बुधवार, 18 जुलाई 2012

मन की स्थिरता...

मन का स्वभाव है कि वह किसी बात पर अधिक समय स्थिर नहीं रहता और उचटकर बार-बार इधर-उधर उड़ता है । आप किसी बात को सोचना चाहते हैं, किंतु मन उस पर नहीं जमता । ऐसी दशा में उस चिंतनीय विषय का कोई ठीक-ठीक निर्णय नहीं हो सकेगा । इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न होने पर उत्तम मस्तिष्क वाले भी उतना काम नहीं कर सकते जितना कि साधारण मस्तिष्क के किंतु स्थिर चित्त वाले कर सकते हैं । कोई मनुष्य कितना ही चतुर क्यों न हो, यदि उसके मन को उचटने की आदत है और इच्छित विषय में एकाग्र नहीं होता, तो उसकी चतुरता किसी काम न आवेगी और उसके निर्णय अपूर्ण एवं असंतोषजनक होंगे ।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

"Mental Stability

It is the nature of mind that it does not stay on one topic for a long time and keeps wandering off aimlessly. This restless tendency gets in the way of critical thinking and is a huge obstacle in the way of thoughtful, well reasoned decision making. A brilliant and highly distracted mind performs poorly compared to an average yet calm mind. No matter how smart we are, if our minds wander and are continuously distracted, our intelligence will be of little use and our decisions will be incomplete and unsatisfactory.

-Pt. Shriram Sharma Acharya 

कर्म-फल आज नहीं तो कल भोगना ही पड़ेगा...

यदि कर्म का फल तुरन्त नहीं मिलता तो इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि उसके भले-बुरे परिणाम से हम सदा के लिए बच गयें । कर्म-फल एक ऐसा अमिट तथ्य है जो आज नहीं तो कल भुगतना अवश्य ही पड़ेगा । कभी-कभी इन परिणामों में देर इसलिये होती है कि ईश्वर मानवीय बुद्धि की परीक्षा करना चाहता है कि व्यक्ति अपने कर्तव्य-धर्म समझ सकने और निष्ठापूर्वक पालन करने लायक विवेक बुद्धि संचित कर सका या नहीं । जो दण्ड भय से डरे बिना दुष्कर्मों से बचना मनुष्यता का गौरव समझता है और सदा सत्कर्मों तक ही सीमित रहता है, समझना चाहिए कि उसने सज्जनता की परीक्षा पास कर ली और पशुता से देवत्व की और बढऩे का शुभारम्भ कर दिया ।

लाठी के बल पर जानवरों को इस या उस रास्ते पर चलाया जाता है और अगर ईश्वर भी बलपूर्वक अमुक मार्ग पर चलने के लिए विवश करता तो फिर मनुष्य भी पशुओं की श्रेणी में आता, इससे उसकी स्वतंत्र आत्म-चेतना विकसित हुई या नहीं इसका पता ही नहीं चलता । भगवान ने मनुष्य को भले या बुरे कर्म करने की स्वतंत्रता इसीलिए प्रदान की है कि वह अपने विवेक को विकसित करके भले-बुरे का अन्तर करना सीखे और दुष्परिणामों के शोक-संतापों से बचने एवं सत्परिणामों का आनन्द लेने के लिए स्वत: अपना पथ निर्माण कर सकने में समर्थ हो । अतएव परमेश्वर के लिए यह उचित ही था कि मनुष्य को अपना सबसे बड़ा बुद्धिमान और सबसे जिम्मेदार बेटा समझकर उसे कर्म करने की स्वतंत्रता प्रदान करे और यह देखे कि वह मनुष्यता का उत्तरदायित्व सम्भाल सकने मे समर्थ है या नहीं ? परीक्षा के बिना वास्तविकता का पता भी कैसे चलता और उसे अपनी इस सर्वश्रेष्ठ रचना मनुष्य में कितने श्रम की सार्थकता हुई यह कैसे अनुभव होता । आज नहीं तो कल उसकी व्यवस्था के अनुसार कर्मफल मिलकर ही रहेगा । देर हो सकती है अन्धेर नहीं । ईश्वरीय कठोर व्यवस्था, उचित न्याय और उचित कर्म-फल के आधार पर ही बनी हुई है सो तुरन्त न सही कुछ देर बाद अपने कर्मों का फल भोगने के लिए हर किसी को तैयार रहना चाहिए ।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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