रविवार, 24 जुलाई 2011

प्रशंसा भी एक अदृश्य पिंजरा ही है।

1) पुरुषार्थी बढते हैं और सिद्धिया पाते है।
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2) पुरुषार्थ मेरे दाये हाथ में हैं और सफलता मेरे बाये हाथ में।
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3) पुण्य-परमार्थ का कोई भी अवसर टालना नहीं चाहिये।
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4) पुत्र और शिष्य के सामने हार जाना ही विजय है।
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5) पुत्रेष्णा, वित्तेषणा, लोकेषणा से बचे।
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6) पुरानी गलतियों को सुधारना ही अभ्यूदय के मार्ग मे आगे बढना है।
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7) पुस्तक ही एकमात्र अमरत्व है
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8) पुस्तक जेब में रखा हुआ बगीचा हैं, जिसकी सुगंध आस-पास के लोगों को भी महका सकती हैं।
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9) पुस्तकों की उपयोगिता अध्ययन से ही हैं अन्यथा वे कीडों का भोजन बनने के सिवा कुछ नहीं करती है।
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10) पुस्तकों का अध्ययन ऐसी साधना हैं, जिससे मनुष्य अपने अन्तर्बाहृ जीवन का पर्याप्त विकास कर सकता है।
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11) पुस्तके वे दर्पण हैं, जिनमें संतो तथा वीरों के मस्तिष्क हमारे लिये प्रतिबिम्ब होते है।
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12) पत्थर आखिरी चोट से टूटता हैं, पर पहले की चोंटे भी बेकार नहीं जाती।
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13) पैर फिसलने की अपेक्षा जुबान फिसलने पर संभलना ज्यादा मुश्किल हैं।
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14) पैरो को धोने के बाद ही भोजन करें , किन्तु पैरो को धोकर ( गीले पैर ) शयन न करे।
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15) पैसा ईमानदारी से कमायें और शराफत से खर्च करे।
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16) पैसे से भी महत्वपूर्ण सम्पत्ति हैं-समय। खोया हुआ पैसा फिर पाया जा सकता हैं, पर खोया हुआ समय फिर कभी लौट कर नही आता।
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17) पूर्णतः भले व्यक्ति सिर्फ दो हैं, एक वह जो मर गया और दूसरा वह जो अभी पैदा नहीं हुआ।
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18) पूछने वाला एक बार मूढ बनता है, मौन धारण करने वाला आजीवन।
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19) पूर्व या दक्षिण की ओर सिर रखकर सोने से आयु बढ़ती है।
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20) पूर्व अवस्था में वह कार्य करें,जिससे वृद्ध होकर सुख पूर्वक रह सके और जीवन पर्यन्त वह कर्म करें, जिससे मरकर परलोक में सुखपूर्वक रह सके।
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21) पूर्वकाल में पढी हुयी विद्या, पूर्वकाल में दिया गया दान एवं पूर्वकृत कर्म मनुष्य के आगे-आगे चलते है।
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22) पूत-सपूत वही कहलाता, जो मात-पिता-गुरु मान बढाता।
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23) पूज्य गुरुदेव गायत्री महामंत्र के माध्यम से ऋतम्भरा प्रज्ञा और वर्चस की साधना करते थें। इन होनो ही तत्वों को वे अपने आत्मदेवता में समाविष्ट मानते थें। उनका मत था कि जिसने अन्तःकरण को तपोवन बना लिया व वहा एकनिष्ठ होकर ब्रह्मचेतना से तादातम्य स्थापित करने का प्रयास किया वही सच्चा साधक है।
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24) प्रशंसा भी एक अदृश्य पिंजरा ही है।

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