बुधवार, 16 नवंबर 2011

अंहकार

एक कुत्ता गाड़ी के नीचे-नीचे चल रहा था, सामने से दूसरा कुत्ता आ रहा था। उसने पूछा,‘ भाई! गाड़ी के नीचे कैसे ?’ उस कुत्ते ने गर्व से कहा,  ‘ देखते नहीं, गाड़ी मै चला रहा हूँ।’ दुसरे कुत्ते ने कहा, ‘रहने दो, ज्यादा मत फेकों। गाड़ी को तो ये बैल खीच रहै हैं।’ तो उस कुत्ते ने कहा, ‘ नहीं, मैं खीच रहा हूं, अगर मैं रूक गया तो गाड़ी भी रूक जाएगी।’ दुसरा कुत्ता बोला, ‘अच्छा! तुम रूक जाओ।’ और वह कुत्ता रूक गया, इत्तफाक की बात कि बैल भी रूक गए, गाड़ी भी रूक गई तो उस कुत्ते ने कहा,  ‘देखा मेरा करिश्मा।’ और वह कुत्ता ज्यों ही चला, संयोग की बात उसी समय बैल भी चल दिए, गाड़ी आगे बढ़ने लगी। चलते हुए कुत्ते ने ऐंठते हुए कहा, ‘ देखा, अब तो मानोगें कि गाड़ी को मैं ले जा रहा हूं।’ मित्रो ! तुमने भी तो यही भ्रम पाल रखा हैं कि इस गृहस्थी की गाड़ी को तुम ढो रहे हो- यह व्यर्थ का भार है, यह व्यर्थ का बोझ हैं। ‘ मैं और मेरा ’ कि जो वासना हैं, वह तुम्हे दीन बनाए हुए हैं।

महावीर कहते हैं कि जब तक ‘मैं’ की अकड़ हैं, तब तक दुःख हैं। मैं कि मृत्यु ही आत्मा का जीवन हैं। दुःख से मुक्ति चाहते हो, तो अहम् का परित्याग परम अनिवार्य हैं। सहज जीवन जीना सीखें। जगत में साक्षी मात्र बनकर रहें। लोग पूछते हैं,‘ मुनिश्री! अहंकार कैसे छोड़ें?’ मैं कहता हूं, ‘जब तक ‘मेरा’ नहीं छुटेगा तब तक ‘मैं’नहीं छूट सकता क्योंकि मेरा ही मैं को, अहंकार देता हैं। अहंकार का भोजन मेरा है, मैं का भोजन‘ मेरापन’ है, तो यह तो मैं है, यही ‘मैं’ तुम्हें मृत्यु की ओर ढकेलता हैं।

मैं का लोप

मैं को भूल जाना और ‘मैं’ से उपर उठ जाना सबसे बड़ी कला है। उसके अतिक्रमण से ही मनुष्य मनुष्यता को पार कर दिव्यता से सम्बन्धित होता हैं। जो ‘मैं’ से घिरे रहते हैं, वे भगवान को नहीं जान पाते। उस घेरे के अतिरिक्त मनुष्यता और भगवत्ता के बीच ओर कोई बाधा नहीं हैं। च्वांग-त्सु किसी बढ़ई की एक कथा कहता था। वह बढ़ई अलौकिक रूप से कुशल था। उसके द्वारा निर्मित्त वस्तुएं इतनी सुन्दर होती थी कि लोग कहते थे कि जैसे उन्हें किसी मनुष्य में नहीं, वरन देवताओ ने बनाया हो। किसी राजा ने उस बढ़ई से पूछा, ‘ तुम्हारी कला में यह क्या माया हैं ? वह बढ़ई बोला, ‘कोई माया-वाया नहीं हैं, महाराज ! बहुत छोटी-सी बात हैं। वह यही कि जो भी में बनाता हूं, उसे बनाते समय अपने ‘मैं’ को मिटा देता हूं। सबसे पहले में अपनी प्राण-शक्ति के अपव्यय को रोकता हूं और चित को पूर्णतः शान्त बनाता हूं। उस वस्तु से होने वाले मुनाफे, कमाई आदि की बात भूल जाता हूं। फिर उससे मिलने वाले यश का भी ख्याल नहीं रहता। मुझे अपनी काया का भी विस्मरण हो जाता हैं। सभी बाह्म-अंतर विघ्न और विकल्प तिरोहित हो जाते हैं। फिर जो मैं बनाता हूं, उससे परे और कुछ भी नहीं रहता हैं। ‘मैं’ भी नहीं रहता हूं। और इसीलिए वे कृतियां दिव्य प्रतीत होने लगती है।’

जीवन में दिव्यता को उतारने का रहस्य सूत्र यही हैं। ‘मैं’ को विसर्जित कर दो और चित्त को किसी सृजन में तल्लीन अपनी सृष्टि में ऐसे मिट जाओ और एक हो जाओ जैसा कि परमात्मा उसकी सृष्टि में हो गया हैं।

अहम्

शिष्य ने गुरू के पास अध्ययन किया। अध्ययन समाप्ति के पश्चात् जब घर जाने लगा तब निवेदन किया, ‘गुरूदेव ! मैं ये स्वर्ण मुद्राएँ आपको दक्षिणा में दे रहा हूं।’ गुरू ने कहा, ‘मैं स्वर्ण मुद्राओ का क्या करूँगा यदि तुम देना चाहते हो तो ऐसी चीज दो, जो तुम्हारे काम की नहीं हैं। शिष्य मिट्टी ले आया। कहा,‘ गुरूदेव! मैं यह दक्षिणा देना चाहता हूं इसका कोई उपयोग नहीं हैं।’ तभी मिट्टी बोल पड़ी, ‘तुमने मुझे व्यर्थ समझा है। अगर मैं न होऊ तो सारे भूखे मर जाएंगे। अनाज कहां पैदा होगा ?’ गुरू, ‘यह व्यर्थ नहीं हैं।’ शिष्य पत्थर के टुकड़े को ले आया। बीच में ही पत्थर बोल पड़ा, ‘बड़े बेवकूफ आदमी हो। अगर मैं न होऊं तो कोई मकान नही बनेगा। मुझे व्यर्थ मान रहे हो ?’शिष्य गंदगी ले आया। गुरू के समीप आया और निवेदन किया, ‘गुरूदेव! गंदगी की दक्षिणा लीजिए।’ इतने में गंदगी बोल उठी, ‘अगर मैं न होऊं तो खाद नहीं होगी। तुम्हारी फसल भी अच्छी नहीं बनेगी।’ गुरू ने कहा, ‘यह भी व्यर्थ नहीं हैं।’ अकस्मात् अंतश्चेतना जागी। मेरे भीतर एक अहं छिपा हुआ हैं। उस अहं के कारण ही मैं सब चीजों को व्यर्थ मान रहा हूं। वही सबसे ज्यादा व्यर्थ होता हैं। जो दूसरे को व्यर्थ मानता हैं, निकम्मा मानता हैं। वह गुरू के पास गया और बोला, ‘गुरूदेव, यह अहं ही हैं, जो दूसरो को व्यर्थ मान रहा है। मैं आपको यही दक्षिणा में देता हूं।’ गुरू ने प्रसन्नता से सिर पर हाथ रखा, आशीर्वाद दिया, ‘वत्स! तुमने आज मुझे वैसी दक्षिणा दी हैं, जैसी किसी ने नहीं दी।’ अहं विलय होने पर सिद्धि स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। उसके लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं होती।

संकल्प शक्ति

संकल्प शक्ति को जागृत करना जरूरी हैं। जब संकल्प जाग जाता हैं, तब रूपान्तरण प्राप्त हो जाता हैं। जब संकल्प शक्ति नहीं जागती, तब कुछ भी नहीं बदल सकता। 

एक बार की बात हैं, बड़ा भयंकर युद्व लड़ा जा रहा था। एक और विशाल सेना थी ओर दूसरी ओर छोटी सेना थी। बड़ी सेना की विशालता के आगे छोटी सेना हारने लगी, उसके मुख्य सेनापति को हार का संवाद मिल गया। वह खिन्न और चिंतातुर होकर अपने घर में बैठ गया। वह मन से हार मान रहा था। यह मान गया था कि अब लड़ने का कोई मतलब नहीं हैं। उसकी पत्नी ने उदासी का कारण पूछा। सेनापति ने पत्नी से कहा, हमारी सेना हार रही है, यह बहुत बुरी घटना हैं। यह सुनकर पत्नी ने कहा, सेना हार रही हैं, यह बहुत बुरी घटना है। लेकिन बुरी बात यह है कि आपका मनोबल टूट गया हैं, आपकी संकल्प शक्ति क्षीण हो गई हैं। यह सुनते ही सेनापति का मनोबल फिर एक बार जाग उठा। उसकी आत्मा जागृत हुईं। वह स्वयं युद्व के मैदान में आ डटा। सेनापति का संकल्प देखकर उसकी छोटी सेना ने पराक्रम दिखाना शुरू कर दिया। बड़ी सेना हार कर भाग गई। छोटी सेना जीत गई। 

जब मनुष्य की संकल्प शक्ति टूट जाती है, तब रूपान्तरण की बात ही नहीं उठती और न मनुष्य के स्वभाव को बदला जा सकता हैं प्रत्येक व्यक्ति इस सच्चाई को अनुभव करे कि वह अपनी शक्ति का प्रयोग करके जो चाहे बन सकता हैं, बदल सकता हैं। स्वयं को जाने और बदलें। स्वयं को देखे और बदलें

बापू की भावना

बापू का जन्मदिन था। नित्य की भांति संध्या समय प्रार्थना सभा हुई। खासतोर से तैयार की गई जगह पर गांधीजी प्रार्थना के लिए बैठे। प्रार्थना सम्पन्न हुई। प्रार्थना के पश्चात बापू का प्रवचन हुआ। अंत में बापू ने पूछा आज यह घी का दीपक किसने जलाया हैं। 

सारी सभा एकदम शान्त हो गई। सब एक दूसरे का मुँह देख रहे थे। बोले तो कौन बौले ? यह देखकर बापू ने कोमल वाणी में कहा, ‘आज यदि कोई बुरी बात हुई हैं, तो वह यह कि आपने यह घी का दीपक जलाया हैं।’ सुनते ही सब स्तब्ध रह गए। सोचने लगे सब भला इसमें ऐसी क्या बुरी बात हो गई हैं। कुछ देर रूक कर बापू बोले, ‘कस्तूरबा ! इतने दिनों से तुम मेरी जीवन संगिनी हो, फिर तुम भी कुछ नहीं सीख पाई। अरे, हमारे गांवो में लोग कितने निर्धन हैं, कैसे बुरे दिन काट रहै हैं? उन्हें नमक व तेल तक नहीं मिलता और हम बिना वजह ही घी जला रहे हैं।’ बीच-बचाव करते जमनालाल बजाज बोले, ‘आज आपका जन्मदिन हैं, इसलिए।’ बात काटते हुए बापू ने कहा,‘ इसका मतलब तो यह हुआ कि जन्मदिन को मितव्ययिता त्याग दी जाए और दुरूपयोग करना प्रारम्भ कर दिया जाए।’ सभी जैसे पत्थर हो गए। नम आंखों से पुनः बापू बोले,‘ जो हुआ सो हुआ पर आगे ध्यान रखना। जो वस्तु आम आदमी को उपलब्ध नहीं हो रही हो, उसे हमें भी उपयोग में लेने का कोई अधिकार नहीं हैं। जब तक हर आदमी में यह भावना नहीं आएगी, देश में खुशहाली कैसे आ पाएगी ?’ देश के वर्तमान अर्थ संकट एवं ऊर्जा मितव्ययिता के दौर में बापू का यह दृष्टान्त अत्यन्त ही प्रेरणास्पद एवं अनुकरणीय हैं।

मन की ऊँचाई

मंदिरों के शिखर और मस्जिदों की मिनारें ही ऊँची नहीं करनी हैं, मन को भी ऊँचा करना हैं ताकि आदर्शों की स्थापना हो सकें। एक बार गौतम स्वामी ने महावीर स्वामी से पूछा, ‘भंते ! एक व्यक्ति दिन-रात आपकी सेवा, भक्ति, पूजा में लीन रहता हैं, फलतः उसको दीन-दुखियों की सेवा के लिए समय नहीं मिलता और दूसरा व्यक्ति दुखियों की सेवा में इतना जी-जान से संलग्न रहता हैं कि उसे आपकी सेवा-पूजा, यहां तक कि दर्शन तक की फुरसत नहीं मिलती। इन दोनों में से श्रेष्ठ कौन है। भगवान महावीर ने कहा, वह धन्यवाद का पात्र हैं जो मेरी आराधना-मेरी आज्ञा का पालन करके करता हैं और मेरी आज्ञा यही हैं कि उनकी सहायता करों, जिनको तुम्हारी सहायता की जरूरत हैं।

अज्ञानी जीव-अमृत में भी जहर खोज लेता हैं और मन्दिर में भी वासना खोज लेता हैं। वह मन्दिर में वीतराग प्रतिमा के दर्शन नहीं करता, इधर-उधर ध्यान भटकता हैं और पाप का बंधन कर लेता हैं। पता हैं  चील कितनी ऊपर उड़ती हैं ? बहुत ऊपर उड़ती हैं, लेकिन उसकी नजर चांद तारों पर नहीं, जमीन पर पड़े, घूरे में पडे़ हुए मृत चूहे पर होती हैं। यहीं स्थिति अज्ञानी मिथ्या दृष्टि जीव की हैं। वह भी बातें तो बड़ी-बड़ी करता हैं, सिद्वान्तों की विवेचना तो बड़े ही मन को हर लेने वाले शब्दों व लच्छेदार शैली में करता हैं, लेकिन उसकी नजर घुरे में पड़े हुएं मांस पिण्ड पर होती हैं, वासना पर होती हैं और ज्ञानी सम्यदृष्टि जीव भले ही दलदल रहे, लेकिन अनुभव परमात्मा का करता हैं।

सच्चा सुख


सिकंदर के अरस्तु ने उससे कहा था कि भारत से आते समय तुम किसी संत को युनान ले आना। सिकंदर को एक दिन पता चला कि मगधराज के किसी गाव से दूर एक निर्जन स्थान पर कोई साधु है बडा अदभुत साधु है सिकंदर को संत की तलाश है वह संत के पास गया। बोला मुझे पहचान ! मुझे क्या जरुरत है तुम्हे पहचानने की साधु ने बडी बेरुखी से उतर दिया। 

मै सिकंदर हूँ। 
महान सिकंदर यहाँ क्यो आए हो। 
हिन्दुतान को जीतने के लिए !

फिर ? फिर क्या, हिन्दुस्तान को जीतना मेरा सपना रहा है अब तक मै दुनिया के प्रायः सभी देशों को जीत चुका हूँ।

सबको जीतकर करोगे क्या ? सिकंदर को साधु की बाते बहुत अटपटी लग रही थी अब तक उससे किसी ने भी इतनी बेरुखी से बात नही की थी किंतु उससे पता था कि सच्चे साधु इसी मिजाज के होते होते है। उसने कहा, दुनिया के सारे देशो को जीतकर इस धरती का सबसे बडा धनवान सम्राट बन जाउंगा। उसके बाद क्या करोगे। उसके बाद करने को क्या रह जाता है, मै आराम से अपना जीवन बिताउंगा। सिंकदर ने कहा तुम इतना रक्तपात करके और लूटपाट करके सुख से रहना चाहते हो और मै अभी से बिना कुछ किए सुख से रह रहा हूँ। बोलो, बुदिमान हम दोनो मे से कौन है ? सिकंदर चुप रह गया। कोई उत्तर उसके पास नही था। उसे पहली बार यह लगा कि सचमुच वह किसी मुर्खतापूर्ण अभियान पर तो नही निकला है।

उलझन

एक दिन नदी के किनारे एक फकीर बैठा हुआ था, अपने शिष्यों के साथ। सर्दी थी बहुत और फकीर ठिठुर रहा था। नदी में एक कम्बल बहता चला आ रहा हैं। उसने शिष्यों से कहा, ‘अरे, कम्बल ! आप छलांग लगाकर कम्बल क्यों नहीं लाते ? आप ठंड से परेशान है।’ उस फकीर ने नदी में छलांग लगाई, लेकिन यह क्या ? असल में वह कम्बल नहीं था, वह एक रीछ था, जो सिर छिपाये हुए पानी में बहा जा रहा था। वह कम्बल जैसा मालूम पड़ रहा था। अब जब उसने रीछ को पकड़ लिया, तो उसने पाया कि असल में उसने रीछ को नहीं पकड़ा था बल्कि रीछ ने उसको पकड़ा है अब वह उसके साथ बहने लगा।

फकीर को शिष्यों ने कहा, ‘क्या मामला है अगर कम्बल बहुत वजनी हो और खींच कर न ला सकते हो तो छोड़ दो।’ फकीर ने कहा, ‘अब छोड़ना बहुत मुश्किल हैं, क्योंकि कम्बल ने ही मुझे पकड़ लिया है। मैने उसे नहीं पकड़ा है। मैं तो उसे छोड़ने की कोशिश कर रहा हूं, लेकिन कम्बल मुझे नहीं छोड़ रहा है।’

इसी तरह तुमने जो उलझने पकड़ी है, वह मुर्दा नहीं हैं उन्हें तुमने खूब जीवन दिया है, खूब सींचा है। यह ध्यान रखना होगा कि वह कम्बल की तरह नहीं है, वे रीछ की तरह हो गई हैं। उनमें तुमने प्राण डाल दिए हैं, अपने ही प्राण डाल दिए हैं। खींच लोगे तो धीरे-धीरे निकल जाओगे, वे निष्प्राण हो जाएंगी, लेकिन एकदम से होगा नहीं। समय लगेगा। और इसलिए जिसमें हिम्मत हो संघर्ष को जारी रखने की, वही उलझनों से मुक्त हो सकता हैं

आनन्द की खोज

बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य ऋषि अपनी पत्नी मैत्रेयी से कहते हैं, ‘आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति।’ संसार के प्रत्येक व्यक्ति को अपने सुख के लिए ही पत्नी, पुत्र व धन प्रिय होता है।

एक व्यक्ति ने अपने समस्त परिवार से विद्रोह करके एक अत्यंत सुन्दर कन्या से विवाह किया। रात-दिन पत्नी को खुश करने में जुट गया। एक बार वह पत्नी के साथ गंगा में नौका विहार कर रहा था, तभी आकस्मिक तूफान आने से नाव डूबने लगी। भयभीत पत्नी बोल पड़ी, ‘मुझे तैरना नहीं आता, मेरी कैसे रक्षा होगी।’ पति ने उत्तर दिया ‘नाव भले डूब जाए, मैं तुम्हें पार ले जाऊंगा।’ वह पत्नी को कंधे पर बिठा कर तैरने लगा। तैरते-तैरते बहुत देर हो गई, किनारा न आया। पति बुरी तरह थक चुका था, उसके हृदय में स्वार्थ जाग उठा। उसने पत्नी से कहा, ‘जितनी देर सम्भव था, मैंने तुम्हारी रक्षा का प्रयास किया, परन्तु अब यदि मैं तुम्हें लेकर तैरता रहूंगा, तो तुम्हारे साथ मैं भी डूब जाऊंगा, अतः तुम मुझे क्षमा करो कि मैं तुम्हें मझधार में छोड़कर अपने प्राणों की रक्षा करूंगा, क्योंकि प्राण रक्षा होने पर तो मैं पुनः किसी स्त्री से विवाह कर लूंगा।’ 

यह कथा उदाहरण हैं कि संसार के प्रत्येक व्यक्ति को स्व-प्राण व स्व-सुख ही सर्वाधिक प्रिय हैं, इसकी तुलना में न पुत्र प्रिय होता हैं, न पत्नी, न धन। किन्तु यह उचित नहीं हैं। वस्तुतः व्यक्ति को यह ध्यान रखना चाहिए कि सच्चा आनन्द तो अपनी आत्मा में ही छिपा होता हैं। हमारे शास्त्रों के अनुसार, इस आनन्द को खोजने के साधन है, कर्म, ज्ञान ओर भक्ति।

अकिंचन

एक राजा के मन में विकल्प उठा कि मैं गुरू बनाऊं। राजा ने कहा-‘गुरू वह होगा, जिसका आश्रम सबसे बड़ा हैं’। घोषणा करवा दी गई- राजा गुरू बनाएगा और उसको गुरू बनाएगा जिसका आश्रम सबसे बड़ा है। होड़ लग गई। राजा का गुरू बनने की लालसा बन गई। सैकड़ों साधु, महात्मा, संन्यासी आ गए। राजा ने कहा- ‘महाराज! कहिए।’

एक बोला, ‘मेरा आश्रम पचास एकड़ में फैला हुआ है।’

दूसरे ने कहा, ‘मेरा आश्रम सौ एकड़ में फैला हुआ है।’

तीसरा बोला, ‘मेरा दो सौ एकड़ में फैला हुआ है।’

चैथा बोला, ‘मेरा आश्रम हजार एकड़ में फैला हुआ है।’

सबने अपना-अपना बखान कर दिया।

एक संन्यासी ऐसे ही बैठा रहा। कुछ नहीं बोला।

राजा ने कहा, ‘महाराज आप भी बोलिए। आपके पास क्या है ?’ वह बोला-‘राजन ! मैं यहां बता नहीं सकता, आप मेरे साथ चले।’

राजा साथ हो गया। संन्यासी राजा को जंगल में गया। एक बड़ा बड़ का पेड़ था। संन्यासी उसके नीचे जाकर बैठ गया और बोला-‘यह मेरा आश्रम है।’

राजा बोला-‘महाराज! कितना बड़ा है ?’

संन्यासी बोला- ‘जितना ऊपर आकाश और जितनी नीचे पृथ्वी-इतना बड़ा आश्रम है, जिसकी सीमा नहीं है।’

राजा चरणों में गिर पड़ा। बोला आप मेरे गुरू हैं। मैं आपका शिष्य हूँ। सब देखते रह गए। गुरू वह बन सकता है जिसके पास कुछ नहीं है। अकिंचन व्यक्ति ही त्रिलोक का अधिपति बन सकता है।

दुःख और सुख

एक लंगड़ा आदमी एक औरत से भीख मांग रहा था उसके द्वार पर। उस औरत ने कहा, ‘देखो, तुम तो भले-चंगे हो, जरा सा पैर में मालूम होता है मोच लग गई। आंखें तुम्हारी ठीक हैं, हाथ ठीक है। अंधे होते, तो मैं तुम्हें देती भी कुछ। यह लंगड़ा होने से क्या होता है ? हजार काम कर सकते हो। आँखे तो साबुत हैं। आँख है तो जहान है।’ तो उसने कहा, ‘देवी जी, पहले मैं अंधा भी हुआ करता था। तब लोग यह कहते थे, अंधे हो, इससे क्या होता है ? अरे, हजार काम कर सकते हो। अंधे कई काम करते हैं। तब से मैं लंगड़ा हो गया। अब देखो तो, लोग दूसरी बात समझाने लगे फिर।’ 

तुम अगर चाहते हो कि दुनिया से दुःख मिटे, दुःख घटे, तो लोगों की ऐसी स्थिति मत बनाओ कि जिसमें उनको दुःख में हित मालूम होने लगे। श्रेष्ठ को सत्कारो। सुन्दर को स्वीकारों। सुख को स्वीकारों। सुख का गुणगान करो। दुःख है, उसका इलाज करो, मगर स्वागत नहीं। दुःख है, उसे सहानुभूति दो, लेकिन इतनी नहीं, कि लगे कि तुम प्रेम में पड़ गए हो। दुःखी को यह पता होना चाहिए कि लोग शिष्टाचार, संस्कार, सभ्यता के कारण सेवा कर रहे हैं। उन्हें सेवा में कोई रस नहीं आ रहा है। मजबूरी में सेवा कर रहे है। करनी पड़ रही है, इसलिए सेवा कर रहे हैं।

दुःखवादियों ने बड़ा प्रचार किया है कि दुनिया में दुःखी पर दया करो। मैं कहता हूं, सुखी पर दया करो, तो दुनिया में दुःख कम होगें। इस तरह की शिक्षाओं की वजह से संसार में दुःख बढ़े हैं।

पवित्रता


जब तक हमे अपवित्रता दिखाई पडे, जानना चाहिए कि उसके कुछ न कुछ अवषेश जरुर हमारे भीतर है। वह स्वयं के अपवित्र होने की सूचना से ज्यादा और कुछ नही है।

सुबह की प्रार्थना के स्वर मंदिर मे गूँज रहे थे। आचार्य रामानुज भी प्रभु की प्रार्थना मे तल्लीन से दिखते मंदिर की परिक्रमा कर रहे थे । और तभी अकस्मात् एक चांडाल स्त्री उनके सम्मुख आ गई। उसे देख उनके पैर ठिठक गए, प्रार्थना की तथाकथित तल्लीनता खंडित हो गई और मुँह से अत्यन्त कठोर शब्द फूट पडे, चांडालिन मार्ग से हट, मेरे मार्ग को अपवित्र न कर। प्रार्थना करती उनकी आँखो मे क्रोध आ गया और प्रभु की स्तुति मे लगे ओठो पर विष। किंतु वह चांडाल स्त्री हटी नही, अपितु हाथ जोडकर पूछने लगी, ’स्वामी, मै किस ओर सरकूं ? प्रभु की पवित्रता चारो ओर है। मै अपवित्र किस ओर जाऊं ? मानो कोई परदा रामानुज की आंखो के सामने से हट गया हो, ऐसे उन्होने उस स्त्री को देखा। उसके थोडे से शब्द उनकी सारी कठोरता ले गए। श्रद्धावान हो उन्होने कहा था, ‘मां, क्षमा करो । भीतर का मैल ही हमे बाहर दिखाई पडता है। जो भीतर की पवित्रता से आंखो को माँज लेता है, उसे चहुँ ओर पावनता ही दिखाई देती है।

प्रभु को देखने का कोई और मार्ग मै नही जानता हूं। एक ही मार्ग है और वह है सब ओर पवित्रता का अनुभव होना। जो सब मे पावन को देखने लगता है, वही और केवल वही प्रभु के द्धार की कुँजी को उपलब्घ कर पाता है।

आलोचक

जो जीवन में कुछ भी नहीं कर पाते, वे अक्सर आलोचक बन जाते हैं। जीवन-पथ पर चलने में जो असमर्थ हैं, वे राह के किनारे खड़े हो, दूसरों पर पत्थर ही फेंकने लगते हैं। यह चित्त की बहुत रूग्ण दशा हैं। जब किसी की निन्दा का विचार मन में उठे, तो जानना कि तुम भी उसी ज्वर से ग्रस्त हो रहे हों। स्वस्थ व्यक्ति कभी किसी की निन्दा में संलग्न नहीं होता। शरीर से बीमार ही नहीं, मन से बीमार भी दया के पात्र हैं।

LinkWithin

Blog Widget by LinkWithin