1) चिन्ता ही करनी हैं तो केवल भगवान की करों।
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2) चिन्ता और चिता में इतना ही फर्क हैं कि एक अदृश्य हैं और दूसरी प्रत्यक्ष।
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3) चिन्ताशील व्यक्ति खाली और खोखले होते हैं, तथा चिन्तनशील व्यक्ति खरे और स्वस्थ होते है।
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4) चिन्ताओं से दूर भाग्यशाली ही इस जीवन का आनन्द ले सकता है।
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5) चिन्तन (मन), चरित्र (धर्म), एवं व्यवहार (कर्म) यही व्यक्तित्व का त्रिआयामी क्षेत्र है।
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6) चिन्तन बहुतों ने सिखाया हैं, पर ऐसे बहुत कम मिले, जो चिन्तन को जीवन में उतारना सिखा पाते।
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7) चिन्तन की उत्कृष्टता-निकृष्टता के आधार पर ही व्यक्ति देव और असुर बनता है।
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8) चिन्तन में उपासना, चरित्र में साधना और व्यवहार में आराधना का समावेश करने में पूरी-पूरी सतर्कता और तत्परता बरती जाये।
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9) चित्त की चैकसी ही परम-ज्योति पाने का द्वार है।
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10) चित्त में राग-द्वेष, हर्ष-शोक न होना समता है।
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11) फिजूलखर्ची करना अपनी आत्मा बेचना है।
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12) फिजूलखर्ची का विष बीज अनैतिकता, दरिद्रता एवं दुर्व्यसनों के रुप में पनपता है।
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13) जिज्ञासा एवं सचाई की तीव्रता से ही हम स्वयं को समझने लायक बनते है।
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14) जिज्ञासा तेज बुद्धि का एक स्थायी और निश्चित गुण है।
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15) जिस क्षण हम पाप करते हैं उसी क्षण उसके दण्ड का बीज भी बो देते है।
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16) जिस हृदय में भगवान को स्थान देना है, उसे कषाय-कल्मषो से स्वच्छ किया जाना चाहिये। इसके लिए आत्म-निरीक्षण, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण, और आत्म-विकास की चारों ही दिशा धाराओ में बढना आवश्यक है।
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17) जिस इन्सान के अन्दर पाप बसा हुआ है, वहीं दूसरों के दोष देखता हैं।
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18) जिस मनुष्य की जितनी कम आवश्यकता होती हैं, वह ईश्वर के उतने ही नजदीक होता है।
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19) जिस दिन सचमुच आप अपने उपर हॅसेंगे, उसी दिन आप बडे हो जायेंगे।
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20) जिस दिन सच्चाई को देखकर भी हम बोलना नहीं चाहते उसी दिन हमारी मौत की शुरुआत हो जाती है।
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21) जिस दिन आत्मा को परमात्मा का बोध हो जाये उस दिन आपकी साधना फलितार्थ हो जायेगी।
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22) जिस प्रकार शरीर के क्रिया-कलाप में प्राणतत्व की महत्त्व हैं, उसी प्रकार आत्मिक क्षेत्र में प्रेम-तत्त्व का आधिपत्य है।
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23) जिस प्रकार संकल्प सूक्ष्म शरीर की ऊर्जा हैं, उसी प्रकार श्रद्धा कारण शरीर की ऊर्जा का घनीभूत स्थिति है।
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24) जिस समय अनाथ बच्चा आँसू बहाता हैं, उस समय वह आँसू सीधे परमेश्वर के हाथ में जा पडता है।
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