जो व्रत चन्द्रमा की कलाओ के साथ साथ किया जाता है, उसे चन्द्रायण व्रत कहते है।
इसे पूर्णमासी से आरम्भ करते है और एक माह बाद पूर्णमासी को ही समाप्त करतें है। इस व्रत में व्यक्ति अपनें खानें को १६ हिस्सों में विभाजित करतें है।
प्रथम दिन यानि पूर्णमासी को चन्द्रमा पूरा १६ कलाओं वाला होता है अतः भोजन भी पूरा लेते है।
अगले दिन से भोजन का १६वां भाग प्रत्येक दिन कम करते जाते है और अमावस्या को चन्द्रमा शून्य (०) कलाओं वाला होता है अतः भोजन नही लेते है यानि पूर्ण व्रत करतें हैं।
अमावस्या के अगले दिन से पुनः भोजन की मात्रा में १६ वें भाग की बढ़ोतरी करते जाते है और पुनः पूर्णमासी को चन्द्रमा पूरा १६ कलाओं वाला होता है अतः भोजन भी पूरा लेते है।
व्रत के साथ साथ गायत्री का अनुष्ठान भी चलता रहता है।
कौन कर सकता है या किसे करना चाहिये?
उस व्यक्ति को जिसे अपना स्वास्थ्य ठीक करना हो, उस व्यक्ति को यह व्रत अवश्य करना चाहिये।
कब व कहां कर सकते है?
पूर्णमासी से पूर्णमासी तक किसी भी मौसम में कर सकतें है। अत्यधिक शारीरिक श्रम वाले दिनों इसे नही करना चाहिये।
स्थान घर का एक कमरा भी हो सकता है और कोई अन्य सुविधा युक्त स्थान । पर स्थान का चयन करने पर वातावरण की शान्ति और पवित्रता का विशेष ध्यान रखना चाहिये।
शारीरिक व आध्यात्मिक महत्व क्या है ?
- शरीर की शुद्धि होती है।
- शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है, रोग निवारक शक्ति बढ़ती है।
- आहार विहार शुद्ध होने से मन स्वच्छ बनता है।
- गायत्री अनुष्ठान का साथ होने से आध्यात्मिक ऊर्जा मिलती है और मानव सत्कार्यो की और प्रवृत्त होता है।
इस व्रत को गायत्री परिवार ने क्यों अपनाया ?
हमारे पूज्य गुरूदेव श्री राम शर्मा आचार्य जी ने इसका प्रयोग स्वयं पर तथा अपने रूग्ण शिष्यों पर किया और अनुभव किया कि यह व्रत मानसिक व शारीरिक स्वस्थता के लिये परम उपयोगी है। उन्होने पाया कि यह व्रत शरीर का कायाकल्प कर देता है।
केवल गायत्री परिवार ही नही स्वास्थ्य को महत्व देने वाले लगभग सभी आश्रमों ने इस व्रत को अपना रखा है।
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