कुछ युवकों ने मुझसे पूछा, ‘पाप क्या हैं ?’ मैने कहा-‘मूर्च्छा’। वस्तुतः होशपूर्वक कोई भी पाप करना असंभव हैं। इसलिए मैं कहता हूं कि जो परिपूर्ण होश में हो सके, वही पुण्य है। और जो मूर्च्छा के बिना न हो सके, वही पाप हैं।
एक युवक ने साधु से जाकर कहा, ‘मैं आपका शिष्य होना चाहता हूं।’ साधु ने कहा, ‘स्वागत हैं, परमात्मा के द्वार पर सदा ही सबका स्वागत हैं।’ वह युवक कुछ हैरान हुआ और बोला, ‘लेकिन बहुत त्रुटियां हैं मुझमें- मैं बहुत पापी हूं।’ यह सुन साधु हँसने लगा और बोला, परमात्मा तुम्हें स्वीकार करता हैं, तो मैं अस्वीकार करने वाला कौन हूं ? मैं भी सब पापों के साथ तुम्हें स्वीकार करता हूं।’ उस युवक ने कहा, ‘लेकिन मैं जुआ खेलता हूं, मैं शराब पीता हूं, मैं व्यभिचारी हूं।’
वह साधु बोला, ‘इन सबसे कोई भेद नहीं पड़ता, लेकिन देखों ! मैंने तुम्हें स्वीकार किया, क्या तुम मुझे स्वीकार करोगे ? क्या तुम जिन्हें पाप कह रहे हो, उन्हें करते समय कम से कम इतना ध्यान रखोगे कि मेरी उपस्थिति में उन्हें न करो। मैं इतनी तो आशा कर ही सकता हूं ? युवक ने आश्वासन दिया। गुरू का इतना आदर स्वाभाविक ही था। लेकिन कुछ दिनों बाद जब वह लौटा और उसके गुरू ने पूछा कि तुम्हारे पापों का क्या हाल हैं, तो वह हँसते हुए बोला, मैं जैसे ही उनकी मूर्च्छा में पड़ता हूं कि आपकी आँखे सामने आ जाती हैं और मैं जाग जाता हूं। आपकी उपस्थिति मुझे जगा देती हैं। जागते हुए तो गड्ढों में गिरना असंभव हैं।’’ मेरे देखे पाप और पुण्य मात्र कृत्य ही नहीं हैं। वस्तुतः तो वे हमारे अंतःकरण के सोये होने या जागे होने की सूचनाएं हैं।
-ओशो
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