१-
सीत हरत, तम हरत नित, भुवन भरत नहि चूक।
रहिमन तेहि रबि को कहा, जो घटि लखै उलूक।।
२-
समय-लाभ सम लाभ नहिं, समय-चूक सम चूक।
चतुरन-चित रहिमन लगी, समय-चूक ही हूक।।
३-
रहिमन बहु भेषज करत, ब्याधि न छाड़त साथ।
खग मृग बसत अरोग बन, हरि अनाथ के नाथ।।
४-
रहिमन तीन प्रकार तें, हित अनहित पहिचान।
पर-बस परे, परोस बस, परे मामला जान।।
५-
रन बन ब्याधि बिपत्ति में, रहिमन मरै न रोय।
जो रक्षक जननी-जठर, सो हरि गये कि सोय।।
६-
यह रहीम निज संग लै, जनमत जगत न कोय।
बैर प्रीति अभ्यास जस, होत होत ही होय।।
७-
पावस देखि रहीम मन, कोकिल साधै मौन।
अब दादुर बक्ता भये, हमको पूछत कौन।।
८-
रहिमन तहां न जाइये, जहां कपट को हेत।
हम तो ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत।।
९-
रहिमन कठिन चितान तैं, चिन्ता को चित चेत।
चिता दहति निर्जीव को, चिन्ता जीव समेत।।
१०-
रहिमन प्रीति सराहिये, मिलै होत रंग दून।
ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून।।
११-
जाकी जैसी बुद्धि है, वैसी कहै विचारि।
ताको बुरा न मानिये, लेन कहां सू जाय।।
१२-
अब रहीम मुश्किल पड़ी, गाढ़े दोऊ काम।।
सांचे ते तो जग नहीं, झूठे मिलै न राम।।
१३-
रहिमन तब लगि ठहरिये, दान मान सनमान।
घटत मान देखिय जबहिं, तुरतहि करिय पयान।।
१४-
कमला थिर न रहीम जग, यह जानत सब कोय।
पुरुष पुरातन की बहू, क्यों न चंचला होय।।
१५-
छिमा बड़न को चाहिये, छोटन को उतपात।
कह रहीम हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात॥
१६-
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥
१७-
खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।
रहिमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान॥
१८-
आब गई आदर गया, नैनन गया सनेहि।
ये तीनों तब ही गये, जबहि कहा कछु देहि॥
१९-
खीरा सिर ते काटिये, मलियत नमक लगाय।
रहिमन करुये मुखन को, चहियत इहै सजाय॥
२०-
चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछु नहि चाहिये, वे साहन के साह॥
२१-
रहिमन वे नर मर गये, जे कछु माँगन जाहि।
उनते पहिले वे मुये, जिन मुख निकसत नाहि॥
२२-
रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर॥
२३-
रहिमह ओछे नरन सो, बैर भली ना प्रीत।
काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँति विपरीत॥
२४-
रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून॥
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