धर्मतंत्र और राजतंत्र दो ही मानव जीवन को प्रभावित करने वाले आधार हैं । एक उमंग पैदा करता है तो दूसरा आतंक प्रस्तुत करता है । राजतंत्र जनसाधारण के भौतिक जीवन को प्रभावित करता है और धर्मतंत्र अन्तकरण के मर्मस्थल को स्पर्श करके दिशा और दृष्टि का निर्धारण करता है । दोनों की शक्ति असामान्य है । दोनों का प्रभाव अपने अपने क्षेत्र में अद्भुत है ।
दोनों की तुलना यहाँ इस दृष्टि से नहीं की जा रही कि इसमें कौन कमजोर है, कौन बलवान. कौन महत्त्वपूर्ण है, कौन निरर्थक । दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । दोनों का क्षेत्र बॅंटा हुआ होते हुए भी वस्तुत: एक के द्वारा दूसरे के सफल प्रयोजन होने में सहायता मिलती है । दोनों एक दूसरे की विपरीत दिशा में चलें तो जनसाधारण को हानि ही उठानी पड़ती है ।
राजसत्ता अपने हाथ में नहीं, वह दूसरों के हाथ में है । धर्म और राजनीति का समन्वय हो सका तो उसका परिणाम अति सुखद होता, पर आज की स्थिति में वह कठिन है । भले ही दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, फिर भी धर्मतंत्र का महत्व राजतंत्र से ऊपर ही है, क्योंकि अन्तरंग जीवन के अनुरूप ही भौतिक परिस्थिति में हेर-फेर होता है । अस्तु, भावनात्मक नवनिर्माण के लिए हमें राजसत्ता का सहारा टटोलने की अपेक्षा धर्मसत्ता का ही आश्रय लेना चाहिए । सरकार को अपने अन्य भौतिक उत्तरदायित्व निर्वाहों के लिए छुट्टी देनी चाहिए । हमें जनमानस को स्पर्श करने के लिए विशेष रूप से धर्मसत्ता का ही उपयोग करना होगा । उसके माध्यम से जनभावनाओं को जगाया, मोड़ा, सुधारा और उठाया जा सकता है । संसार को पलटकर रख देने वाले महामानव धर्मक्षेत्र के उद्यान में ही उपजे हैं ।
युग निर्माण योजना, दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम ६६ (१-१)
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