बुधवार, 27 जुलाई 2011

हमारा स्मारक

किसी को हमारा स्मारक बनाना हो तो वह वृक्ष लगाकर बना सकता है  वृक्ष जैसा उदार, सहिष्णु और शांत जीवन जीने की शिक्षा हमने पाई उन्हीं जैसा जीवनक्रम लोग अपना सकें तो बहुत हैं हमारी प्रवृति, जीवन विद्या और मनोभूमि का परिचय वृक्षों से अधिक और कोई नहीं दे सकता अतएव वे ही हमारे स्मारक हो सकते हैं

-पं. श्री राम शर्मा आचार्य

जनमानस का परिष्कार

"हमारे गुरु की आवश्यकता थी, इसलिए हम उनके इशारों पर कठपुतली की तरह नाचते रहे | उनका इशारा हमें स्पष्ट ध्यान में है | आज युग देवता का, महाकाल का इशारा यही है की हमको जनजाग्रति के लिए काम करना होगा | विचार-क्रांति अभियान आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है; क्योंकि इस युग की सभी समस्याएँ इसलिए पैदा हुई है की आदमी की अक्ल ख़राब ही गई है | न पैसा कम है, न कोई और चीज | बस, अक्ल ख़राब है | अक्ल को ठीक करने के लिए हमें विचार-क्रांति में हिस्सा लेना चाहिए | क्रियाकलापों में आदर्शवादिता का समन्वय यही है हमारा विचार-क्रांति अभियान | ऋषि और ब्राह्मण सदा से एक ही काम करते रहे हैं- जनमानस का परिष्कार | इसी के लिए युग देवता ने, महाकाल ने पुकार लगाईं है |"

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी

रामायण जीना सिखाती हैं, महाभारत मरना सिखाती है।

1) प्रेम तन्दरुस्त इन्सान का स्वभाव हैं और काम और मोह बीमार व्यक्ति का स्वभाव है।
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2) प्रेम आध्यात्मिक प्रगति का प्रधान अवलम्बन है।
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3) प्रेम आदान नहीं प्रदान चाहता है।
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4) प्रेम-तत्त्व अन्तःकरण में जितना होगा, उसी अनुपात में सद्गुणों का विकास होगा और इसी विकास से आत्मबल की मात्रा नापी जा सकती है। कहना न होगा कि आत्म-बल ही मनुष्य की गरिमा का सार हैं और उसी के बल पर बाह्म और आन्तरिक ऋद्धि-सिद्धिया उपलब्ध की जाती है।
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5) प्रेमी को प्रभु त्याग नहीं सकते।
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6) प्रेरणा जहा खतम होती हैं, नियति का आरम्भ वहीं से होता है।
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7) प्रजापति ने देव, दानव और मानवों का मार्गदर्शन करते हुए उन्हे एक शब्द का उपदेश किया था ‘ द ’। तीनो चतुर थे, उन्होने संकेत का सही अर्थ अपनी स्थिति और आवश्यकता के अनुरुप निकाल लिया। कहा गया था ‘ द ’। देवताओं ने दमन (संयम), दैत्यों ने ‘दया’, मानवों ने ‘ दान ’ के रुप में उस संकेत का भाष्य किया, जो सर्वथा उचित था।
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8) श्रद्धा का परिचय प्रत्यक्ष करुणा के रुप में मिलता है।
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9) श्रद्धा का अर्थ हैं परिपूर्ण विश्वास। ऐसा विश्वास जिसमें शंका-कुशंका का, तर्क-विर्तक आदि की कोई गुजाईश न हो।
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10) श्रद्धा का अर्थ हैं-श्रेष्ठता के प्रति अटूट आस्था।
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11) श्रद्धा के अभिसिंचन से पत्थर में देवता का उदय किया जा सकता है।
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12) श्रद्धा ही जननी है।
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13) श्रद्धा स्वयं में एक सशक्त मान्यता प्राप्त विज्ञान है।
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14) श्रद्धा वह अलौकिक तत्व हैं, जिससे पल-पल चमत्कार घटित होते है।
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15) श्रद्धा तत्परता की जननी हैं।
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16) श्रद्धा आविर्भाव सरलता और पवित्रता के संयोग से होता है।
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17) श्रद्धा और भक्ति के शिकंजे में परमात्मा को जकडा जा सकता है।
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18) श्रद्धा, विश्वास, साहस, धैर्य, एकाग्रता, स्थिरता, दृढता और संकल्प ही वे तत्व हैं, जिनके आधार पर साधनाए सफल होती है।
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19) श्रम ईश्वर की सबसे बडी उपासना है।
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20) श्रम करने में ही मानव की मानवता है।
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21) श्रम का अर्थ हैं-आनन्द और अर्कमण्यता का अर्थ हैं-दुःख।
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22) श्रम स्वर्ण का एक ढेला हैं, उसे जिस साचे में ढाल दीजिए, वैसा ही आभूषण बन जाएगा।
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23) श्री कृष्ण को प्रणाम करके यदि यात्रा प्रारम्भ की जाये तो विजय प्राप्त होती है।
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24) रामायण जीना सिखाती हैं, महाभारत मरना सिखाती है।

प्रसन्नता सब सद्गुणों की जननी है।

1) प्रामाणिकता मानव जीवन की सबसे बडी उपलब्धि है। वह उत्तरदायित्व निबाहने, मर्यादाओ का पालन करने और कर्तव्य पालन में सतत् जागरुक रहने वालो को ही मिलती है।
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2) प्रामाणिकता ही प्रतिष्ठा की आधारशिला है।
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3) प्रार्थना प्रातःकाल की चाबी और सांयकाल की सांकल है।
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4) प्रार्थना से रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढती हैं।
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5) प्रार्थना वही कर सकता हैं जिसकी आत्मा उच्च हो।
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6) प्रारम्भ सुंदर अंत भयंकर यह हैं-भोग, 
प्रारम्भ कष्टदायक, अंत आनन्ददायक यह हैं-त्याग।
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7) प्रज्ञा का अर्थ हैं-स्वविवेक। इतना दृढ जिसमें अपना संकल्प ही मूर्तिमान हो सके। किसी से पूछने की कोई गुंजाइश ही न रहे।
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8) प्राचीन महापुरुषों के जीवन से अपरिचित रहना जीवन भर निरन्तर बाल्य अवस्था में रहना है।
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9) प्राचीन समय में जब धरती का वातावरण सतयुगी था तो प्रत्येक व्यक्ति उत्कृष्ट चिन्तन और श्रेष्ठ आचरण वाला ऋषि पैदा हुआ करता था। तब उनकी जनसंख्या तैतीस करोड थी। इसी कारण कर्मकाण्डो में तैंतीस कोटि देवताओं के रुप में आज भी उनका आवाहन और स्थापन किया जाता हैं।
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10) प्रातः धर्म सेवन, मध्यान्ह अर्थ सेवन और रात्रि काम सेवन करना चाहिये।
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11) प्रसन्न रहना ईश्वर की सबसे बडी सेवा है।
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12) प्रसन्न रहने के दो ही उपाय हैं - आवश्यकतायें कम करे और परिस्थितियों से तालमेल बिठाये।
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13) प्रसन्नचित्त व्यक्ति अधिक जीते है।
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14) प्रसन्नता सब सद्गुणों की जननी है।
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15) प्रत्येक का उपदेश सुनो पर अपना उपदेश कुछ ही व्यक्तियों को दो।
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16) प्रत्येक पापी का भविष्य हैं, जैसे हर संत का एक भूत था।
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17) प्रत्येक व्यक्ति जिससे में मिलता हू, किसी न किसी बात में मुझसे बढकर हैं और वही में उससे सीखता हूँ।
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18) प्रेम की ही पराकाष्ठा प्रार्थना बन जाती है।
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19) प्रेम को जगाओ। और मै जानता हूँ कि तुम परमात्मा के प्रेम में एकदम नहीं पड सकते। तुमने अभी पृथ्वी का प्रेम भी नहीं जाना, तुम स्वर्ग का प्रेम कैसे जान पाओगे ? इसलिये मैं निरन्तर कह रहा हूँ कि मेरा संदेश प्रेम का हैं। पृथ्वी के प्रेम को तो जानो, तो फिर वही प्रेम तुम्हे परमात्मा के प्रेम की तरफ ले चलेगा। ओशो।।
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20) प्रेम के बिना ज्ञान बिना मल्लाह की नौका है।
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21) प्रेम में मनुष्य सब कुछ देकर भी यह सोचता हैं कि अभी कम दिया है।
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22) प्रेम में स्थिरता और दीर्घता लाने के लिए मनुष्य के पास विशाल मस्तिष्क भी होना चाहिये।
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23) प्रेम ही आत्मा का प्रकाश है, जो इस प्रकाश मे जीवन पथ पर अग्रसर होते हैं उसके संसार में शूल नहीं फूल नजर आता है।
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24) प्रेम सबसे करो, विश्वास कुछ पर करों, बुरा किसी का मत करो।

अखण्ड ज्योति फरवरी 1968
















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