1) हो सकता हैं मैं आपके विचारों से सहमत न हो पाऊँ फिर भी विचार प्रकट करने के आपके अधिकारों की रक्षा करूँगा।
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2) होती तभी सफल सरकार, जब जनमानस हो तैयार।
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3) हाँ, जितनी देर तक भजन करने बैठे हैं, उतनी देर तक यह भावना अवश्य करते रहते हैं कि ब्रह्म की परम तेजोमयी सत्ता, माता गायत्री का दिव्य प्रकाश हमारे रोम-रोम में ओत-प्रोत हो रहा हैं और प्रचण्ड अग्नि में पडकर लाल हुए लोहे की तरह हमारा भौंडा अस्तित्व उसी तरह का उत्कृष्ट बन गया हैं, जिस स्तर का कि हमारा इष्टदेव है। परम पूज्य गुरुदेव
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4) हे मनुष्य ! यश के पीछे मत भाग, कर्तव्य के पीछे भाग। लोग क्या कहते हैं, यह न सुनकर विवेक के पीछे भाग। दुनिया चाहे कुछ भी कहें, सत्य का सहारा मत छोड।
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5) हे मनुष्य ! तू कितना शक्तिशाली हैं ! तेरी श्रष्टि में उस दैवी कलाकार ने अपनी कला की इतिश्री कर दी।
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6) हे विद्यार्थी ! तू भारत का भविष्य, विश्व का गौरव और अपने माता-पिता की शान हैं। तेरे भीतर सामर्थ्य का भंडार छुपा पडा है।
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7) हे भगवान् मेरा समाधिपूर्वक मरण हो। मरण-क्षण में मेंरे चित्त में किसी व्यक्ति का मोह, पदार्थ का लोभ एवं वासना का आकर्षण न हो। मैं मरण भय से निर्भय रहूँ। आदर्शो पर अटल रहूँ, मन एकमेव तुम्हारे चिन्तन में डूबा रहे, हृदय का प्रत्येक स्पन्दन एक तुम्हारे लिए ही स्पन्दित होता रहे। मैं तुम्हारा ही अविनाशी अंश हूँ और तुम्ही में समाकर, विसर्जित-विलय होकर पूर्णता की प्राप्ति करने के महाभाव में स्थिर रह सकूँ।
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8) हे पुरुष श्रेष्ठ ! खाते हुये कभी भी शंका न करें ( कि यह अन्न मुझे पचेगा या नही )
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9) हैं न आश्चर्य की बात, आप कितना कम जानते है, यह जानने के लिये ही कितना अधिक जानने की जरुरत होती है।
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10) हैरानी अज्ञान की बेटी हैं
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11) भय का बीज संशय है।
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12) भय हमारी अज्ञानता का सूचक है।
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13) भय से उद्भूत कुत्सित मनोवृत्तियाँ उपयोगी पुरुषार्थ को जड मूल से नष्ट कर देती है।
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14) भय से उत्पन्न मौन पशुता हैं और संयम से उत्पन्न मौन साधुता।
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15) भय जीवन का सबसे बडा शत्रु है।
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16) भयभीत मनुष्य किसी का सहायक नहीं हो सकता।
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17) भयभीत न हो, निराश न हो, क्योकि मै तुम्हारा भगवान, तुम्हारा ईश्वर सदा तुम्हारे साथ हू। जहा-जहा तुम जाओगे, मैं तुम्हारे साथ रहूँगा।
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18) भक्त वही हैं जिसके लिये जन-जन का दर्द उसका अपना दर्द हो।
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19) भक्तो का “राम-राम” हैं, योगियों का “सोऽम” हैं और ज्ञानियों का “ऊँ” है।
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20) भक्ति का अर्थ हैं - श्रेष्ठता से प्रगाढ स्नेह।
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21) भविष्य में जीवन खोजने वाले अपने वर्तमान से हमेशा असंतुष्ठ, असंतृप्त बने रहते है।
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22) भीख माँगना छोडो भाई, खाओं श्रम की शुद्ध कमाई।
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23) भीषण चिंता आंतरिक सद्भावों का सर्वनाश कर देती है।
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24) भीतर से हर व्यक्ति के अन्दर देवत्व भरा पडा हैं, आवश्यकता मात्र उसे उभारने की है। मनुष्य का स्वाभाविक रुझान ही उत्कृष्टतापरक हैं। वह भटका हुआ देवता हैं, उठा हुआ पशु नहीं।
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