शुक्रवार, 25 मार्च 2011

अध्यात्मवादी चिन्तन

वास्तव में न तो नीत्शे का व्यक्तिवाद ही व्यावहारिक है और न ही मार्क्स का समाजवाद । उनमें से प्रथम व्यक्ति को ही सब कुछ मानता है । द्वितीय समाज को, किन्तु व्यावहारिकता की कसौटी दोनों को ही असफल सिद्ध करती है ।

एकमात्र अध्यात्मवादी चिन्तन ही ऐसा है जो इन दोनों के मध्य सुरुचिपूर्ण ढंग से सामंजस्य का संस्थापन करता है, जहाँ वैयक्तिक उन्नति की ऊँचाईयों को आत्मा के शीर्षस्थल पर ले जाता है, वहीं यह भी उपदिष्ट करता है कि व्यक्ति और कुछ नहीं समष्टि का एक अभिन्न अंश है ।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
वांग्मय क्र. ५३ धर्म तत्त्व का दर्शन और मर्म -६.७

Spiritually thinking.....

Both Nietzsche’s individualism and Marx’s socialism are impractical.

One of them regards an individual to be the "be all and end all" of all creation. Second one thinks of society as being the most important one.

But both fail when we evaluate them practically.

Only spiritual thinking can elegantly bridge the divide between these two viewpoints.

Spiritual thinking gives an individual the right to be free and achieve perfection, in the image of a most pious, holy and perfect soul. At the same time thinks of an individual as being an indivisible part of the society.

-Pt. Shriram Sharma Acharya
Translated from
The Complete Works of Pandit Shriram Sharma Acharya Vol. 53
(Essence of Dharma and Its Significance) page 6.7

संतोष का अर्थ

सन्तोष - एक वृत्ति है तथा सुख और शान्ति उसका परिणाम, किन्तु दुर्भाग्यवश हमारे यहाँ सन्तोष का अर्थ आलस्य और प्रमाद माना जाता है । आलस्य और प्रमाद तो तमोगुण के लक्षण हैं जबकि सन्तोष सतोगुण से उत्पन्न होता है ।

सन्तोष का अर्थ यह नहीं है कि हम हाथ पर हाथ रखकर बैठ जायें और गाने लगें 'अजगर करै न चाकरी पंछी करै न काम' वास्तव में सन्तोष का अर्थ है प्रगति पथ पर धैर्य पूर्वक चलते हुए मार्ग में आने वाले कष्टों और कठिनाईयों का प्रभाव अपने ऊपर न पड़ने देना । संसार के कांटे हम नहीं बीन सकते किन्तु यदि हमने सन्तोष रूपी जूते पहन रखे हैं, तो कोई भी कांटा हमारे मार्ग में बाधक नहीं बन सकता ।

हम अपनी शक्ति भर अपनी सर्वांगीण उन्नति के लिए प्रयास करें तथा हर परिस्थिति का दृढ़ता पूर्वक मुकाबला करें तथा हर समय मानसिक शान्ति बनाये रखें यही सन्तोष है ।

लोग कामनाओं की पूर्ति से सन्तोष पाना चाहते हैं किन्तु यह मार्ग गलत है । वह तो कामनाओं को समाप्त करने से ही मिलता है ।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
वांग्मय क्र. ३१ - संस्कृति- संजीवनी श्रीमदभागवत एवं गीता ५.१०

Contentment, the meaning of...

To be content is a human trait, bliss and peace are its outcomes. But unfortunately we mistake idleness and negligence to be the synonyms for contentment. Idleness and negligence are the signs of TamoGun 12 where as Contentment is born of SatoGun 1 2 3.

Then what does it mean to be content? To be content does not mean that we sit idle, hum to idle tunes and be blissfully unaware of realities.

To be content is to walk, tread patiently towards our goal and be immune to all the difficulties that shall obstruct us. We cannot get rid of all the thorns [difficulties] in this world; but if we are wearing the shoes of contentment, none of them will impede our progress.

Being content is to, try our utmost best for our holistic betterment, in every possible situation stand resolute; face the circumstances boldly and at all the times maintain our mental balance and peace of mind.

People try to achieve contentment by satisfying their desires, but this is the wrong way. Contentment can only be got by the elimination of desires.

- Pt. Shriram Sharma Acharya
Translated from
The complete works of Pt. Shriram Sharma Acharya
(Saṁsṛti saṅjivanī Śrīmad-Bhāgwata evam Gītā) - Vol 31 Pg 

मस्तिष्क वृक्ष की जड़ों के समान


गीता में मनुष्य की तुलना एक ऐसे पीपल के वृक्ष के साथ की है जिसकी जड़ें ऊपर और शाखाए पत्ते नीचे हैं । मस्तिष्क ही जड़ है और शरीर उसका वृक्ष । वृक्ष का ऊपर वाला भाग दिखाई पड़ता हैए जड़ें नीचे जमीन में दबी होने से दिखाई नहीं पड़तींए पर वस्तुत: जड़ों की प्रतिक्रियाए छायाए प्रतिध्वनि की परिणति ही वृक्ष का दृश्यमान कलेवर बनकर सामने आती है । जड़ों को जब पानी नहीं मिलता और वे सूखने लगती हैं, तो पेड़ का दृश्यमान ढॉंचा मुरझाने कुम्हलाने, सूखने और नष्ट होने लगता है । जड़ें गहरी घुसती जाती हैंए खाद, पानी पाती हैं तो पेड़ की हरियाली और अभिवृद्धि देखते ही बनती है । मनुष्य की स्थिति बिल्कुल यही है । विचारणाएँ उसकी जड़ें हैं । 


चिन्तन का स्तर जैसा होता है, आस्थाएं और आकांक्षाएँ जिस दिशा में चलती हैं, बाह्य परिस्थितियॉं बिलकुल उसी के अनुरूप ढलती हुई चलती हैं । आन्तरिक दरिद्रता ही बाहर की दरिद्रता बनकर प्रकट होती रहती है । विद्या और ज्ञान की कमी विशुद्ध रूप से जिज्ञासा का अभाव ही है । प्रसन्न और संतुष्ट रहना तो केवल उनके भाग्य में बदा होता है जो उपलब्ध साधनों से सन्तुष्ट रहना और उनका सदुपयोग करना जानते हैं । 


युग निर्माण योजना, दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम ६६ ;१.८ 

मानव जीवन को प्रभावित करने वाले दो आधार

धर्मतंत्र और राजतंत्र दो ही मानव जीवन को प्रभावित करने वाले आधार हैं । एक उमंग पैदा करता है तो दूसरा आतंक प्रस्तुत करता है । राजतंत्र जनसाधारण के भौतिक जीवन को प्रभावित करता है और धर्मतंत्र अन्तकरण के मर्मस्थल को स्पर्श करके दिशा और दृष्टि का निर्धारण करता है । दोनों की शक्ति असामान्य है । दोनों का प्रभाव अपने अपने क्षेत्र में अद्भुत है । 

दोनों की तुलना यहाँ इस दृष्टि से नहीं की जा रही कि इसमें कौन कमजोर है, कौन बलवान. कौन महत्त्वपूर्ण है, कौन निरर्थक । दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । दोनों का क्षेत्र बॅंटा हुआ होते हुए भी वस्तुत: एक के द्वारा दूसरे के सफल प्रयोजन होने में सहायता मिलती है । दोनों एक दूसरे की विपरीत दिशा में चलें तो जनसाधारण को हानि ही उठानी पड़ती है । 

राजसत्ता अपने हाथ में नहीं, वह दूसरों के हाथ में है । धर्म और राजनीति का समन्वय हो सका तो उसका परिणाम अति सुखद होता, पर आज की स्थिति में वह कठिन है । भले ही दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, फिर भी धर्मतंत्र का महत्व राजतंत्र से ऊपर ही है, क्योंकि अन्तरंग जीवन के अनुरूप ही भौतिक परिस्थिति में हेर-फेर होता है । अस्तु, भावनात्मक नवनिर्माण के लिए हमें राजसत्ता का सहारा टटोलने की अपेक्षा धर्मसत्ता का ही आश्रय लेना चाहिए । सरकार को अपने अन्य भौतिक उत्तरदायित्व निर्वाहों के लिए छुट्टी देनी चाहिए । हमें जनमानस को स्पर्श करने के लिए विशेष रूप से धर्मसत्ता का ही उपयोग करना होगा । उसके माध्यम से जनभावनाओं को जगाया, मोड़ा, सुधारा और उठाया जा सकता है । संसार को पलटकर रख देने वाले महामानव धर्मक्षेत्र के उद्यान में ही उपजे हैं । 

युग निर्माण योजना, दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम ६६ (१-१)

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