बुधवार, 13 जुलाई 2011

भगवान की भाषा प्रेम की हैं।

1) भीतरी दोषो को दूर करो।
---------------
2) भरे बादल और भरे वृक्ष नीचे झुकते हैं, सज्जन ज्ञान और धन पाकर विनम्र बनते है।
---------------
3) भाषा से शिष्टता एवं विनय कभी नहीं छोडनी चाहिये।
---------------
4) भाषा और मानव का विकास एक दूसरे का पूरक हैं। भाषा जितनी उन्नत होगी, सभ्यता उतनी ही विकसित होगी।
---------------
5) भारत एक आध्यात्मिक राष्ट्र हैं। यहा के राष्ट्रीय जीवन की समस्याओं का समाधान , भावी चुनौतियों का उत्तर आध्यात्मिक आंदोलनो से ही निकलेगा। आध्यात्मिक जागरण भारत में राष्ट्रीय जागरण की पहली और अनिवार्य शर्त हैं। भारतीय समाज का सामुहिक मन आध्यात्मिकता में रचता-बसता है।
---------------
6) भारत की नारी जैसी दुनिया भर में नाहीं, कोई मंगल काम हो नारी बिन हो नाहीं।
---------------
7) भावना का परिष्कार ही वस्तुतः आत्मबल का अभिवर्द्धन करता है।
---------------
8) भोजन करके करिये मूत्र, गुर्दा स्वस्थ रहे ये सूत्र।
---------------
9) भोजन स्वास्थ्य की जरुरत हैं, स्वाद की नहीं।
---------------
10) भोगने से भोग की इच्छा शांत नहीं, प्रज्वलित ही होती है।
---------------
11) भाग्य एक कोरा कागज हैं उस पर जो चाहों सो लिख सकते हो।
---------------
12) भाग्य पर वह भरोसा करता हैं जिसमें पौरुष नहीं होता है।
---------------
13) भाग्य पर नहीं चरित्र पर निर्भर रहो।
---------------
14) भाग्योदय के लिए सबसे अच्छा अवसर यही हैं कि अपने जीवन की एक-एक घड़ी का ठीक उपयोग किया जाए।
---------------
15) भागवत में ज्ञान और वैराग्य को भक्ति के बेटे कहा है।
---------------
16) भूल करना मानव की सहज प्रवृत्ति हैं और भूल सुधार मानवता का परिचायक है।
---------------
17) भूल सभी से हो जाती हैं, पर उस भूल को स्वीकार करना और उसका प्रायश्चित करना यह तथ्य किसी भी मनुष्य की महानता का सबसे बडा प्रमाण है।
---------------
18) भूल सुधार मनुष्य का सबसे बडा विवेक है।
---------------
19) भूल तब होती हैं, जब उपेक्षा होती है।
---------------
20) भूले वे हैं जो अपराध की श्रेणी में नहीं आती, पर व्यक्ति के विकास में बाधक है।
---------------
21) भगवान यदि आता हैं तो वह श्रेष्ठ चिन्तन के रुप में ही आता है।
---------------
22) भगवान कृष्ण ने कहा हैं, सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।। अर्थात् हे अर्जुन ! यह सृष्टि श्रद्धा से विनिर्मित है। जिसकी जैसी श्रद्धा होती है वह पुरुष वैसा ही बन जाता हैं अर्थात् बुराइयों के प्रति श्रद्धा व्यक्ति को समस्याओं में कैद कर देती हैं, तो आदर्शों के प्रति श्रद्धा मनुष्य जीवन को सुख-शान्ति और प्रसन्नता से भर देती हैं। श्रद्धा में ही व्यक्तित्व के परिष्कार की वास्तविक सामर्थ्य है।
---------------
23) भगवान की भाषा प्रेम की हैं।
---------------
24) भगवान की समीपता के लिये शुद्ध चरित्र आवश्यक है।

कोई टिप्पणी नहीं:

LinkWithin

Blog Widget by LinkWithin