शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

संयम

परमात्मा के मार्ग पर चलने के लिये जो उत्सुक होते है, वे प्रायः आत्मपीड़न को साधना समझ लेते हैं। उनकी यही भूल उनके जीवन को विषाक्त कर देती है। प्रभुप्राप्ति संसार के निषेध का रूप ले लेती है। इस निषेध के कारण आत्मा की साधना शरीर को नष्ट करने का संरजाम जूटाने लगती है। इस नकार-दृष्टि से उनका जीवन नष्ट होने लगता है। और उन्हें होश भी नहीं आ पाता कि जीवन का विरोध परमात्मा के साक्षात्कार का पर्यायवाची नही हैं

सच्चाई तो यह है कि देह के उत्पीड़क भी देहवादी होते है। उन्हें आत्मचिंतन सूझता ही नहीं है। संसार के विरोधी कहीं न कहीं सूक्ष्मरूप से संसार से ही बंधे होते है। अनुभव यही कहता है कि संसार के प्रति भोग-दृष्टि जितना संसार से बांधती है, संसार के विरोध-दृष्टि भी उससे कुछ कम नही, बल्कि उससे कहीं ज्यादा बंधती है।

साधना संसार व शरीर का विरोध नही, बल्कि इनका अतिक्रमण एवं उत्क्रान्ति है। यह दिशा न तो भोग की है और नही दमन की है। यह तो इन दोनों दिशाओं से भिन्न एक तीसरी ही दिशा है। यह दिशा आत्मसंयम की है। दोनों बिन्दुओं के बीच मध्यबिन्दु खोज लेना संयम है। पूरी तरह से जो मध्य मे हैं, वही अतिक्रमण या उपरामता है। इन दोनो के पार चले जाना है।

भोग या दमन की अति असंयम है, मध्य संयम है। अति विनाश है, मध्य जीवन है। जो अति को पकड़ता है, वह नष्ट हो जाता है। भोग हो या दमन, दोनों ही जीवन को नष्ट कर देते है। अति ही अज्ञान है, यही अंधकार है, यही विनाश है। जो इस सच को जान जाता है, वह भोग और दमन, दोनों को ही छोड़ देता है। ऐसा करते ही उसके सब तनाव स्वाभाविक ही विलीन हो जाते हैं । उसे ही अनायास ही मिल जाता है।- स्वाभाविक, सहज एवं स्वस्थ्य जीवन। संयम को उपलब्ध होते ही जीवन शांत व निर्भर हो जाता है। उसकी मुस्कराहट कभी मुरझाती नहीं। जिसनें स्वयं में संयम की समझ पैदा कर ली, वह खुशियों की खिलखिलाहट से भर उठता है।

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