मंगलवार, 3 अगस्त 2010

महान ऋषि अष्टावक्र

अष्टावक्र दुनिया के प्रथम ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने सत्य को जैसा जाना वैसा कह दिया। न वे कवि थे और न ही दार्शनिक। चाहे वे ब्राह्मणों के शास्त्र हों या श्रमणों के, उन्हें दुनिया के किसी भी शास्त्र में कोई रुचि नहीं थी। उनका मानना था कि सत्य शास्त्रों में नहीं लिखा है। शास्त्रों में तो सिद्धांत और नियम हैं, सत्य नहीं, ज्ञान नहीं। ज्ञान तो तुम्हारे भीतर है। अष्टावक्र ने जो कहा वह 'अष्टावक्र गीता' नाम से प्रसिद्ध है।

ओशो कहते हैं, 'अष्टावक्र समन्वयवादी नहीं हैं, सत्यवादी हैं। सत्य जैसा है वैसा कहा है, बिना किसी लाग-लपेट के। सुनने वाले की चिंता नहीं है। सुनने वाला समझेगा, नहीं समझेगा इसकी भी चिंता नहीं। सत्य का ऐसा शुद्धतम वक्तव्य न पहले कहीं हुआ, न फिर बाद में कभी हो सका।'

अष्टावक्र पहले ऐसे व्यक्ति थे जिनकी श्रेणी में सुकरात, मंसूर और जे. कृष्‍णमूर्ति को रखा जा सकता है। इन्हें हम धर्म के विरुद्ध वक्तव्य नहीं कहेंगे बल्कि ये ऐसे लोग रहे हैं जिन्होंने धर्म के मर्म और सत्य को अपने तरीके से जाना। यह किसी परम्परा के कभी हिस्से नहीं रहे। यही कारण रहा कि दुनिया में इनकी चर्चा कम ही हुई है। आओ जानते हैं कि कौन थे अष्टावक्र।

पहली कहानी :
अष्टावक्र की माता का नाम सुजाता था। उनके पिता कहोड़ वेदपाठी और प्रकांड पंडित थे तथा उद्दालक ऋषि के शिष्य और दामाद थे। राज्य में उनसे कोई शास्त्रार्थ में जीत नहीं सकता था। अष्टावक्र जब गर्भ में थे तब रोज उनके पिता से वेद सुनते थे। एक दिन उनसे रहा नहीं गया और गर्भ से ही कह बैठे- 'रुको यह सब बकवास, शास्त्रों में ज्ञान कहाँ ? ज्ञान तो स्वयं के भीतर है। सत्य शास्त्रों में नहीं स्वयं में है। शास्त्र तो शब्दों का संग्रह मात्र है।'

यह सुनते ही उनके पिता क्रोधित हो गए। पंडित का अहंकार जाग उठा, जो अभी गर्भ में ही है उसने उनके ज्ञान पर प्रश्नचिह्न लगा दिया। पिता तिलमिला गए। उन्हीं का वह पुत्र उन्हें उपदेश दे रहा था जो अभी पैदा भी नहीं हुआ। क्रोध में अभिशाप दे दिया- 'जा...जब पैदा होगा तो आठ अंगों से टेढ़ा होगा।' इसीलिए उनका नाम अष्टावक्र पड़ा।

पिता ने क्रोध में शरीर को विक्षप्त कर दिया। उन्हें जरा भी दया नहीं आई। ऐसे पिता के होने का क्या मूल्य, जो अपने पुत्र को शाप दे। अष्टावक्र का कोई बहुत बड़ा अपराध नहीं था। उन्होंने तो अपना विचार ही प्रकट किया था, लेकिन इससे यह सिद्ध होता है कि लोग अपने-अपने शास्त्रों के प्रति कितने कट्टर होते हैं।

पिता के इस शाप के बावजूद अष्टावक्र पिताभक्त थे। जब वे बारह वर्ष के थे तब राज्य के राजा जनक ने विशाल शास्त्रार्थ सम्मेलन का आयोजन किया। सारे देश के प्रकांड पंडितों को निमंत्रण दिया गया, चूँकि अष्टावक्र के पिता भी प्रकांड पंडित और शास्त्रज्ञ थे तो उन्हें भी विशेष आमंत्रित किया गया। जनक ने आयोजन स्थल के समक्ष 1000 गायें बाँध ‍दीं। गायों के सींगों पर सोना मढ़ दिया और गले में हीरे-जवाहरात लटका दिए और कह दिया कि जो भी विवाद में विजेता होगा वह ये गायें हाँककर ले जाए। 

संध्या होते-होते खबर आई कि अष्टावक्र के पिता हार रहे हैं। सबसे तो जीत चुके थे ‍लेकिन वंदनि (बंदी) नामक एक पंडित से हारने की स्थिति में पहुँच गए थे। पिता के हारने की स्थिति तय हो चुकी थी कि अब हारे या तब हारे। यह खबर सुनकर अष्टावक्र खेल-क्रीड़ा छोड़कर राजमहल पहुँच गए। अष्टावक्र भरी सभा में जाकर खड़े हो गए। उनका आठ जगहों से टेढ़ा-मेढ़ा शरीर और अजीब चाल देखकर सारी सभा हँसने लगी। अष्टावक्र यह नजारा देखकर सभाजनों से भी ज्यादा जोर से खिलखिलाकर हँसे।

जनक ने पूछा, 'सब हँसते हैं, वह तो मैं समझ सकता हूँ, लेकिन बेटे, तेरे हँसने का कारण बता?

अष्टावक्र ने कहा, 'मैं इसलिए हँस रहा हूँ कि इन चमारों की सभा में सत्य का निर्णय हो रहा है, आश्चर्य! ये चमार यहाँ क्या कर रहे हैं।'

सारी सभा में सन्नाटा छा गया। सब अवाक् रह गए। राजा जनक खुद भी सन्न रह गए। उन्होंने बड़े संयत भाव से पूछा, 'चमार!!! तेरा मतलब क्या?'

अष्टाव्रक ने कहा, 'सीधी-सी बात है। इनको चमड़ी ही दिखाई पड़ती है, मैं नहीं दिखाई पड़ता। ये चमार हैं। चमड़ी के पारखी हैं। इन्हें मेरे जैसा सीधा-सादा आदमी दिखाई नहीं पड़ता, इनको मेरा आड़ा-तिरछा शरीर ही दिखाई देता है। राजन, मंदिर के टेढ़े होने से आकाश कहीं टेढ़ा होता है? घड़े के फूटे होने से आकाश कहीं फूटता है? आकाश तो निर्विकार है। मेरा शरीर टेढ़ा-मेढ़ा है लेकिन मैं तो नहीं। यह जो भीतर बसा है, इसकी तरफ तो देखो। मेरे शरीर को देखकर जो हँसते हैं, वे चमार नहीं तो क्या हैं? 

यह सुनकर मिथिला देश के नरेश एवं भगवान राम के श्‍वसुर राजा जनक सन्न रह गए। जनक को अपराधबोध हुआ कि सब हँसे तो ठीक, लेकिन मैं भी इस बालक के शरीर को देखकर हँस दिया। राजा जनक के जीवन की सबसे बड़ी घटना थी। देश का सबसे बड़ा ताम-झाम। सबसे सुंदर गायें। सबसे महँगे हीरे-जवाहरात। सबसे विद्वान पंडित और सारे संसार में इस कार्यक्रम का समाचार और सिर्फ एक ही झटके में सब कुछ खत्म। जनक को बहुत पश्चाताप हुआ। सभा भंग हो गई।

रातभर राजा जनक सो न सके। दूसरे दिन सम्राट जब घूमने निकले तो उन्हें वही बालक अष्टावक्र खेलते हुए नजर आया। वे अपने घोड़े से उतरे और उस बालक के चरणों में गिर पड़े। कहा- 'आपने मेरी नींद तोड़ दी। आपमें जरूर कुछ बात है। आत्मज्ञान की चर्चा करने वाले शरीर पर हँसते हैं तो वे कैसे ज्ञानी हो सकते हैं। प्रभु आप मुझे ज्ञान दो।'

दूसरी कहानी : 
इसके अलावा भी किंवदंती है कि वंदनि से हार जाने के परिणामस्वरूप उनके पिता को जल में डुबो दिया गया था। पिता के न होने के कारण अष्टावक्र अपने नाना उद्दालक को अपना पिता और अपने मामा श्‍वेतकेतु को अपना भाई समझते थे। माता सुजाता द्वारा उन्हें उनके पिता का सच बताए जाने के बाद वे अपने मामा श्‍वेतकेतु के साथ वंदनि से शास्त्रार्थ करने के लिए राजा जनक की सभा में पहुँचे और उन्होंने वंदनि को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा।

राजा जनक ने उनकी परीक्षा लेने के लिए उनसे कई प्रश्न पूछे। जब अष्टावक्र ने सभी का उत्तर दे दिया तब उन्होंने वंदनि से शास्त्रार्थ की आज्ञा दी और उन्होंने वंदनि को हरा दिया। शास्त्रार्थ में वंदनि के हारने पर अष्टावक्र ने कहा कि राजन्! यह हार गया है, अतएव इसे भी मेरे पिता की तरह जल में डुबो दिया जाए।

तब वंदनि कहने लगे कि राजन! मैं वरुण का पुत्र हूँ। मैंने सारे हारे हुए ब्राह्मणों को अपने पिता के पास भेज दिया है। मैं तत्क्षण ही उन सभी को आपके समक्ष प्रस्तुत करता हूँ। वंदनि के इतना कहते ही जल में डुबोए गए सभी ब्राह्मण जनक की सभा में पुन: प्रकट हो गए, जिनमें अष्टावक्र के पिता कहोड़ भी थे।

अष्टावक्र ने अपने पिता के चरणस्पर्श किए। कहोड़ ने प्रसन्न होकर अपने पुत्र को गले लगाकर कहा कि तुम जाकर समंगा नदी में स्नान करो, उक्त स्नान से तुम मेरे शाप से मुक्त हो जाओगे।

लेकिन पहली कहानी ज्यादा सच लगती है दूसरी तो कतिपय ब्राह्मणों द्वारा लीपापोती करके बनाई गई ही ज्यादा नजर आती है।

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