राजा सन्यासी के पास गया उसने उस सन्यासी की बहुत ख्याति सुनी थी। पास जाकर उसने वंदना की। उसने बहुत निकटता से देखा कि सन्यासी बहुत बड़ा तपस्वी हैं, तेजस्वी हैं। हाथ जोड़कर राजा बोला, ‘धन्य हैं आप। धन्य हैं आपका संयम और त्याग। धन्य हैं आपकी तपस्या। कितना बड़ा त्याग हैं आपका। घर छोड़ दिया, परिवार का त्याग कर दिया, सारी संपदा को ठोकर मार दी, कितना महान् त्याग ! राजा स्तुति करता रहा।
सन्यासी बोला, ‘महाराज ! व्यर्थ ही स्तुति मत करो। त्यागी मैं हूं या तुम ? त्याग मेरा बड़ा हैं या तुम्हारा ? तुम्हारा त्याग बड़ा हैं।’ राजा आश्चर्य में पड़ गया। बोला, ‘महाराज मैं कैसा त्यागी ? इतने वैभव, इतनी संपदा और सुख को मैं भोग कर रहा हूं। निरंतर भोग में बैठा हूं । कहां हैं मेरा त्याग ? कैसा हैं मेरा त्याग ?
सन्यासी ने कहा, ‘ मैने जो कहा वह सच हैं। तुम्हारा त्याग मेरे त्याग से बड़ा हैं मेरे सामने मोक्ष का सुख हैं सबसे महान् सुख हैं। इस सुख की प्राप्ति के लिए मैंने थोड़ा-सा धन का सुख छोड़ा, परिवार और संपदा का सुख छोड़ा हैं। किन्तु तुम बड़े त्यागी हो। उस महान मोक्ष और परमात्मा के सुख को छोड़कर पदार्थ के सुख में फंसे हो। अब बताओ, बड़े सुख को तुमने छोड़ा हैं या मैने ? बताओ बड़े त्यागी तुम हो या मैं ? थोड़ा रूककर सन्यासी ने कहा, ‘छोटे सुख के लिए बड़ा त्याग बुद्धिमानी नहीं हैं। इसलिए मैं बुद्धिमान हूं।
वास्तव में वही व्यक्ति बुद्धिमान होता हैं, जो थोड़े के लिए बहुत को नहीं छोड़ता।
-आचार्य महाप्रज्ञ
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