देव संस्कृति विश्वविद्यालय को गौरव प्राप्त है कि गंगा तट से विश्व के जन-जन को गायत्री अर्थात् सदबुद्धि का संदेश दिया जा रहा है। विश्वविख्यात सामाजिक-आध्यात्मिक संस्था शांतिकुंज उसकी पवित्र मातृसंस्था है। यह वह संस्था है जिसकी नींव युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा ‘आचार्य’ एवं उनकी सहधर्मिणी माता भगवती देवी ने अपने तप और ममत्व की ईंटों से रखी थी।
अपने हृदय का दर्द स्पष्ट करते हुए युगऋषि कहते थे, ‘लोग हमें संत, सिद्ध, ज्ञानी मानते हैं। कई लोग लेखक, वक्ता, विद्वान और नेता समझते हैं, लेकिन किसने हमारा अन्त:करण खोलकर पढ़ा, समझा है? कोई उसे देख सका होता, तो उसे मानवीय व्यथा-वेदना की अनुभूतियों की करुण कराह से हाहाकार करती एक उद्विग्न आत्मा भर इन हड्डियों के ढांचे में बैठी-बिलखती दिखाई पड़ती।’
अनंत तक विस्तारित उनकी इसी संवेदना से विकसित हुआ शांतिकुंज तथा गायत्री परिवार। जिसने परिवर्तन की तड़प लिए करोड़ों लोगों से मानवता के प्रति अपने दर्द को साझा किया। इसी के आधार पर परिकल्पना की गयी सप्तक्रांतियों की, जिनकी परिधि में साधना से लेकर कुरीति उन्मूलन तक के सभी क्षेत्र आते हैं। निश्चित ही यह दायित्व चारदीवारियों से घिरी किसी एक संस्था का नहीं हो सकता और न ही यह उसकी सामर्थ्य के अंदर है, तथापि समग्र सत्य कुछ और है। गुरुवर के शब्दों में, ‘जो कोई कहीं भी कुछ भी सृजनात्मक कर रहा है, मेरी नजर में वह गायत्री परिवार का हिस्सा है, मेरा अभिन्न अंग है। निश्चित रूप में हाथ से हाथ अगर जुड़ जायें तो सृजनात्मक परिवर्तन की गंगा को धरती पर लाने से कोई रोक नहीं सकता।’
यदि व्यक्तित्व नहीं गढ़ा गया तो परिवर्तन का सारा इंतजाम बेकार हो जाएगा। साधना का अर्थ कर्मकांड नहीं, वे तो प्रतीक मात्र हैं। साधना का अर्थ है स्वयं को साधना। शांतिकुंज में पूरे वर्ष भर नौ दिवसीय संजीवनी साधना सत्र, एकमासीय युग शिल्पी सत्र, एक मासीय परिव्राजक सत्र, त्रौमासिक युग गायन संगीत प्रशिक्षण सत्र एवं पांच दिवसीय मौन साधना सत्रों में लोग अपने व्यक्तित्व को गढ़ते हैं। शांतिकुंज में नियमित यज्ञ में भाग लेने वाले हजारों लोगों को देखकर यह बोध सहज ही हो सकता है कि किस प्रकार यहां जाति, पंथ, लिंग, धर्म आदि की दीवारें टूट चुकी हैं। लगभग अस्सी वर्ष से जल रहा अखंडदीप यहां आने वाले विभिन्न प्रांतों, धर्मों एवं भाषाओं के बोलने वालों को अपनी भांति निरंतर परहित में जीने की प्रेरणा दे रहा है।
युगऋषि द्वारा रचित पुस्तकों में जीवन का कोई भी पक्ष अछूता नहीं रहा है। इन पुस्तकों को मात्र लागत मूल्य पर शांतिकुंज के कार्यकताओं द्वारा जन-जन तक पहुंचाया जाता है। व्यक्ति निर्माण से लेकर समाज निर्माण तक, धर्म से लेकर विज्ञान तक, अतीत से लेकर भविष्य तक कोई भी विषय गुरुवर की लेखनी से नहीं छूटा है। वेदों पर लिखे उनके भाष्य से अत्यंत प्रभावित होकर ही विनोबा भावे ने उन्हें ‘वेदमूर्ति’ कहा था। इस विपुल साहित्य के प्रचार के अलावा यहा पर केंद्र तथा राज्य सरकार के विभिन्न पदाधिकारियों के लिये पांच-पांच दिनों के प्रशिक्षण शिविर आयोजित किये जाते हैं। 1982 से निरंतर शांतिकुंज से कार्यकर्ताओं की टोलियां देश के कोने-कोने के लिये निकलती हैं और धर्मतंत्र से लोकशिक्षण का महती कार्य सम्पन्न करती हैं। इसके साथ विदेशों में भी विभिन्न शिविर आयोजित किये जाते हैं। राष्ट्र को जोड़ने के लिये यहां विभिन्न भाषाओं के प्रशिक्षण की व्यवस्था है।
युगऋषि के शब्दों में ‘यदि स्वास्थ्य नहीं रहा तो आध्यात्मिक उन्नति तो दूर, शारीरिक विकास भी कल्पना बनकर रह जायेगा।’ इस हेतु शांतिकुंज द्वारा आयुर्वेद को पुनर्जीवित करने के लिये घरेलू वाटिकाओं से औषधीय पौधो लगाने पर विशेष बल दिया जा रहा है। साथ ही शांतिकुंज में जहां यज्ञ, योग आदि से स्वास्थ्य लाभ देने की व्यवस्था है, वहीं यहां एक नि:शुल्क चिकित्सालय भी निरंतर सेवारत रहकर कर्मयोग का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करता है। शांतिकुंज के जड़ी-बूटी उद्यान में 300 से भी अधिक दुर्लभ वनौषधियां हैं।
हिमालय की गोद में बसा शांतिकुंज पर्यावरण के निरंतर रक्षण के लिये सतत् सक्रिय रहता है। यज्ञों में औषधीय सामग्री के हवन से जहां निरंतर वायुमंडल पवित्र होता है, वहीं शांतिकुंज के देव संस्कृति विश्वविद्यालय द्वारा देश के कोने-कोने में पौधारोपण का अभियान चलाने की प्रेरणा दी जाती है। साथ ही पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में सक्रिय देश-विदेश की विशिष्ट विभूतियों को परिवार का प्रत्यक्ष-परोक्ष सहयोग रहता है।
जिस समाज में कभी स्त्रियों को मंत्र बोलने और सुनने पर भी प्रतिबंध था, उसी समाज में नारियों को उनकी शक्ति का अहसास दिलाने के लिए शांतिकुंज द्वारा गायत्री तीर्थ में यज्ञादि कर्मों का संचालन महिलाओं से ही कराया जाता है। वस्तुत: शांतिकुंज का शुभारंभ ही 1968-69 में वंदनीया माताजी के संरक्षण में निरंतर जप में लीन कन्याओं की तप ऊर्जा के माध्यम से हुआ था। आज भी ब्रह्मवादिनी टोलियां प्रतिवर्ष देश में प्राय: पचास स्थानों पर विराट कार्यक्रम प्रस्तुत करती हैं।
राष्ट्र को सबल करने के लिये शांतिकुंज द्वारा स्वावलम्बन पर विशेष बल दिया जाता है और इसके लिये यहां मोमबत्ती निर्माण, बेकरी, साबुन निर्माण, फोटो फ्रेमिंग आदि का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। राष्ट्र को भीतर ही भीतर से शारीरिक-मानसिक एवं आर्थिक रूप से खोखला करने वाले व्यसनों के विरुद्ध शांतिकुंज विशेष रूप से सक्रिय है। यहां नित्य अनेक लोगों द्वारा प्रतिदिन यज्ञ के समय एक बुराई छोड़ने का संकल्प लिया जाता है। इसके अतिरिक्त शांतिकुज प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सामाजिक परिवर्तन की कई सार्थक गतिविधियों से जुड़ा है। यहां के विशाल भोजनालय में प्रतिदिन देश-विदेश के कोने-कोने से आये विभिन्न जाति-धर्म-पंथ के नर-नारी साथ-साथ भोजन कर सहज आत्मीयता का बोध करते हैं।
देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार के दूसरे दीक्षान्त समारोह में तत्कालीन राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने कहा था, ‘मुझे यह जानकार अत्यंत प्रसन्नता हुई है कि एक दिव्य संस्कृति के विकास के लिये यह विश्वविद्यालय स्थापित किया गया है। ऐसे समय में जब हम भारत को समृद्ध, खुशहाल और शांतिपूर्ण राष्ट्र के रूप में बदलने की राह पर अग्रसर हैं, इस विश्वविद्यालय का हमारे देश में विशेष महत्व है।’ उन्होंने आगे कहा, ‘मुझे ज्ञात है कि इस विश्वविद्यालय ने स्वतंत्राता सेनानी और लगभग तीन हजार पुस्तकों के लेख पं. श्रीराम शर्मा ‘आचार्य’ के स्वप्न को साकार रूप दिया है। आचार्यश्री को भारत में ज्ञान क्रांति का प्रवर्तक कहना उपयुर्क्त होगा।’
डा. कलाम ने देव संस्कृति विश्वविद्यालय की जरूरत को रेखांकित करते हुए कहा, ‘विद्यार्थी सामाजिक परिवर्तन के लिये विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय की दिशा में भी कार्य कर सकते हैं, जो आचार्यश्री का स्वप्न था। धर्म के बेहतरीन तत्वों को अध्यात्म में परिवर्तित करने से ही समाज को बेहतरीन रूप दिया जा सकता है। शिक्षा वास्तव में सत्य की खोज है। ज्ञान और जागरूकता के माध्यम से कभी न खत्म होने वाली एक महत्वपूर्ण यात्रा। मुझे भरोसा है कि देव संस्कृति विश्वविद्यालय भविष्य में इन लक्ष्यों को पाने में अवश्य ही सफल होगा।’
-आशुतोष कुमार सिंह
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