रविवार, 3 जुलाई 2011

The Law of Win

1) ब्राह्मणत्व एक साधना हैं मनुष्यता का सर्वोच्च सोपान हैं।इस साधना की ओर उन्मुख होने वाले क्षत्रिय विश्वामित्र और शुद्र ऐतरेय ब्राह्मण हो जाते हैं। साधना से विमुख होने पर ब्राह्मण कुमार अजामिल और धुंधकारी शुद्र हो गये। सही तो हैं जन्म से कोई कब ब्राह्मण हुआ हैं ? ब्राह्मण वह जो समाज से कम से कम लेकर उसे अधिकतम दे। स्वयं के तप, विचार और आदर्श जीवन के द्वारा अनेको को सुपथ पर चलना सिखाये।
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2) कष्ट और विपत्तियाँ मनुष्य को शिक्षा देने वाले श्रेष्ठ गुण है।
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3) कबीरा मन निर्मल भयो, जैसे गंगा नीर। पीछे-पीछे हरि फिरे कहत कबीर कबीर।।
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4) कर्कोटक, दमयन्ती, नल और ऋतुपर्ण का नाम लेने से कलियुग असर नहीं करता। इसी तरह भगवन्नाम का जप, कीर्तन करने से कलियुग असर नहीं करता है।
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5) कम बोलना और ज्यादा सुनना यही बुद्धिमान के लक्षण है।
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6) कर्मो को श्रेष्ठ, विकर्मो को दग्ध तथा संस्कारों को शुद्ध करने का उपाय हैं योग।
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7) कर्म का बीज बोना अत्यन्त सरल हैं, परन्तु उसका भार ढोना अत्यन्त दुष्कर है।
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8) कर्म का मूल्य उसके बाहरी रुप और बाहरी फल में इतना नहीं हैं जितना कि उसके द्वारा हमारे अन्दर दिव्यता की वृद्धि होने में है।
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9) कर्म के पीछे कर्तापन का होना अज्ञानता का द्योतक हैं। यही कर्तापन का अभाव ज्ञानातीत अवस्था की ओर संकेत करता है।
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10) कर्म ही पूजा हैं, और कर्तव्य पालन भक्ति।
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11) कर्म, भक्ति एवं ज्ञान:- भक्ति एवं ज्ञान से विमुख कर्म केवल महत्वाकांक्षा की पूर्ति का साधन व जीवन में भटकन का पर्याय बन कर रह जाता हैं। इसी तरह कर्म एवं ज्ञान से विमुख भक्ति कोरी भावुकता बन जाती हैं और यदि ज्ञान, कर्म एवं भक्ति से विमुख हो, तो कोरी विचार तरंगे ही पल्ले पडती है। जो मात्र दिवास्वपनो की सृष्टि करती रहती है।
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12) कर्मकाण्ड और पूजा पाठ की श्रेणी में साधक तभी आता हैं, जब उसका जीवन क्रम उत्कृष्टता की दिशा में क्रमबद्ध रीति से अग्रसर हो रहा हो और क्रिया कलाप में उस रीति-नीति का समावेश हो जो आत्मवादी के साथ आवश्यक रुप से जुडे रहते है।
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13) कर्मनिष्ठता से पुरुषार्थ उसी तरह दैदिप्यमान होता हैं, जिस प्रकार अग्नि में तपने से कुन्दन।
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14) कठिनाइया एक खराद की तरह हैं, जो मनुष्य के व्यक्तित्व को तराशकर चमका दिया करती है।
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15) कठिनाई और विरोध की मिट्टी में शौर्य और आत्मविश्वास का विकास होता है।
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16) कथनी करनी भिन्न जहाँ हैं, धर्म नहीं पाखण्ड वहाँ है।
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17) कहा जाता हैं कि जीवन में दुःखो से संघर्ष करने के लिये साहस चाहिये। वास्तविकता यह हैं कि साहसी व्यक्ति तक दुःख पहुँचता ही नहीं।
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18) की हुयी भूल को पुनः न दोहराने का व्रत लेकर सरल विश्वास पूर्वक प्रार्थना करनी चाहिये।
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19) कभी मत सोचिए लोग क्या कहेंगे ? हमेशा सोचिए आप क्या करेंगे ।
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20) कपडे को रंगने से पूर्व धोना पडता हैं। बीज बोने से पूर्व जमीन जोतनी पडती हैं। भगवान का अनुग्रह अर्जित करने के लिये भी शुद्ध जीवन की आवश्यकता हैं। साधक ही सच्चे अर्थो में उपासक हो सकता हैं। जिससे जीवन साधना नहीं बन पडी उसका चिन्तन, चरित्र, आहार, विहार, मस्तिष्क अवांछनीयताओं से भरा रहेगा। फलतः मन लगेगा ही नहीं। लिप्साए और तृष्णायें जिसके मन को हर घडी उद्विग्न किये रहती हैं, उससे न एकाग्रता सधेगी और न चित्त की तन्मयता आयेगी। कर्मकाण्ड की चिन्ह पूजा भर से कुछ बात बनती नही। भजन का भावनाओं से सीधा सम्बन्ध हैं। जहाँ भावनाएँ होगी, वहाँ मनुष्य अपने गुण, कर्म, स्वभाव में सात्विकता का समावेश अवश्य करेगा।
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21) करते वहीं राष्ट्र उत्थान, जिन्हे निज चरित्र का ध्यान।
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22) करने में सावधान और होने में प्रसन्न रहें। करना तो अपना हैं, पर होना भगवान् की कृपा से हैं। अनुकूलता-प्रतिकूलता दोनो में भगवान् की समान कृपा है।
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23) करने वाले को आज तक किसने रोका हैं। रोध, अनुरोध, प्रतिरोध जैसे हेय शब्द कर्मवीरों के कोष में नहीं, निकम्मो की जीभ पर चढे होते है।
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24) कायर अपने जीवन काल में ही अनेक बार मरते हैं, वीर लोग केवल एक बार ही मरते है।

बुराई का उत्तर भलाई से दो।

1) बुद्धि की शक्ति उसके उपयोग में हैं, विश्राम में नही।
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2) बुद्धि निश्चयात्मिका हैं और मन संशयात्मक है।
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3) बुद्धि प्रेय मार्ग पर ले जाती हैं और प्रज्ञा श्रेय मार्ग पर ले जाती हैं।
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4) बुद्धि संसार की ओर ले जाती हैं और प्रज्ञा परमानन्द की ओर ले जाती है।
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5) बुद्धि वैभव चमत्कारी तो हैं, पर हृदय की विशालता से बढकर उसकी गरिमा हैं नहीं।
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6) बुद्धिमान मनुष्य कहलाता हैं और दयावान भगवान।
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7) बुद्धिमान किसी को गलतियों से हानि होते देखकर अपनी गलतिया सुधार लेते हैं।
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8) बुद्धिमान दूसरों की त्रुटियों से अपनी गलतियों को सुधारते है।
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9) बुद्धिमान व्यक्ति सदैव आत्म सन्तुष्टि रुपी लौ को अपनी इच्छाओं की आहुति से प्रकाशवान बनाये रखता है।
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10) बुराई का उत्तर भलाई से दो।
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11) बुरे समय में तीन सच्चे साथी होते हैं- धैर्य, साहस और प्रयत्न। जो इन तीनो को साथ रखता हैं, उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
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12) बुरे स्वभाव वाला मनुष्य जिस योनि में जायेगा, वहीं दुःख पायेगा। मरने पर स्वभाव साथ में जाता है।
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13) बेकार काम के लिये फुरसत तभी रहती हैं, जब सामने लक्ष्य न हो।
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14) बेरिस्टर मोहन दास कर्मचन्द गांधी भारतीय परिधान को अपना कर ही महात्मा गांधी बन सके।
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15) बना इन्द्रिया को जो दास, उसका कौन करे विश्वास।
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16) बूँद-बूँद से सागर बनता हैं और क्षण-क्षण से जीवन। बूँद को जो पहचान ले, वह सागर को जान लेता है और क्षण को जो पा ले, वह जीवन को पा लेता हैं। क्षण में शाश्वत की पहचान ही जीवन का आध्यात्मिक रहस्य है।
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17) बगीचे में फूल खिलते हैं, वातावरण सुगन्धित हो जाता हैं। मन में उत्तम विचार खिलते है, जीवन सुगन्धित हो जाता हैं। यही सुगन्धित जीवन हमारा लक्ष्य हो।
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18) ब्रह्म ज्ञान बिनु बात न करहीं, पर निन्दा करि विष रस भरही।।
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19) ब्रह्म संकल्प से प्रकट हुयी इस सृष्टि के रक्षण और पोषण में ब्रह्म के सहयोगी बनते हैं, उन्हे ब्राह्मण कहा जाता है।
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20) ब्रह्मवर्चस का अर्थ है-ब्रह्म विद्या व व्यावहारिक तप साधना का समन्वय, अध्यात्म तथा विज्ञान का समन्वय, सिद्धान्त व व्यवहार का समन्वय।
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21) ब्रह्मचर्य का अर्थ - ब्रह्म में विचरण अर्थात् सतत् मन, वचन से परमात्मा का चिन्तन करना ही ब्रह्मचर्य  हैं। स्वामी विवेकानन्दजी।
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22) ब्राह्मण जन्म से नहीं जीवन-साधना से बना करते है।
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23) ब्राह्मण अर्थात् लिप्सा से जूझ सकने योग्य मनोबल का धनी, प्रलोभनो और दबाओं का सामना करने में समर्थ। औसत भारतीय स्तर के निर्वाह में काम चलाने से सन्तुष्ठ।
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24) ब्राह्मण और गायत्री एक ही सिक्के के दो पहलू है।

सुख बाँटे, दुःख बॅटाये।

1) ईश्वर तो हैं केवल एक, लेकिन उसके नाम अनेक।
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2) ईश्वर ने इन्सान बनाया, ऊँच नीच किसने उपजाया।
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3) ईश्वर ने जिन्हे बहुत दिया हैं, उन्हे भी देने की कला सीखनी चाहिये।
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4) ईश्वर कर्म नहीं करवाता, प्रत्युत फल भुगवाता हैं। मनुष्य कर्म स्वतन्त्रता से करता है, फल परतन्त्रता से भोगता है।
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5) बढते जिससे मनोविकार, ऐसी कला नरक का द्वार।
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6) बलिदान वही कर सकता हैं, जो शुद्ध हैं, निर्भय हैं, योग्य हैं।
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7) बह गई सो गंगा, रह गया सो तीर्थ।
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8) बहुत सरल उपदेश सुनाना, किन्तु कठिन करके दिखलाना।
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9) बहुत से व्यक्ति कम योग्यता रहते हुए भी बहुत बड़ा काम कर डालते हैं और बड़ी सफलता प्राप्त करते हैं। इसका एकमात्र कारण होता हैं-संतुलित मस्तिष्क, निश्चित कार्यक्रम और व्यवस्थित क्रिया पद्धति।
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10) बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध लेई, जो बन आवे सहज में, ताहि में चित देई।।
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11) बीता हुआ समय फिर कभी लौटकर नही आता है।
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12) बीज मन्त्र:- सम्मान दे, सलाह लें। सुख बाँटे, दुःख बॅटाये।
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13) बोध की अवस्था में जिन्दगी बोझ के बजाय शिक्षालय बन जाती हैं। हर कहीं से ज्ञान का अंकुरण होता है। जो बोध में जीता है, वह सुख के क्षणों का सदुपयोग करता हैं। उसे दुःख के क्षणों का भी महत्वपूर्ण उपयोग करना आता हैं। सुख के क्षणों को वह योग बना लेता है तो दुःख के क्षण उसके लिए तप बन जाते है। प्रत्येक अवस्था में उसे जीवन की सार्थकता की समझ होती है।
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14) बोलने से अहंकार, सुनने से ज्ञान, मनन से सृजन और सदाचार से प्रसिद्धि आचरण में समाहित होती है।
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15) बालक प्रकृति की अनमोल देन हैं, सुन्दरतम कृति हैं, सबसे निर्दोष वस्तु हैं। बालक मनोविज्ञान का मूल हैं, शिक्षक की प्रयोगशाला है। बालक मानव-जगत् का निर्माता हैं। बालक के विकास पर दुनिया का विकास निर्भर हैं। बालक की सेवा ही विकास की सेवा है।
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16) बड़प्पन शालीनता से मिलता है।
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17) बड़ा वही हैं जो अपने को सबसे छोटा मानता है।
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18) बडप्पन की कसौटी एक ही हैं कि वह छोटो के साथ कैसा व्यवहार करता है।
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19) बडप्पन शालीनता से मिलता हैं। पद, प्रतिष्ठा तो उसे चमकाते भर है।
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20) बडप्पन अमीरी में नहीं, ईमानदारी और सज्जनता में निहित है।
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21) बडा आदमी बनने की महत्वाकांक्षा छोडनी चाहिये और महान् बनने की राह पकडनी चाहिये।
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22) बचपनः- यह शब्द हमारे सामने नन्हे-मुन्नों की एक ऐसी तस्वीर खिंचता हैं, जिनके हृदय में निर्मलता, आँखों में कुछ भी कर गुजरने का विश्वास और क्रिया-कलापो में कुछ शरारत तो कुछ बडों के लिए भी अनुकरणीय करतब।
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23) बच्चों को पहला पाठ आज्ञापालन का सिखाना चाहिये।
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24) बच्चे वे चमकते वे तारे हैं जो भगवान के हाथ से छूटकर धरती पर आये हैं।

जागते रहो ! सावधान रहो !

1) इस विश्व में किसी दुःखी मानव के लिये थोडी सी सहायता ढेरों उपदेश से कहीं अच्छी है।
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2) इस संसार में प्राप्त करने योग्य चीजों को जिन्होने पाया हैं उन्होने तब काम किया जब अन्य लोगो ने आराम किया। जब अन्य लोग निराश होकर हार मान कर बैठ गये तो वे निरन्तर अपने काम में जुटे रहे। ये वे लोग थे जिन्होने परिश्रम और एक उद्धेश्य की अमूल्य आदत को जिया। -ग्रेनविले क्लेजर।
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3) इच्छा में सरलता और प्रेम में पवित्रता का विकास जितना अधिक होगा, उतनी ही अधिक श्रद्धा बलवान होगी। सरलता द्वारा परमात्मा की भावानुभूति होती हैं और पवित्र प्रेम के माध्यम से उसकी रसानुभूति । श्रद्धा दोनो का ही सम्मिलित स्वरुप हैं, उसमें भावना भी हैं और रस भी।
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4) इच्छा से दुःख आता हैं, इच्छा से भय आता हैं, जो इच्छाओं से मुक्त हैं वह न दुःख जानता हैं न भय।
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5) इन्सान को सद् इन्सान केवल विचारों के माध्यम से बनाया जा सकता है।
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6) इन्सानी पुरुषार्थ एवं भगवान की कृपा मिलकर असंभव को सम्भव बनाती है।
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7) ईश्वर एक हैं, उसकी इतनी आकृतिया नहीं हो सकती जितनी की भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में गढी गयी हैं। उपयोग मन की एकाग्रता का अभ्यास करने तक ही सीमित रखा जाना चाहिये। प्रतिमा पूजन के पीछे आद्योपान्त प्रतिपादन इतना ही हैं कि दृश्य प्रतीक के माध्यम से अदृश्य-दर्शन और प्रतिपादन को समझने, हृदयंगम करने का प्रयत्न किया जाये।
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8) ईश्वर साधारण दिखने वाले लोगों को पसन्द करता हैं इसलिये उसने ऐसे लोग अधिक संख्या में बनाये है।
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9) ईश्वर उनकी मदद करता हैं, जो अपनी मदद आप करता है।
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10) ईमानदार होने का अर्थ हैं- हजार मनको में अलग चमकने वाला हीरा।
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11) ईमानदारी बरगद के पेड के समान हैं, जो देर से बढती हैं, किन्तु चिरस्थायी रहती है।
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12) ईमानदारी से चालाकी भी मात खा जाती है।
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13) ईसा का एक प्रेमपूर्ण वचन:- भयभीत न हो, निराश न हो, क्योंकि मैं तुम्हारा भगवान, तुम्हारा ईश्वर सदा तुम्हारे साथ हूँ। जहाँ-जहाँ भी तुम जाओगे, मैं तुम्हारे साथ रहूँगा।
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14) ईश्वर की सृष्टि को श्रेष्ठ, सुन्दर और समुन्नत बनाना ही उसकी आराधना हैं।
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15) ईश्वर की सर्वव्यापी दृष्टि से कोई नहीं बच सकता है।
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16) ईश्वर कभी-कभी अपने बच्चों की आँखों को आँसुओं से धोता हैं, ताकि वे उसकी कुदरत और उसके आदेशों को सही पढ सके।
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17) ईश्वर का अनुग्रह प्राप्त करने का एकमात्र उपाय हैं - साधना।
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18) ईश्वर को मनुष्य के दुगुर्णो में सबसे अप्रिय “ अहंकार ” है।
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19) ईश्वर के घर के लगती देर, किन्तु नहीं होता अन्धेर।
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20) ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण भक्त को भी उसी जैसा बना देता है।
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21) ईश्वर विष्वास का फलितार्थ हैं-आत्मविश्वास और सदाशयता के सत्परिणामों पर भरोसा।
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22) ईश्वर भक्त अभक्त का बहीखाता नहीं रखता उसके लिये हर ईमानदार अपना और हर बेईमान शैतान की बिरादरी का है।
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23) ईश्वर भक्त आस्तिक को लोकसेवी होना ही चाहिये। जिसके हृदय में अध्यात्म की करुणा जगेगी, वह सेवा धर्म अपनाये बिना रह ही न सकेगा।
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24) ईश्वर से पाना और प्राणियों में बाँटना, इसी में सच्ची सम्पन्नता, समर्थता और जीवन की सच्ची सार्थकता है।

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