ऊँची पहाड़ी के किनारे एक गाँव बसा था । वह पहाड़ी बहुत हरी-भरी और सुंदर दिखती थी । उसी गाँव में एक नौजवान रहता था जो उन हरियाली से लदी पहाडियों की चोटियों को अपने खेतों से ही देखता था और सोचता था कि एक दिन वह जरूर उन चोटियों पर पहुँच कर रहेगा । पर उसने सुन रखा था कि उन पर जाने के लिए रात के अंधेरे में ही निकलना पड़ेगा क्योंकि सूरज निकलने के बाद चढाई कठिन हो जाती थी, पत्थर तप जाते थे और रस्ते में प्यास बुझाने के भी उपाय नही थे । कुल मिलाकर रात का सफर ही एकमात्र आसान तरीका था ।
उसके पास एक लालटेन थी बस उसे लेकर वह हमेशा दुविधा में रहता था , उसको चिंता होती कि उसके पास जो लालटेन है उसका उजाला दो-चार क़दमों से जयादा नही होता जबकि पहाड़ कि दो मील चढाई करनी है। दो मील दूर मंजिल और दो कदम उजाला भला कैसे बात बनेगी ? इतना से प्रकाश में यात्रा करना कहाँ तक उचित होगा ? ये तो बड़ा मुश्किल लगता है यह सोचकर वह हिम्मत हार जाता ।
एक दिन वह रात्रि में उसी पहाडियों के किनारे से गुजर रहा था तो उसने देखा कि एक साधू लालटेन लिए पहाडियों से उतर रहे है ,आख़िर वो कैसे इतनी छोटी लालटेन लेकर पहाडियों पर चले गए यह जानने के लिए वह उनका बेसब्री से इन्तजार करने लगा और वो जैसे ही नीचे उतरे उसने अपनी मन कि दुविधा और चिंता बताई ।
उस नौजवान कि बातें सुनकर महात्मा जोर से हँसे और बोले ,"पागल ! तू पहले दो कदम तो चल ,जितना दिखता है उतना आगे तो बढ़ । अगर एक कदम भी दिखता है तो सारे धरती कि परिक्रमा की जा सकती है ,और तुझे तो दो कदम दिखाए देते है।
बहुत दूर के सोच-विचार में अक्सर ही निकट को खो दिया जाता है जबकि निकट ही सत्य है और निकट में ही वह छिपा रहता है जो दूर है। एक छोटे से कदम में ही बड़ी से बड़ी मंजिल का आवास होता है।
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