1. सर्वेषामप्यपुपायानां दानं श्रेष्ठतमं मतम्।
सुदत्तेनेह भवति दानेनोभयलोकजित्।।
दान सभी उपयों में सर्वश्रेष्ठ हैं। यथोचित रीति से दान देने से मनुष्य दोनों लोकों को जीत लेता है।
2. यदैव जायते श्रद्धा पात्रं सम्प्राप्यते यदा।
स एव पुण्यकालः स्याद्यतः सम्पत्तिरस्थिरा।।
जब कभी भी श्रद्धा उत्पन्न हो जाय और जब भी दान के लिए सुपात्र प्राप्त हो जाय, वही समय दान के लिए पुण्यकाल हैं, क्योंकि सम्पत्ति अस्थिर है।
3. गृहादर्था निवर्तन्ते श्मशानात्सर्वबान्धवाः।
शुभाशुभं कृतं कर्म गच्छन्तमनुगच्छति।।
धन-सम्पत्ति घर में ही छूट जाती हैं। सभी बन्धु-बान्धव श्मशान में छूट जाते हैं, किन्तु प्राणी के द्वारा किया हुआ शुभाशुभ कर्म परलोक में उसके पीछे-पीछे जाता हैं।
4. पितुः शतगुणं पुण्यं सहस्त्रं मातुरेव च।
भगिनी दशसाहस्त्रं सोदरे दत्तमक्षयम्।।
पिता के उद्धेश्य से किए गये दान से सौ गुना, माता के उद्धेश्य से किए गये दान से हजार गुना, बहन के उद्धेश्य से किए गये दान से दस हजार गुना और सहोदर भाई के निमित्त किये गये दान से अनन्त गुना पुण्य प्राप्त होता हैं।
5. न दानादधिकं किन्चित् दृश्यते भुवनत्रये।
दानेन प्राप्यते स्वर्गः श्रीर्दानेनैव लभ्यते।।
तीनों लोकों में दान से बढ़कर कुछ दिखाई नहीं देता। दान से दिव्य लोक की प्राप्ति होती हैं, लक्ष्मी दान के द्वारा ही प्राप्त होती है।
6. धर्मार्थकाममोक्षाणां साधनं परमं स्मृतम्।
दान को धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष-इस चतुवर्ग की प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन बताया गया हैं।
7. दानं कामफला वृक्षा दानं चिन्तामणिर्नृणाम्।
दानं पुत्रकलत्राद्यं दानं माता पिता तथा।।
दान अभिलाषित फल देने वाले वृक्षों के समान हैं, दान मनुष्यों के लिए चिन्तामणि के समान हैं अर्थातृ जिस वस्तु का चिन्तन किया जाय, वह (दान से) तत्काल सुलभ हो जाती हैं। दान पुत्र, स्त्री आदि हैं तथा दान ही माता-पिता हैं।
8. पापकर्मसमायुक्तं पतन्तं नरके नरम्।
त्रायते दानमेकं तु पात्रभूते द्विजे कृतम्।।
नरक में पड़े हुए पापी व्यक्ति को एकमात्र दान ही बचा सकता हैं, बशर्ते कि वह दान सत्पात्र ब्राह्मण को दिया गया हो।
9. न्यायेनार्जनमर्थानां वर्धनं चाभिरक्षणम्।।
सत्पात्रप्रतिपत्तिश्च सर्वशास्त्रेषु पठयते।।
सभी शास्त्रों को पढ़कर यही देखा गया है। कि न्यायपूर्वक धन का अर्जन करना चाहिये, सत्प्रयत्न से उसकी वृद्धि करनी चाहिये और उसकी रक्षा भी इसीलिय करनी चाहिये ताकि सत्पात्र में उसका विनियोग किया जा सके।
10. यस्य वित्तं न दानाय नोपभोगाय देहिनाम्।
नपि कीत्र्यै न धर्माय तस्य वित्तं निरर्थकम्।।
जिसका धन न तो दान में प्रयुक्त होता हैं, न लोगों के उपयोग में आता हैं, न यश के लिये होता हैं और न धर्मार्जन में विनियुक्त होता हैं, उसका धन निरर्थक हैं, निष्प्रयोजन हैं।
11. गौरवं प्राप्यते दानान्न तु वित्तस्य सन्चयात्।
स्थितिरूच्चैः पयोदानां पयोधीनामधः स्थितिः।।
गौरव की प्राप्ति दान से होती हैं, वित्त के संचय से नहीं। निरन्तर वर्षा आदि का दान करने से बादलों की स्थिति ऊपर होती हैं और जल का संग्रह करने वाले सागरों की स्थिति नीचे रहती है।
12. द्वारं द्वारमटन्तीह भिक्षुकाः पात्रपाणयः।
दर्शयन्त्येव लोकानामदातुः फलमीदृशम्।।
भिक्षा का पात्र हाथ में लिए हुए भिक्षुक लोग दरवाजे-दरवाजे घूमते हुए लोगों को यही दिखाते हैं कि दान न देने का ही यह फल है। यदि पहले दान दिया होता तो आज घर-घर भटकते हुए भीख न माँगनी पड़ती, अतः जिसे भीख न माँगनी हो, उसे दान अवश्य देना चाहिये।
13. यथा वेदाः स्वधीताश्चयथा चेन्द्रियसंयमः।
सर्वत्यागो यथा चेह तथा दानमनुत्तमम्।।
जैसे वेदों का स्वाध्याय, इन्द्रियों का संयम और सर्वस्व का त्याग उत्तम हैं, उसी प्रकार इस संसार में दान भी अत्यन्त उत्तम माना गया है।
साभार - कल्याण (दानमहिमा अंक-जनवरी 2011)
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