रविवार, 13 नवंबर 2011

मुस्कराने से आधे दुःख दूर हो जाते है।

1) लुकमान से किसी ने पूछा-आपने ऐसी तमीज किस से सीखी, उन्होने जवाब दिया बदतमीजो से। वे जो करते हैं, भोगते है उसका मैने ध्यान रखा और अपनी आदतो को उस कसौटी पर कस कर सही किया ।
----------------
2) प्यार से बच्चे खुश, 
आदर से बड़े खुश, 
दया से पशु खुश, 
रक्तदान से प्रभु खुश।
----------------
3) कर्मनिष्ठ अपनी श्रद्धा और निष्ठा की प्रबलता को लेकर आगे बढ़ते है।
----------------
4) मनोबल के बने रहने से मनुष्य में प्रसन्नता, विश्वास और उत्साह बना रहता है।
----------------
5) तीर्थो में सबसे श्रेष्ठ तीर्थ हैं - ‘‘अन्तःकरण की पवित्रता’’
----------------
6) जिनने भगवान की इच्छा के अनुरूप स्वयं को ढालने की कोशिश की, वे भगवान के कृपापात्र बन गये।
----------------
7) बच्चों पर निवेश करने की सबसे अच्छी चीज हैं अपना समय और अच्छे संस्कार। ध्यान रखें, एक श्रेष्ठ बालक का निर्माण सौ विद्यालय को बनाने से भी बेहतर है।
----------------
8) आप जीवन में कितने भी ऊँचे क्यों न उठ जाएँ पर अपनी गरीबी और कठिनाई के दिन कभी मत भूलिए।
----------------
9) मानवता की सेवा करने वाले हाथ उतने ही धन्य होते हैं जितने परमात्मा की प्रार्थना करने वाले ओंठ।
----------------
10) धीरज मत खोओ। हीनता और हताशा तुम्हें शोभा नहीं देती। अपने आत्म-विश्वास को बढ़ाओ, फिर से प्रयास करो, तुम्हें सफलता अवश्य मिलेगी।
----------------
11) बाधाओं को देखकर विचलित न हो। विश्वास रखें, जीवन में निन्यानवें द्वार बंद जो जाते है।, तब भी कोई-न-कोई एक द्वारा जरूर खुला रहता है।
----------------
12) जब आप किसी को भौतिक पदार्थ देने में असमर्थ हो, तो भी अपनी सद्भावनायें और शुभकामनायें दूसरो को देते रहिए।
----------------
13) सावधान ! पर भर का क्रोध आपका पूरा भविष्य बिगाड़ सकता है।
----------------
14) धन और व्यवसाय में इतने भी व्यस्त मत बनियें कि स्वास्थ्य, परिवार और अपने कर्तव्यों पर ध्यान न दे पाएँ।
----------------
15) मुस्कराने से आधे दुःख दूर हो जाते है।
----------------
16) संसार में न कोई तुम्हारा मित्र है और न शत्रु। तुम्हारे अपने विचार ही शत्रु और मित्र बनाने के लिए उत्तरदायी है।
----------------
17) जैसे व्यवहार की तुम दूसरों से अपेक्षा रखते हो, वैसा ही व्यवहार तुम दूसरों के प्रति करो। 
----------------
18) बहुत से काम खराब ढंग से करने की बजाय, थोड़े काम अच्छे ढंग से करना बेहतर है।
----------------
19) आत्म-विश्वास से बढ़कर न कोई मित्र हैं, न प्रगति की कोई सीढ़ी। आप इस मित्र को सदा अपने साथ रखिए। यह आपको पर्याप्त सम्बल देगा।
----------------
20) मान-सन्मान सदा औरो को देने के लिए होता हैं, औरों से लेने के लिए नही।
----------------
21) हमें जो मिला हैं, हमारे भाग्य से ज्यादा मिला है। यदि आपके पाँव में जूते नहीं हैं, तो अफसोस मत कीजिये। दुनिया में कई लोगों के पास तो पाँव ही नहीं है।
----------------
22) किसी शान्त और विनम्र व्यक्ति से अपनी तुलना करके देखिए, आपको लगेगा कि, आपका घमण्ड निश्यच ही त्यागने जैसा है।
----------------
23) पीडि़त से यह मत पूछिये कि तुम्हार दर्द कैसा है। उसकी पीड़ा को स्वयं में देखिए और फिर आप वह सब कीजिए जो आप अपनी ओर से कर सकते है।
----------------
24) जो दुःख आने से पहले ही दुःख मानता हैं, वह आवश्यकता से ज्यादा दुःख उठाता है।
----------------

उपासना

लोग उपासना का एक अंश ही सीखे हैं-कर्मकाण्ड। जप, हवन, पूजन, स्तवन आदि शरीर एवं पदार्थो से सम्पन्न हो सकने वाली विधि-व्यवस्था तो कर लेते है, पर उस साधना को प्राणवान सजीव बनाने वाली भावना के समन्वय की बात सोचते तक नहीं। सोचे तो तब, जब भावना नाम की कोई चीज उनके पास हो। बडी मछली छोटी मछली को निगल जाती हैं और कामना-भावना को, कामनाओं की नदी में आमतोर से लोगो की भाव कोमलता जल-भुनकर खाक होती रहती हैं तथ्य यह हैं कि भावना पर श्रद्धा विश्वास पर आन्तरिक उत्कृष्टता पर ही अध्यात्म की, साधना की और सिद्धियों की आधारशिला रखी हुयी है। यह मूल तत्व ही न रहे तो साधनात्मक कर्मकाण्ड, मात्र धार्मिक क्रिया-कलाप बन कर रह जाते हैं। उनका थोडा सा मनोवैज्ञानिक प्रभाव ही उत्पन्न होता हैं। साधना के चमत्कार श्रद्धा पर अवलम्बित है।

देशभक्त नवनिर्माण के कार्य में जुट जाए

सरकार अपराधियों को दण्ड देकर आर्थिक प्रगति के थोड़े साधन जुटा सकती है पर व्यक्तिगत मूढ़ता एवं दृष्टता को, सामाजिक भ्रष्टता एवं अस्त-व्यस्तता को मिटाना उसके बलबूते की बात नहीं । अधिनायकवाद की बात दूसरी है । प्रजातंत्र में यह बात नहीं । प्रजातंत्र में व्यक्ति अथवा समाज-सुधार का कार्य लोकसेवियों पर निर्भर रहता है । उन्हीं की सत्ता, व्यक्ति या समाज का स्तर ऊँचा उठा सकने में समर्थ हो सकती है । प्राचीनकाल में देश का गौरव उच्च शिखर पर पहुँचाये रखने का सारा श्रेय यहाँ के लोक-सेवियों को है । वे अपना सारा समय दो कार्यों में खर्च करते थे । प्रथम - अपना व्यक्तित्व उच्चकोटि का विनिर्मित करना, ताकि जनता पर उसका उचित प्रभाव पड़ सके । द्वितीय - निरन्तर अथक परिश्रम तथा अनवरत उत्साह के साथ जन-मानस में उत्कृष्टता भरने के लिए संलग्न रहना । साधु-ब्राह्मण और वानप्रस्थों की यही परम्परा एवं कर्म पद्धति थी । उनकी संख्या जितनी बढ़ती थी उसी अनुपात से राष्ट्रीय जीवन की हर दिशा में समृद्धि का अभिवर्द्धन होता चलता था । यही रहस्य था अपने गौरवमय इतिहास का । दुर्भाग्य ही कहना चाहिए, कि वे तीनों ही संस्थाएँ आज नष्ट हो गई । ब्राह्मण, साधु और वानप्रस्थ तीनों ही दिखाई नहीं पड़ते । उनकी तस्वीरें और प्रतिमाएँ बड़ी संख्या में घूमती- फिरती नजर आती हैं पर उनका लक्ष्य, आदर्श और कर्त्तव्य सर्वथा विपरित हो गया, ऐसी दशा में उनकी उपयोगिता भी नष्ट हो गई ।

दुर्भाग्य का रोना-रोने से काम न चलेगा । अभाव की पूर्ति दूसरी तरह करनी होगी । हम गृहस्थ लोग ही थोड़ा थोड़ा समय निकाल कर लोक-मंगल की सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्द्धन करना अपना धर्म कर्त्तव्य समझें और उसके लिए निरन्तर कुछ न कुछ योगदान देने के लिए तत्परता प्रकट करने लगें तो उस आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है, जिस पर प्रगति का सारा आधार अवलम्बित है । आवश्यकता ऐसे लोगों की है, जिनके अन्त:करण में देशभक्ति, समाज-सेवा एवं लोक-मंगल के लिए कुछ करने की उमंग भरी भावनाएँ लहरा रही हों । ऐसे ही नर-रत्न अपना जीवन धन्य करते हैं, अपने समय की महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ सम्पादित करते हैं । देशभक्त नवनिर्माण के कार्य में जुट जाए

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (६.८९)

LinkWithin

Blog Widget by LinkWithin