रविवार, 6 मार्च 2011

अंतदृर्ष्टि जागी-चैतन्य हो गए

समस्याएँ अनेक हैं । विग्रहों, संकटों, का जखीरा इतना बड़ा है कि उसे बाहर से देखने वाले की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाए, किन्तु जिसे अंतदृर्ष्टि प्राप्त हो, वह आसानी से जान सकता है कि इस सबकी जड़ में निष्ठुरता है, इसके हटने पर ही समस्याएँ निपटेंगी । यहीं अंतदृर्ष्टि प्राप्त हुई विश्वंभर मिश्र को और वह 'चैतन्य' हो गए ।
उन दिनों वे गयाधाम आए हुए थे । निमाई के साथ उनकी कीर्ति भी आई । उन्हें देखते ही लोग कहते-''अरे, तो ये नवद्वीप के वही निमाई हैं, जिनके पांडित्य का लोहा समूचा बंगाल मानता है । अभी पिछले दिनो इन्होंने कश्मीरी पंडित को ऐसा पछाड़ा कि उसे भागते ही बना । शास्त्रार्थ में इनकी कोई सानी नहीं ।'' जितने मुँह-उतनी बातें और निमाई इन सबके बीच में एकरस थे । प्रशंसकों की चापलूसी और निंदकों के कटाक्ष प्रसिद्धि पर पहुँचे हुए व्यक्ति की संपदा हैं । इससे अधिक कोई और कुछ देगा भी क्या! 


गयाधाम में रह रहे संत ईश्वरपुरी ने ये सभी किस्से सुने । सुनी हुई बातें यद्यपि अधिकांशतः अतिरंजित होती हैं फिर भी उन्होंने अनुमान लगाया अवश्य उसके पास प्रतिभा होगी । यदि वह प्रतिभा भाव-श्रद्धा के साथ जुड़ जाए तो? इस सोच ने उन्हें चल पड़ने के लिए विवश कर दिया । रास्ते भर सोचते जा रहे थे-''तो वह लोगों का जीवन सँवारने के साथ अनेकों को राह सुझा सकेगा? प्रतिभा शरीर और मन की चरम सक्रियता है । भाव-श्रद्धा से न जुड़ पाने के कारण यह अहंकार की चाकरी करती है और जैसे भी अहं का झंडा ऊँचा रहे, विलासिता-वैभव के सरंजाम जुटें, वही करती रहती है । उन्नत भावों से जुड़ने पर तो सारी स्थिति ही उलट जाती है । फिर तो अंदर की तड़पन और बेचैनी उसे 'सवर्जन हिताय-सवर्जन सुखाय' हेतु क्रियाशील होने के लिए विवश करती है ।'' 


रास्ते भर यही चिंतन चलता रहा-कब उनके डेरे के पास आ पहुँचे-पता ही नहीं चला । ,एक से पूछा -''बंगाल के निमाई यहीं ठहरे हैं?'' 
जवाब मिला-''पास वाले डेरे में हैं ।'' 


अंदर जाने पर देखा-एक गौरवर्ण का युवक शास्त्रचर्चा कर रहा है । 
वे भी एक कोने में बैठ गए । चर्चा चलती रही । चर्चा समाप्त होने पर उनको छोड़कर एक-एक करके सभी चले गए । चर्चा कर रहे युवक ने उनकी ओर देखकर पूछा-''आपका प्रयोजन?'' ''एक जिज्ञासा है!'' ''कहिए ।'' 


''क्या सचमुच आप शास्त्र का अर्थ जानते हैं?'' 
सुनने वाले का अंतर हिल उठा! 
पूछा-''क्या मतलब?'' 
''बुरा न माने -मेरा मतलब यह है कि आपकी ये व्याख्याएँ बुद्धि-कौशल हैं अथवा इनके साथ आपकी अनुभूतियाँ भी जुड़ी हैं?'' 


सुनने वाला चुप था-आज पहली बार किसी ने उसकी बुद्घि को फटकारा था । 
''गोरी, गजनी, ऐबक ने भारत-भूमि को न जाने कितना कुचला!  आज, जबकि मनुष्य का आत्म-विश्वास खो गया है, वह भूल गया है कि वह भी कुछ अच्छा कर सकता है, औरों के अनीति-अन्याय को देखकर उसने उन्हें स्वीकार करना शुरू कर दिया है, ऐसे में भी कौशल केवल वाक् को लेकर व्यस्त है । क्या यह विडंबना नहीं है?'' संत के उद्गार वाणी से फूट पड़े । 


गौरवर्ण के युवक ने महसूस किया कि यह वाक्य-रचना सिर्फ एक साथ गुँथे हुए वजनदार शब्द नहीं है वरन् इसके पीछे संत की पीड़ा है-तड़प है । शब्दों ने उसके अंतर को मथ दिया । श्मशान में जलती लाशों को देखकर दूसरों को भी अपनी मौत याद आने लगती है । विवाह के सरंजाम देखकर जिंदगी की रंगीनी सूझती है । इसी तरह जिसके अंतर में मानवता के प्रति तड़प है, जिसका हृदय रह-रहकर मनुष्यता के लिए चीत्कार कर उठता है, वही दूसरों में ऐसी दशा उत्पन्न कर सकता है । युवक की आँखों पर छाया हुआ झूठे पांडित्य का मोतियाबिंद छटने लगा था । उसे कहने के लिए विवश होना पड़ा- ''आप ठीक कहते हैं, पर उपाय क्या है? '' 


'' मनुष्य को उसकी खोई हुई मनुष्यता ढूँढ़ कर देनी होगी, उसके मर्म को स्पर्श करना पड़ेगा । भाव-चेतना के न रहने पर जीवित मनुष्य भी लाश है, जो स्वयं सड़ती और वातावरण को घिनौना बनाती है । उसके रहने पर ही मनुष्य समर्थ और सुंदर बनता है-पीड़ा और पतन ही है-अकमर्ण्यता और निष्ठुरता । उसे पास बैठे लोंगो का करुणा विलाप भी नहीं सुनाई देता । आज चारों ओर ऐसे ही मुरदों की भरमार है । इन्हें जीवित कर सकोगे?'' 
''कैसे?'' 
'' भाव-श्रद्धा को जगाकर ।'' 


''पर जब समस्याएँ बुद्धि की हैं तो समाधान भी बुद्धि के होने चाहिए? कहते हैं-लोहे को लोहा काटता है ।'' 
''ठीक कहते हो-पर गरम लोहे को ठंडा लोहा काटता है । दुर्बुद्धि दाहक-तप्त लोहा है तो भाव इन्हें परिमार्जित, सुडौल और कामलायक बनाने वाला शीतल लोहा, यही एकमात्र निदान है ।'' 


निमाई एक-एक शब्द को पी रहे थे । उनके मुख से निकला-''आज शास्त्रों का मर्म पता चला । अब तक मैं मुरदा था-आपने मुझे चैतन्य बना दिया ।'' गुरु-चरणों की धूल मस्तक पर लगाई । गुरु-शिष्य, दोनों के हृदय भरे थे । अब एक का दरद दूसरे का दरद था । 


नदिया वापस लौटे। उनके जीवन का कायपलट देखकर सभी आश्चर्यचकित थे-अरे, यह क्या! एक दिन रास्ते में एक कोढ़ी दिखा-उपेक्षित-तिरस्कृत, सभी मुँह मोड़कर चले जा रहे थे । चैतन्य को गुरुवाणी याद आई -''मुरदों को औरों का विलाप नहीं सुनाई पड़ता- दूसरों के कष्ट नहीं दिखाई पड़ते ।'' प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या? विश्वास हुआ-सचमुच ये मुरदे हैं । उन्होंने कोढ़ी को उठाया, घाव धोए, औषधि लगाई । सेवा-कार्य के साथ ही संकीर्तन-मंडल गठित करने शुरु किए-मुरदों में प्राण-संचार करने के लिए । एक चैतन्य ने अनेकों में चेतना जगाई । जो दूसरे जगे, उन्होंने औरों में चेतना का संचार किया । निमाई के साथ निताई, श्रीवास, गदाधर जैसे अनेक आ मिले । शक संवत् १४५५ तक उनके प्रयास चलते रहे । सबको स्वीकार करना पड़ा -भाव-श्रद्धा के प्रकाश में ही मनुष्य अपनी खोई मनुष्यता ढूँढ़ सकता है । 


खोई मनुष्यता मिल गई, ऐसों की एक ही पहचान है-मनुष्य वही, जो मनुष्य के लिए मरे । यों करते तो सभी हैं, पर सारा जीवन ईट-पत्थर, कंकड़ कागज बटोरते । इन्हें भूत-पलीत कहा जाए तो कोई गैर नहीं । ये श्मशान-कब्रिस्तान में जगह घेरकर बैठ जाते हैं और उधर से निकलने वालों को डराते-भगाते रहते हैं । आदमी भला ऐसी हरकतें क्यों करेगा? संवेदनाहीनों ही दशा प्रेतों जैसी और संवेदनशीलों की स्थिति जीते-जागते आदमियों की-सी है । इनमें से किसका चुनाव करें-यह हमारे ऊपर है । 

-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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