मंगलवार, 30 जून 2009

मनुष्य

1) मानव कर्म से ब्राह्मण होता हैं, कर्म से क्षत्रिय होता हैं, कर्म से वैश्य होता हैं, और कर्म से शुद्र होता है।
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2) मानव की सबसे बडी आवश्यकता शिक्षा नहीं, चरित्र हैं और यहीं उसका सबसे बडा रक्षक है।
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3) मानव मात्र एक समान, एक पिता की सब सन्तान।
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4) मानवी गरिमा के प्रति आस्था को ही आस्तिकता कहते हैं।
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5) मानवीय मूल्यो की दृढ अवधारणा एवं स्थापना में मानव कल्याण निहित हैं।
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6) मानवीय मूल्यों में तुलसीदास जी ने लोकहित को सर्वोच्च मान्यता प्रदान की है।
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7) मानवता के अनन्य पुजारी, ब्रह्म ऋषि, गायत्री माता के वरद पुत्र, प्राणि मात्र के सहज सहचर, युगपुरुष, युगदृष्टा, युगप्रर्वतक, विश्वबन्धुत्व एवं विश्वशान्ति के समर्थक-पोषक, अभिनव विश्वामित्र, वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ परमपूज्य गुरुदेव पं श्रीरामशर्मा आचार्य के श्रीचरणों में सादर नमन्।
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8) किसी भी वेद, पुराण, बाइबिल, कुरान में रेगिस्तान नाम का शब्द नहीं मिलता हैं, यह सभ्य मानवों की देन है।
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9) जितना हमे मॉंगने में उत्साह हैं, उससे हजार गुना देने में उत्साह भगवान को और महामानवों को होता हैं। कठिनाई एक पडती हैं, सदुपयोग कर सकने की पात्रता विकसित हुयी है या नही।
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10) निराशा वह मानवीय दुर्गण हैं, जो बुद्धि को भ्रमित कर देता है।
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11) भाषा और मानव का विकास एक दूसरे का पूरक हैं। भाषा जितनी उन्नत होगी, सभ्यता उतनी ही विकसित होगी।
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12) भूल करना मानव की सहज प्रवर्ति हैं और भूल सुधार मानवता का परिचायक है।
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13) भलाई चाहना पशुता हैं, भलाई करना मानवता है, भला होना दिव्यता है।
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14) सर्वोत्तम मानवीय मूल्य - अभय, तप, सत्य, अहिंसा, सरलता, त्याग, शान्ति , दया, क्षमा, धैर्य एवं तेज है।
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15) देव संस्कृति वही कहाती, जो मानव में देवत्व जगाती।
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16) वीरता के साथ जब बुद्धि नहीं रह जाती तो मानव, मानव न रहकर भेड़िया बन जाता है।
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17) चरित्र का अर्थ हैं-महान् मानवीय उत्तरदायित्वों की गरिमा समझना और उसका हर कीमत पर निर्वाह करना।
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18) जाति वर्ग का नहीं महत्व, मानवता हैं असली तत्व।
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19) जो न पूर्ति अपनी कर पाते, वे मानव नर पशु कहाते।
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20) अब तक का इतिहास बताता, मानव हैं निज भाग्य विधाता।
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21) अल्पभाषी सर्वोत्तम मानव है।
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22) कल्पना मानवीय चेतना की दिव्य क्षमता हैं। यही वह शक्ति हैं, जिसके प्रयोग से मनुष्य देह-बन्धन में रहते हुए भी असीम और विराट तत्त्व से संपर्क कर पाता है। इसी के उपयोग से उसके जीवन में नई अनुभूतियों के द्वार खुलते है, चेतना में नवीन आयाम उद्घाटित होते है। इन्हीं से नवसृजन के अंकुर फूटते है। कलाओं की सृष्टि होती है, अनुसंधान की आधारशिला रखी जाती है। उपलब्धियॉं लौकिक हो या अलौकिक, इनके पथ पर पहला पग कल्पनाओं के बलबूते ही रखा जाता है।
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23) भीतर से हर व्यक्ति के अन्दर देवत्व भरा पडा हैं, आवश्यकता मात्र उसे उभारने की है। मनुष्य का स्वाभाविक रुझान ही उत्कृष्टतापरक हैं। वह भटका हुआ देवता हैं, उठा हुआ पशु नहीं।
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24) भूल सभी से हो जाती हैं, पर उस भूल को स्वीकार करना और उसका प्रायश्चित करना यह तथ्य किसी भी मनुष्य की महानता का सबसे बडा प्रमाण है।

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