मंगलवार, 7 जुलाई 2009

संत तरुणसागरजी

मध्यप्रदेश के दमोह जिले के प्रतापचंदजी और शांतिदेवी जैन के यहाँ 26 जून 1967 को बालक पवन का जन्म हुआ। पवन छठी कक्षा में प़ढ़ते वक्त स्कूल से घर जाते हुए जलेबी खाने होटल में रुके। मुँह में रसपूर्ण जलेबी अभी आई ही थी कि कानों में आवाज पड़ी 'तुम भी भगवान बन सकते हो।' पास ही के मंदिरजी में मुनिश्री पुष्पदंतसागरजी का प्रवचन चल रहा था और पवन जीवन के रस छोड़कर भगवान बनने की राह पर निकल पड़े। गुरु के पीछे-पीछे ब्रह्मचारी/क्षुल्लक/ ऐलक... ये साधुत्व के पड़ाव पार करते 20 जुलाई 1988 में राजस्थान में बने मुनिश्री 108 तरुणसागर। 

जैनत्व के दो हजार वर्ष के इतिहास में आचार्य कुंद-कुंद के बाद इतनी कठोर साधना करने वाले वे प्रथम योगी हैं। भूमि शयन, दिन में सिर्फ एक बार अंजुली में अन्न-जल ग्रहण तथा संयम से मन को साधना और कठोर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के साधुत्व के पड़ाव उन्होंने पार किए हैं।

वर्ष 2003 में इंदौर में सरकार द्वारा मुनिश्री को 'राष्ट्रसंत' की उपाधि से विभूषित किया गया। मप्र, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र ने उन्हें राजकीय अतिथि का सम्मान दिया। टीवी के माध्यम से भारत सहित 22 देशों में अहिंसामयी 'महावीर-वाणी' का प्रसारण करने वाले वे प्रथम जैन संत हैं। 

दिल्ली के लालकिले से उन्होंने 1 जनवरी 2000 को नई सदी की पहली सुबह को गोहत्या और पशु मांस निर्यात के खिलाफ अहिंसात्मक राष्ट्रीय आंदोलन छेड़ा और ऐतिहासिक 'अहिंसा-महाकुंभ' संपन्न हुआ। मुनिश्री भारतीय सेना को संबोधन करने वाले प्रथम जैन संत हैं।

मप्र, गुजरात, हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक, महाराष्ट्र की धरा पर मुनिश्री ने गहन पदयात्रा, जनयात्रा की है। मुनिश्री आजकल महाराष्ट्र में हैं। मुनिश्री ने तीन दर्जन से अधिक किताबें लिखी हैं। जिनकी 15 लाख से ज्यादा प्रतियाँ लोगों के बीच पहुँच चुकी हैं। उनकी पुस्तक 'कड़वे प्रवचन' का छः भाषाओं में अनुवाद हुआ है

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