सुख-सुविधा की साधन-सामग्री बढ़ाकर संसार में सुख-शान्ति और प्रगति होने की बात सोची जा रही है और उसी के लिए सब कुछ किया जा रहा है पर साथ ही हमें यह भी सोच लेना चाहिए कि समृद्धि तभी उपयोगी हो सकती है जब उसके साथ-साथ भावनात्मक स्तर भी ऊँचा उठता चले, यदि भावनाएँ निकृष्ट स्तर की रहें तो बढ़ी हुई सम्पत्ति उलटी विपत्ति का रूप धारण कर लेती है । दुर्बुद्धिग्रस्त मनुष्य अधिक धन पाकर उसका उपयोग अपने दोष-दुर्गुण बढ़ाने में ही करते हैं । अन्न का दुर्भिक्ष पड़ जाने पर लोग पत्ते और छालें खाकर जीवित रह लेते हैं पर भावनाओं का दुर्भिक्ष पडऩे पर यहॉँ नारकीय व्यथा-वेदनाओं के अतिरिक्त और कुछ शेष नहीं रहता ।
सम्पन्न लोगों का जीवन निर्धनों की अपेक्षा कलुषित होता है, उसके विपरीत प्राचीनकाल में ऋषियों ने अपने जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करके यह सिद्ध किया था कि गरीबी की जीवन व्यवस्था में भी उत्कृष्ट जीवन जीना संभव हो सकता है । यहाँ सम्पन्नता एवं समृद्धि का विरोध नहीं किया जा रहा है, हमारा प्रयोजन केवल इतना ही है भावना स्तर ऊँचा उठने के साथ-साथ समृद्धि बढ़ेगी तो उसका सदुपयोग होगा और तभी उससे व्यक्ति एवं समाज की सुख-शान्ति बढ़ेगी । भावना स्तर की उपेक्षा करके यदि सम्पत्ति पर ही जोर दिया जाता रहा तो दुर्गुणी लोग उस बढ़ोत्तरी का उपयोग विनाश के लिए ही करेंगे । बन्दर के हाथ में गई हुई तलवार किसी का क्या हित साधन कर सकेगी ?
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (३.३३)
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