँ । उसके लिए छोटा मन्दिर तथा बहुउद्देश्यीय हॉल उपयुक्त स्थल पर बनाना होता है । हर प्रज्ञापीठ में बहुउद्देश्यीय 'हॉल' का निर्माण इसलिए किया जाता है कि दिन में दो-दो घण्टे की तीन-तीन पाठ-शालाएँ चलें । एक बच्चों की, दूसरी महिलाओं की, तीसरी प्रौढ़ों की । एक कक्षा स्वास्थ्य संवधर्न की, आसन-प्राणायाम, खेल-कूद, ड्रिल एवं आवश्यक प्रशिक्षण की चला करे । रात्रि को सामयिक समस्याओं के समाधान के निमित्त कथा-प्रवचन का सिलसिला चले । जगह कम पड़ती हो या लोगों के पहुँचने में असुविधा हो, तो कथा के लिए कोई दूसरा सुविधाजनक स्थान भी चुना जा सकता है । 

परमार्थ परायण जाग्रतात्माओं के लिए यह सब काम कठिन नहीं है, क्योंकि इस स्तर के व्यक्तियो की यह एक मौलिक विशेषता होती है-लक्ष्य को निजी स्वार्थ जितना ही महत्त्वपूर्ण मानना । सामान्य व्यक्ति परमार्थ-कार्य को करते समय मनोरंजन मात्र मानते हैं, जबकि मूर्धन्यो के लिए वह प्रमुख ही नहीं, सब कुछ बन जाता है । चुनाव जीतने के लिए लोग कितना श्रम, कितना व्यय कितना चातुर्य नियोजित करते हैं, इसे देखने से प्रतीत होता है कि लगन गहरी होने पर मनुष्य की कार्यक्षमता किस प्रकार सैकड़ों गुनी अधिक हो जाती है । उन दिनों खाने-सोने तक की बात भुला दी जाती है । उदासीनों और शत्रुओं तक से मदद की याचना की जाती है । कर्ज लेकर या सामान बेचकर भी चुनाव की व्यय राशि जुटाई जाती है । चुनाव जीतने जितनी लगन एवं उमंग यदि नवसृजन के लिये उभर सके, तो समझना चाहिये कि सामान्य परिस्थितियों का व्यक्ति भी उसी स्तर के पराक्रम करने लगेगा, जिसकी तुलना पवनपुत्र से की जा सके और उसे प्रज्ञापुत्र कहा जा सके । 

समय पहचानें-आगे आयें
निश्चित है कि ऐसे प्रयोग प्रारंभ करके उन्हें छोटे से बड़े स्वरूप तक पहुँचाने का कार्य कोई प्राणवान व्यक्ति ही कर सकते हैं । उन्हें समय पहचान कर स्वयं उछलकर आगे आना चाहिए । पूज्य गुरुदेव लिखते हैं- 

इन दिनों ऐसे प्राणवानों की ही पुकार महाकाल ने की है । उन्हीं को युग-देवता ने बुलाया है । मानवता की प्राणोन्मुख अन्तरात्मा ने ऐसे ही महामानवों पर अपनी आशा भरी दृष्टि केन्द्रित की है । आवश्यकता नहीं है कि ऐसे लोग धनी, प्रतिभाशाली, साधन सम्पन्न भी हों । इन सभी साधनों से रहित होते हुए हजारी किसान और शालीकलाँ के डेमन्या भील की तरह ऐसे अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किये जा सकते हैं, जिन्हें देखकर मृतकों के भी प्राण छटपटाने लगें । 

गतिविधियों के संचालन के लिए प्रज्ञा मंदिरों की संचालक मण्डली के सदस्य स्वयं तो नियमित समयदान किया ही करें, प्रज्ञा परिवार के अन्य लोगों को भी इसके लिए प्रोत्साहित करें । हर दिन दो घंटे एवं साप्ताहिक अवकाश का पूरा दिन देते रहने भर से इतना बड़ा काम हो सकता है कि उस गाँव, कस्बे में नवजागरण के चिह्न प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगें । ये समयदानी टोलियाँ बनाकर योजनाबद्ध ढंग से जनसंपर्क के लिए निकलें और मिशन की गतिविधियों का परिचय कराने तथा सम्मिलित रहने के लिए प्रोत्साहित करते रहें, तो सहज ही सहयोगियों की संख्या बढ़ती रहेगी और वे सभी कार्यक्रम क्षेत्र में चल पड़ेंगे, जो अपेक्षित हैं । 

'प्रज्ञा मंदिर' ऐसी छोटी शक्तिपीठ है, जिसकी स्थापना तत्काल एवं एकाकी प्रयास से भी सम्भव हो सकती है । आगे चलकर सहयोगियों की सहायता से अपना भवन बनाने की योजना बन पड़े, तो इसके लिए जन सहयोग में भी कमी न पड़ेगी । बड़ी स्थापना के लिए देर तक प्रतीक्षा करने के स्थान पर यही उत्तम है कि प्रज्ञा अभियान को व्यापक बनाने के लिए छोटा शुभारंभ कर दिया जाय । इस दृष्टि से प्रज्ञा मंदिर की उपयोगिता समझी और समझाई जाय । 

प्रज्ञा संस्थानों के प्रारंभिक ढाँचे में खड़े होने पर उन्हें समर्थ और विकसित माना जाएगा और उन्हें वे अगले महत्त्वपूर्ण काम सौंपे जायेंगे, जिनसे प्रस्तुत विभीषिकाओं का निराकरण एवं उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण सुनिश्चित रूप से संभव हो सके । 

वर्तमान यज्ञ शृंखला के माध्यम से नये क्षेत्रों में जो प्राणवान लोग उभरें, उन्हें प्रज्ञा मंदिर संचालित करने के लिए प्रेरणा-प्रोत्साहन एवं सहयोग देने से इस दिशा में वांछित सफलता मिल सकती है ।

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