सोमवार, 28 नवंबर 2011

मनुष्य योनि साधन योनि है....

1) आपके पास किसी की निन्दा करने वाला, किसी के पास तुम्हारी निन्दा करने वाला होगा।
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2) कष्ट सहन करने का अभ्यास जीवन की सफलता का परम सुत्र है।
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3) जिसके पास उम्मीद हैं, वह लाख बार हारकर भी नहीं हारता।
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4) गलती कर देना मामूली बात है, पर उसे स्वीकार कर लेना बड़ी बात है।
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5) शर्म की अमीरी से इज्जत की गरीबी अच्छी है।
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6) सच्चा प्रयास कभी निष्फल नहीं होता।
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7) स्वयं को स्वार्थ, संकोच और अंधविश्वास के डिब्बे से बाहर निकालिए, आपके लिए ज्ञान और विकास के नित-नवीन द्वार खुलते जाएँगे।
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8) सुख और आनन्द ऐसे इत्र हैं... जिन्हें जितना अधिक दूसरों पर छिड़केंगे, उतनी ही सुगन्ध आपके भीतर समायेगी।
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9) जीवन संध्या तरफ जाते हुए डरना मत, मृत्यु तो दिन के बाद रात का आराम है।
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10) छोटा सा समाधान बड़ी लड़ाई समाप्त कर देता हैं, पर छोटी सी गलत फहमी बड़ी लड़ाई पैदा कर देती हैं। मन में घर कर चुकी गलतफहमियों को निकालें और समाधान का हिस्सा बनें।
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11) संगीत की सरगम हैं माँ, प्रभु का पूजन हैं माँ, रहना सदा सेवा में माँ के, क्योंकि प्रभु का दर्शन हैं माँ ।
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12) नाशवान में मोह होता हैं, अविनाशी में प्रेम होता हैं।
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13) लेने की इच्छा वाला साधक नहीं हो सकता है।
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14) अपने सुख को रेती में मिला दे तो खेती हो जायेगी।
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15) ममता रखने से वस्तुओं का सदुपयोग नहीं हो सकता है।
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16) केवल ‘तू’ और ‘तेरा’ हैं, ‘मैं’ और ‘मेरा’ हैं ही नहीं।
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17) अभिमान अविवेकी को होता हैं, विवेकी को नहीं।
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18) वस्तुएँ काम में लेने के लिए हैं, ममता करने के लिए नही।
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19) मनुष्य योनि साधन योनि है।
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20) कर्मयोग है-संसार में रहने की बढि़या रीति।
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21) जो हमसे कुछ चाहे नहीं, और सेवा करे, वह व्यक्ति सबको अच्छा लगता है। 
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22) हमारा शरीर पंचकोशो से बना हुआ है-
1. अन्नमय कोश अर्थात् यह स्थूल शरीर, 
2. प्राणमय कोश अर्थात् क्रियाशक्ति, 
3. मनोमय कोश अर्थात् इच्छा शक्ति, 
4. विज्ञानमय कोश अर्थात् विचारशक्ति और 
5. आनन्दमय कोश अर्थात् व्यक्तित्व की अनुभूति।
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23) अशान्ति की गन्ध किसमें नहीं होती ? जो होने में तो प्रसन्न रहता हैं, किंतु करने में सावधान रहता है।
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24) प्रेम करने का कोई तरीका नहीं हैं पर प्रेम करना सबको आता है।
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Only Remorse can save from the punishment of wicked acts

It is fair to say that if we had behaved badly or done something unfair to someone, we cannot just ignore it as if it never happened. It may be possible that the person who was mistreated has gone away and may not be accessible or traceable any more. In such a situation, it may not be possible to make up for what we had done to him/her. However, there is another way to accomplish it. Every person is a part of society. Hence, damage or harm caused to any individual is, in reality, damage caused to society. We can compensate damage we caused to that individual by doing as much good to society. When the amount of good done to society makes up for the amount of harm done to the individual, it can be safely said that we have atoned for the wrongdoing and have come to a point where we can free us from any sense of guilt. 

It is absolutely impossible to set us free from any wrongdoing by means of observing some cheap religious rituals. Reading sacred texts and good thoughts, satasanga (staying in touch with people of great character), listening to discourses and devotional songs, going on pilgrimage, fasting, etc. help us to purify our mind and also enlighten us to restrain, from now on, our tendency to commit anything wrong. The scriptures speak about religious rites and observances having a grand ability to cleanse us from our sins. They only mean to say that the cleansing of the mind (achieved through such observances) may negate any possibility of that individual committing sinful acts in future. 

The inescapable justice system of God directs that anyone who wishes to absolve them from the consequences of their wrongdoing should devote themselves to selfless services to the community that can boost up its goodness or merits. This can help anyone to cleanse him/herself from any past wrongdoings and thus, imparts peace and freedom from guilt and unworthy intentions. 

-Pt. Shriram Sharma Acharya
Translated from - Pandit Shriram Sharma Acharya’s work
YUG NIRMAN YOJANA – DARSHAN, SWAROOP AND KARYAKRAM – 66 (6.18)

दुष्कर्मों के दण्ड से प्रायश्चित्त ही छुड़ा सकेगा

यह ठीक है कि जिस व्यक्ति के साथ अनाचार बरता गया अब उस घटना को बिना हुई नहीं बनाया जा सकता । सम्भव है कि वह व्यक्ति अन्यत्र चला गया हो । ऐसी दशा में उसी आहत व्यक्ति की उसी रूप में क्षति पूर्ति करना सम्भव नहीं । किन्तु दूसरा मार्ग खुला है । हर व्यक्ति समाज का अंग है । व्यक्ति को पहुँचाई गई क्षति वस्तुत: प्रकारान्तर से समाज की ही क्षति है । उस व्यक्ति को हमने दुष्कर्मों से जितनी क्षति पहुँचाई है उसकी पूर्ति तभी होगी जब हम उतने ही वजन के सत्कर्म करके समाज को लाभ पहुँचाये । समाज को इस प्रकार हानि और लाभ का बैलेन्स जब बराबर हो जायेगा तभी यह कहा जायेगा कि पाप का प्रायश्चित हो गया और आत्मग्लानि एवं आत्मप्रताडऩा से छुटकारा पाने की स्थिति बन गई ।

सस्ते मूल्य के कर्मकाण्ड करके पापों के फल से छुटकारा पा सकना सर्वथा असम्भव है । स्वाध्याय, सत्संग, कथा, कीर्तन, तीर्थ, व्रत आदि से चित्त में शुद्धता की वृद्धि होना और भविष्य में पाप वृत्तियों पर अंकुश लगाने की बात समझ में आती है । धर्म कृत्यों से पाप नाश के जो माहात्म्य शास्त्रों में बताये गये हैं उनका तात्पर्य इतना ही है कि मनोभूमि का शोधन होने से भविष्य में बन सकने वाले पापों की सम्भावना का नाश हो जाये।

ईश्वरीय कठोर न्याय व्यवस्था में ऐसा ही विधान है कि पाप परिणामों की आग में जल मरने से जिन्हें बचना हो वे समाज की उत्कृष्टता बढ़ाने की सेवा-साधना में संलग्न हों और लदे हुए भार से छुटकारा प्राप्त कर शान्ति एवं पवित्रता की स्थिति उपलब्ध कर लें ।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (६.१८)

समाजनिष्ठा का विकास करें

स्वयं क्रियाकुशल और सक्षम होने के बावजूद भी कितने ही व्यक्ति अन्य औरों से तालमेल न बिठा पाने के कारण अपनी प्रतिभा का लाभ समाज को नहीं दे पाते । उदाहरण के लिए फुटबाल का कोई खिलाड़ी अपने खेल में इतना पारंगत है कि वह घण्टों गेंद को जमीन पर न गिरने दे परन्तु यह भी हो सकता है कि टीम के साथ खेलने पर अन्य खिलाड़ियों से तालमेल न बिठा पाने के कारण वह साधारण स्तर का भी न खेल सके ।

अक्सर संगठनों में यह भी होता है कि कोई व्यक्ति अकेले तो कोई जिम्मेदारी आसानी से निभा लेते हैं, किन्तु उनके साथ दो चार व्यक्तियों को और जोड़ दिया जाए तथा कोई बड़ा काम सौंप दिया तो वे जिम्मेदारी से कतराने लगते हैं । कुछ व्यक्तियों को यदि किसी कार्य की जिम्मेदारी सौंप दी जाय तो हर व्यक्ति यह सोचकर अपने दायित्व से उपराम होने लगता है कि दूसरे लोग इसे पूरा कर लेगें ।

बौद्ध साहित्य में सामूहिक जिम्मेदारी के अभाव का एक अच्छा प्रसंग आता है । किसी प्रदेश के राजा ने कोई धार्मिक अनुष्ठान करने के लिए राजधानी के निवासियों को निर्देश दिया कि सभी लोग मिलकर नगर के बाहर तैयार किए गए हौज में एक-एक लोटा दूध डालें । हौज को ढक दिया गया था और निश्चित समय पर जब हौज का ढ़क्कंन हटाया गया तो पता चला कि दूध भरने के स्थान पर हौज पानी से भरा था । कारण का पता लगाया गया तो मालूम हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति ने यह सोच कर दूध के स्थान पर पानी डाला था कि केवल मैं ही तो पानी डाल रहा हूँ, अन्य और लोग तो दूध ही डाल रहे हैं ।

समाज में रहकर अन्य लोगों से तालमेल बिठाने तथा अपनी क्षमता योग्यता का लाभ समाज को देने की स्थिति भी सामाजिकता से ही प्राप्त हो सकती है ।

जीवन देवता की साधना - आराधना (2)-2.20

प्रधानता वातावरण की

प्रतिभाएँ वातावरण विनिर्मित भी करती हैं, पर उनकी संख्या थोड़ी सी ही होती है । हीरे जहाँ-तहाँ कभी-कभी ही निकलते हैं, पर काँच के नगीने ढेरों कारखाने में नित्य ढलते रहते हैं । अधिकांश लोग ऐसे होते हैं जो वातावरण के दबाब से भले या बुरे ढाँचे में ढलते हैं । सत्संग, कुसंग का प्रभाव इसी को कहते हैं । ऐसे लोग अपवाद ही हैं जो बुरे लोगों के सम्पर्क में रह कर भी अपनी गरिमा बनाये रहते हैं, साथ ही अपने प्रभाव से क्षुद्रों को महान बनाने, बिगड़ों को सुधारने में समर्थ होते हैं । प्रधानता वातावरण की है । सामान्यजन प्रवाह के साथ बहते और हवा के रुख पर उड़ते देखे जाते हैं । पारस के उदाहरण कम ही मिलते है । सूरज चाँद जैसी आभा किन्हीं बिरलों में ही होती है, जो अँधेरे में उजाला कर सकें ।

आत्मोत्कर्ष का लक्ष्य लेकर चलने वालों को तो विशेष रूप से इस आवश्यकता को अनुभव करना चाहिए । उसे जुटाने के लिए प्रयत्नशील भी रहना चाहिए । इसके दो उपाय हैं । एक यह कि जहाँ इस प्रकार का वातावरण हो, वहाँ जाकर रहा जाय । दूसरा यह कि जहाँ अपना निवास है, वहीं प्रयत्नपूर्वक वैसी स्थिति उत्पन्न की जाय । कम से कम इतना तो हो ही सकता है कि अपने निज के लिए कुछ समय के लिए वैसी स्थिति उत्पन्न कर ली जाए जिनके आधार पर अच्छे वातावरण का लाभ उठाया जा सके । एकान्त, स्वाघ्याय, मनन, चिन्तन ऐसे ही आधार हैं ।

Patriot must involved in restoration / renaissance

The governments of our society can punish criminals but personal stupidity, ignorance, and corruption cannot be eliminated. In a democracy, it is difficult to control and regulate the personal flaws of people which can be easily altered in a dictatorship. In a democracy, social reforms are done by social workers or social leaders. Only these types of people are capable of raising the awareness levels of a person or society. In ancient history, one can find that a nation’s pride was elevated to the highest level by social workers. They invested their time in two aspects; One, to develop their own personality in all respects so that people could follow them, and two, to devote themselves with full enthusiasm and energy in order to inspire and motivate people to achieve excellence in all areas of life. These concepts were a great tradition of Saints, Brahmins, and Vanprasthis (those that left their houses & families to live in the ASHRAMS). This is the secret of our history, but unfortunately, all of the aspects of this culture are demolished. Whatever we have seen in these forms has diverted itself now. Today’s targets, focuses, and ideals are entirely different and useless. It is not worth crying over these unfortunate happenings. Rather, we have to compensate for the loss in some other way. If household people are ready, it is their religious duty to devote and contribute some time for the enhancement of good acts in the society. The compensation is possible because development is based on this involvement and devotion. Today, there is a need for people who are patriotic and have a zeal for society and the betterment of people. The lives of these people are really worth noting and they play pivotal roles in society. 

-Pt. Shriram Sharma Acharya

देशभक्त नवनिर्माण के कार्य में जुट जाए

सरकार अपराधियों को दण्ड देकर आर्थिक प्रगति के थोड़े साधन जुटा सकती है पर व्यक्तिगत मूढ़ता एवं दृष्टता को, सामाजिक भ्रष्टता एवं अस्त-व्यस्तता को मिटाना उसके बलबूते की बात नहीं । अधिनायकवाद की बात दूसरी है । प्रजातंत्र में यह बात नहीं । प्रजातंत्र में व्यक्ति अथवा समाज-सुधार का कार्य लोकसेवियों पर निर्भर रहता है । उन्हीं की सत्ता, व्यक्ति या समाज का स्तर ऊँचा उठा सकने में समर्थ हो सकती है । प्राचीनकाल में देश का गौरव उच्च शिखर पर पहुँचाये रखने का सारा श्रेय यहाँ के लोक-सेवियों को है । वे अपना सारा समय दो कार्यों में खर्च करते थे । प्रथम - अपना व्यक्तित्व उच्चकोटि का विनिर्मित करना, ताकि जनता पर उसका उचित प्रभाव पड़ सके । द्वितीय - निरन्तर अथक परिश्रम तथा अनवरत उत्साह के साथ जन-मानस में उत्कृष्टता भरने के लिए संलग्न रहना । साधु-ब्राह्मण और वानप्रस्थों की यही परम्परा एवं कर्म पद्धति थी । उनकी संख्या जितनी बढ़ती थी उसी अनुपात से राष्ट्रीय जीवन की हर दिशा में समृद्धि का अभिवर्द्धन होता चलता था । यही रहस्य था अपने गौरवमय इतिहास का । दुर्भाग्य ही कहना चाहिए, कि वे तीनों ही संस्थाएँ आज नष्ट हो गई । ब्राह्मण, साधु और वानप्रस्थ तीनों ही दिखाई नहीं पड़ते । उनकी तस्वीरें और प्रतिमाएँ बड़ी संख्या में घूमती- फिरती नजर आती हैं पर उनका लक्ष्य, आदर्श और कर्त्तव्य सर्वथा विपरित हो गया, ऐसी दशा में उनकी उपयोगिता भी नष्ट हो गई । 

दुर्भाग्य का रोना-रोने से काम न चलेगा । अभाव की पूर्ति दूसरी तरह करनी होगी । हम गृहस्थ लोग ही थोड़ा थोड़ा समय निकाल कर लोक-मंगल की सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्द्धन करना अपना धर्म कर्त्तव्य समझें और उसके लिए निरन्तर कुछ न कुछ योगदान देने के लिए तत्परता प्रकट करने लगें तो उस आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है, जिस पर प्रगति का सारा आधार अवलम्बित है । आवश्यकता ऐसे लोगों की है, जिनके अन्त:करण में देशभक्ति, समाज-सेवा एवं लोक-मंगल के लिए कुछ करने की उमंग भरी भावनाएँ लहरा रही हों । ऐसे ही नर-रत्न अपना जीवन धन्य करते हैं, अपने समय की महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ सम्पादित करते हैं ।

देशभक्त नवनिर्माण के कार्य में जुट जाए
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

उपासना का तत्वदर्शन

पूजा पाठ के समस्त उपचारों का एक मात्र लक्ष्य उत्कृष्टता सम्पादन ही है । परब्रह्म को किसी उपहार-मनुहार के सहारे फुसलाया नहीं जा सकता । उसने नियति क्रम, जड़, चेतन सभी को बाँधा है और स्वयं भी बँध गया है । प्रशंसा के बदले अनुग्रह और निन्दा के बदले प्रतिशोध लेने पर यदि भगवान उतर पड़े तो समझना चाहिए कि व्यवस्थापरक अनुबन्ध समाप्त हो गए और सर्वतोन्मुखी अराजकता का उपक्रम चल पड़ा । पर ऐसा होता नहीं है । लोगों का भ्रम है जो सृष्टा को फुसलाने और नियति क्रम का उल्लंघन करने वाले अनुदान इसलिए माँगते हैं कि वे पूजा करने के कारण पक्षपात के अधिकारी हैं । यह बाल बुद्धि जितनी जल्दी हट सके उतना ही अच्छा हैं । 

पूजा उपचार का तात्पर्य चेतना संस्थान को उत्कृष्टता के ढाँचे में ढालने का प्रभावी व्यायाम पराक्रम प्रशिक्षण मात्र है । इस प्रकार से या उस प्रकार से, जो अपने चेतना क्षेत्र को जितना समुन्नत बना सकेगा, वह उतना ही ऊँचा उठेगा, आगे बढ़ेगा और देवत्व के क्षेत्र में प्रवेश पाने का अधिकारी बनेगा । उपासना का उद्देश्‍य है - आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ देना । आत्मा-अर्थात्‌ अन्तःकरण, भाव संस्थान, जिसके साथ मान्यताएँ, आकांक्षाएँ लिपटी रहती हैं । परमात्मा-अर्थात्‌ उत्कृष्ट आदर्शवादिता । स्मरण रहे, परमात्मा कोई व्यक्ति विशेष नहीं, सृष्टि में जितना भी देव पक्ष है उसके समुच्यय को, आत्माओं के समष्टि समुदाय को, परमात्मा कहते हैं । 

जीवन देवता की साधना - आराधना (2)-3.55

Past, Future and Present

Tradition is a gift of past and transformation is a symbol of future. Man is related to the present more than the past or future. Man has to live in present. Treasure of past cannot be used in any work, and the dreams of future are also useless. Man should build his present, but the essential ingredients used for this purpose are not available in present. These has to be collected from the past experiences and the imaginations of the future. Building of present can be built on the bed-rocks of past and future. 

-Pt. Shriram Sharma Acharya

भूत, भविष्य और वर्तमान

परम्परा अतीत की देन होती है और परिवर्तन भविष्य का प्रतीक । मनुष्य का जितना सम्बन्ध वर्तमान से होता है, उतना भूत अथवा भविष्य से नहीं । मनुष्य को वर्तमान में ही जीना पड़ता है । अतीत का वैभव उसका कोई कार्य सम्पादित नहीं कर पाता और भविष्य के स्वप्न भी कुछ काम नहीं आते । मनुष्य को अपने वर्तमान का ही निर्माण करना चाहिए, किन्तु इस निर्माण के लिए आवश्यक सामग्री वर्तमान में नहीं होती उसके लिए उसे अतीत के अनुभवों और भविष्य की कल्पनाओं का भी अवलम्बन लेना पड़ता है । वर्तमान का भवन भूत और भविष्यत्‌ की आधार-शिलाओं पर बनाया जा सकता है । 

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

The Warrior Who Bears the Wound

Once upon a time, swordsmen and those accustomed to beheading people were called ‘Warriors’ but now the basis of judgement has changed. One who can show valor in the struggle against the pandemic terror and malpractice, as well as bear the anguish, will be considered more courageous. On the groundwork of this valiance or

courage, a dauntless or unblemished society will be established. Only those people who can endure and will be able to fight against the malignity, abhorrence and immorality, can gather the praise for relieving the suffering of humanity.


-Pt. Shriram Sharma Acharya
Translated from - Pandit Shriram Sharma Acharya’s work Yug Nirman Yojana- Darshan, swaroop, va Karyakrma- 66

चोट खाने वाला योद्धा

किसी समय तलवार चलाने वाले और सिर काटने में अग्रणी लोगों को योद्धा कहा जाता था पर अब मापदण्ड बदल गया । चारों और संव्याप्त आतंक और अनाचार के विरुद्ध संघर्ष में जो जितना साहस दिखा सके, और चोट खा सके उसे उतना ही बड़ा बहादुर माना जायगा । उस बहादुरी के ऊपर ही शोषण-विहीन समाज की स्थापना सम्भव हो सकेगी । दुर्बुद्धि से, कुत्सा और कुण्ठा से लड़ सकने में जो लोग समर्थ होंगे उन्हीं का पुरुषार्थ, पीडि़त मानवता को त्राण दे सकने का यश संचित कर सकेगा ।
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्ययुग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (४.७२)

जीवन साधना के चार चरण

व्यक्तित्व निर्माण के कार्यक्रम की तुलना कृषक द्वारा किए जाने वाले कृषि कर्म से की जा सकती है जैसे जुताई, बुआई, सिंचाई और विक्रय की चतुर्विधि प्रक्रिया सम्पन्न करने के बाद किसान को अपने परिश्रम का लाभ मिलता है, व्यक्तित्व निर्माण को भी इस प्रकार जीवन साधना की चतुर्विधी प्रक्रिया सम्पन्न करनी पड़ती है, यह है आत्म-चिंतन, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास । मनन और चिंतन को इन चारों चरणों का अविच्छिन्न अंग माना गया है इन चतुर्विधि साधनों को एक-एक करके नहीं, समन्वित रूप से ही अपनाया जाना चाहिए

आत्म-चितंन अर्थात्‌ जीवन विकास में बाधक अवांछनीयताओं को ढूँढ़ निकालना । इसके लिए आत्म समीक्षा करनी पड़ती है । जिस प्रकार प्रयोगशालाओं मे पदार्थों का विश्लेषण, वर्गीकरण होता है और देखा जाता है कि इस संरचना में कौन-कौन से तत्व मिले हुए हैं । रोगी की स्थिति जानने के लिए उसके मल, मूत्र, ताप, रक्त, धड़कन आदि की जाँच-पड़ताल की जाती है और निदान करने के बाद ही सही उपचार बन पड़ता है । आत्म-चितंन, आत्म-समीक्षा का भी यह क्रम है ।

इसके लिये अपने आप से प्रश्न पूछने और उनके सही उत्तर ढूँढ़ने की चेष्टा की जानी चाहिए । हम जिन दुष्प्रवृतियों के लिए दूसरों की निन्दा करते हैं उनमें से कोई अपने स्वभाव में तो सम्मिलित नहीं है । जिन बातों के कारण हम दूसरों से घृणा करते हैं, वे बातें अपने में तो नहीं हैं ? जैसा व्यवहार हम दूसरों से अपने लिए नहीं चाहते है, वैसा व्यवहार हम ही दूसरों के साथ तो नहीं करते ? जैसे उपदेश हम आये दिन दूसरों को करते हैं, उनके अनुरूप हमारा आचरण है भी अथवा नहीं ? जैसी प्रशंसा और प्रतिष्ठा हम चाहते हैं, वैसी विशेषताएँ हममें हैं या नहीं ? इस तरह का सूक्ष्म आत्म-निरीक्षण स्वयं व्यक्ति को करना चाहिए और अपनी कमियों को ढूँढ़ निकालना चाहिए ।

आत्म-सुधार, अर्थात्‌ कुसंस्‍कारों को परास्त करना । अपने स्वभाव में सम्मिलित दुष्प्रवृत्तियाँ अभ्यास होने के कारण कुसंस्‍कार बन जाती हैं और व्यवहार में उभर-उभर कर आने लगती हैं । आत्म-सुधार प्रक्रिया के अन्तर्गत इसके लिए अभ्यास और विचार-संघर्ष के दो मोर्चे तैयार करने चाहिए । अभ्यस्त कुसंस्‍कारों की आदत तोड़ने के लिए बाह्य क्रिया-कलापों पर नियंत्रण और उनकी जड़ें उखाड़ने के लिए विचार-संघर्ष की पृष्ठभूमि बनानी चाहिए । बुरी आदतें भूतकाल में किया गया अभ्यास ही हैं इस अभ्यास को अभ्यास बना कर तोड़ा जाए और कुसंस्‍कार सुसंस्कार निर्माण द्वारा नष्ट किये जायें । जैसे थल सेना से थल सेना ही लड़ती है और नभ सेना से लड़ने के लिए नभ सेना ही भेजी जाती है ।

जो भी बुरी आदतें जब उभरें उसी से संघर्ष किया जाए । बुरी आदतें जब उभरने के लिए मचल रहीं हों तो उनके स्थान पर उचित सत्कर्म ही करने का आग्रह खड़ा किया जाए और मनोबलपूर्वक अनुचित को दबाने तथा उचित को अपनाने का साहस किया जाय । मनोबल यदि दुर्बल होगा तो ही हारना पड़ेगा अन्यथा सत्साहस जुटा लेने पर तो श्रेष्ठ की स्थापना में सफलता ही मिलती है। इसके लिए छोटी बुरी आदतों से लड़ाई आरम्भ करनी चाहिए । उन्हें जब हरा दिया जायेगा तो अधिक पुरानी और अधिक बड़ी दुष्प्रवृत्तियों को परास्त करने योग्य मनोबल भी जुटने लगेगा।

आत्म-निर्माण अर्थात्‌ जो सत्प्रवृतियाँ अभी अपने स्वभाव में नहीं हैं उनका योजनाबद्ध विकास करना । दुर्गणों को निरस्त कर दिया गया, उचित ही है पर व्यक्तित्व को उज्ज्वल बनाने के लिए, आत्म-विकास की अगली सीढ़ी चढ़ने के लिये सद्‌गुणों की सम्पदा एकत्रित करना भी अत्यन्त आवश्यक है। बर्तन का छेद बन्द कर देना काफी नहीं है, जिस उद्देश्‍य के लिये बर्तन खरीदा गया है वह भी तो पूरा करना चाहिये । खेत में से कँटीली झाड़ियाँ, पुरानी फसल की सूखी जड़ें उखाड़ दी गई, पर इसी से तो खेती का उद्देश्‍य पूरा नहीं हो गया, यह कार्य तो अधूरा है । शेष आधी बात जब बनेगी तब उस भूमि पर सुरम्य उद्यान लगाया जाय और उसे पाल-पोसकर बड़ा किया जाए ।

अपने व्यक्तित्व का विकास उत्कृष्ठ चिन्तन और आदर्श कर्तव्य अपनाये रहने पर ही निर्भर है । उस साधना में चंचल मन और अस्थिर बुद्धि से काम नहीं चलता, इसमें तो संकल्पनिष्ठ, धैर्यवान और सतत प्रयत्नशील रहने वाले व्यक्ति ही सफल हो सकते है । अपना लक्ष्य यदि आदर्श मनुष्य बनना है तो इसके लिए व्यक्तित्व में आदर्श गुणों और उत्कृष्ट विशेषताओं का अभिवर्धन करना ही पड़ेगा ।

आत्म-विकास अर्थात्‌ अपने आत्म-भाव की परिधि को अधिकाधिक विस्तृत क्षेत्र में विकसित करते रहना । यदि हम अपनी स्थिति को देखें तो प्रतीत होगा कि शरीर और परिवार का उचित निर्वाह करते हुए भी हमारे पास पर्याप्त समय और श्रम बचा रहता है कि उससे परमार्थ प्रयोजनों की भूमिका निबाही जाती रह सके । आत्मीयता का विस्तार किया जाय तो सभी कोई अपने शरीर और कुटुम्बियों की तरह अपनेपन की भाव श्रृंखला में बँध जाते हैं और सबका दुःख अपना दुःख तथा सबका सुख अपना सुख लगने लगता है । जो व्यवहार, सहयोग हम दूसरों से अपने लिए पाने की आकांक्षा करते हैं, फिर उसे दूसरों के लिए देने की भावना भी उमगने लगती है, लोक-मंगल और जन-कल्याण की, सेवा साधना की इच्छाएँ जगती हैं तथा उसकी योजनाएँ बनने लगती हैं । इस स्थिति में पहुँचा ,व्यक्ति सीमित न रहकर असीम बन जाता है और उसका कार्य क्षेत्र भी व्यापक परिधि में सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धक बन जाता है ।

संसार के इतिहास में जिन महामानवों का उज्ज्वल चरित्र जगमगा रहा है, वे आत्म-विकास के इसी मार्ग का अवलम्बन लेते हुए महानता के उच्च शिखर तक पहुँच सके हैं । चारों दिशाओं की तरह आत्मिक उत्कर्ष के चार आधार यही हैं ।

जीवन देवता की साधना - आराधना (2)-2.8
Writer : Pt Shriram Sharma Acharya

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