मंगलवार, 17 मई 2011

माया क्या है ?

शरीर सुख के लिए अन्य मूल्यवान पदार्थों को खर्च कर देते हैं कारण यही है कि वे मूल्यवान पदार्थ शरीर सुख के मुकाबले में कमतर जँचते हैं। लोग शरीर सुख की आराधना में लगे हुए हैं परन्तु एक बात भूल जाते हैं कि शरीर से भी ऊँची कोई वस्तु है । वस्तुत: आत्मा शरीर से ऊँची है। आत्मा के आनन्द के लिए शरीर या उसे प्राप्त होने वाले सभी सुख तुच्छ हैं। अपने दैनिक जीवन में पग- पग पर मनुष्य 'बहुत के लिये थोड़े का त्याग' की नीति को अपनाता है, परन्तु अन्तिम स्थान पर आकर यह सारी चौकड़ी भूल जाता है। जैसे शरीर सुख के लिए पैसे का त्याग किया जाता है वैसे ही आत्म - सुख के लिए शरीर सुख का त्याग करने में लोग हिचकिचाते हैं, यही माया है।

पाठक इस बात को भली भाँति जानते हैं कि अन्याय, अनीति, स्वार्थ, अत्याचार, व्यभिचार, चोरी, हिंसा, छल, दम्भ, पाखण्ड, असत्य, अहंकार, आदि से कोई व्यक्ति धन इकट्ठा कर सकता है, भोग पदार्थों का संचय कर सकता है, इन्द्रियों को कुछ क्षणों तक गुदगुदा सकता है, परन्तु आत्म-सन्तोष प्राप्त नहीं कर सकता।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
धर्म तत्त्व का दर्शन और मर्म (५३)-३.१४

Maya - know it to know IT

To obtain sense pleasures we spend away our riches, because we value this experience of pleasure more than the possession of material wealth. We are so driven by these desires, running after these sense pleasures that we forget that there exists an entity even greater than our gross body. In reality Atman (soul) is even greater, more special than our body. When compared to the bliss we can experience in our soul all other sense pleasures appear inferior and trivial.

In our day-to-day life we follow the motto of - "give up as little as possible and get as much as possible", but when presented with the ultimate test, we abandon it. We are ready to give up our hard earned wealth when it is for the sake of sense pleasures, but we hesitate to give up our sense pleasures (which are little things) for the bliss of our soul (which is the greatest joy there is) - This is MAYA.

It is a well established fact that any one can obtain wealth, amass material possessions, give the senses some temporary satisfaction by indulging in tyranny, immorality, selfishness, oppression, adultery, theft, violence, deceit, arrogance, hypocrisy, lies, ego, etc. But one can never taste the bliss of self-satisfaction this way.

-Pt. Shriram Sharma Acharya
Translated from - Pandit Shriram Sharma Acharya’s work
Dharma Tatwa ka Darshan aur Marm (53)-3.14

कर भला हो भला

अच्छा काम करने पर स्वर्ग आदि का फल मिलने की बात कहीं जाती है यह कहाँ तक सच है । यह तो प्राणियों को श्रेय मार्ग पर ले जाने के लिए कही जाती है । जैसे बच्चों को दवा पिलाने के लिए कह देते हैं बेटा ! प्रेम से पीलो तो तुम्हें खिलौने मिलेंगे । बच्चा आराम का महत्त्व नहीं समझता, खिलौनों का महत्त्व समझता है, उस बहाने से अपने हित का काम स्वीकार कर लेता है ।

सामान्य मनुष्य भी श्रेष्ठ जीवन क्रम के लाभ नहीं समझता - उसे विषयों के सुख मालूम होते हैं । स्वर्ग में विषय सुख मिलने की बात से अपने लाभ का अन्दाज लग जाता है और वह उस मार्ग पर चल पड़ता है । ऐसा कहना झूठ भी नहीं है - क्योंकि जो कहा जाता है उससे अधिक ही लाभ उस मार्ग पर चलने वाले को प्राप्त होता है ।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
संस्कृति- संजीवनी श्रीमदभागवत एवं गीता - ५.१८

Be Good and Do Good

The truth behind performing good deeds to gain entry into heaven may be debatable. There are some references about such idea in the scriptures but its fundamental aim is to motivate people to follow the path in life which is moral and good for the self and the society at large.Getting a sick child take medicine is a great challenge. A mother has to resort to cajoling the child into taking medicine by saying that she would reward him with a toy. The child does not know the worth of the medicine, but he does know the worth of a toy. In the hope of getting rewarded with a toy, he takes the medicine which works in his best interest.

Similarly, an average individual does not appreciate the worth of living a high ideal life. Sensual pleasures are what interests him more. He can visualize his interest of securing the heavens which is the happiness he is seeking for. The prospects of heaven makes him take up a worthy course in life. This can’t be thought of as a deceit or a lie as it would indeed usher him in the direction which has much more to offer than the said reward.

-Pt. Shriram Sharma Acharya
Translated from - Pandit Shriram Sharma Acharya’s work
Saṁsṛti saṅjivanī Śrīmad-Bhāgwata evam Gītā 31:5.18

अपनी समस्याओं के लिए हम ही ज़िम्मेदार

जिस प्रकार मकड़ी अपने लिए अपना जाल स्वयं बुनती है। उसे कभी-कभी बंधन समझती है तो रोती-कलपती भी है किन्तु जब भी उसे वस्तुस्थिति की अनुभूति होती है तो समूचा मकड़-जाल समेट कर उसे गोली बना लेती है और पेट में निगल लेती है। अनुभव करती है कि सारे बंधन कट गए और जिस स्थिति में अनेकों व्यथा-वेदनाएँ सहनी पड़ रही थी, उसकी सदा-सर्वदा के लिए समाप्ति हो गई।

उसी प्रकार हर मनुष्य अपने लिए, अपने स्तर की दुनिया, अपने हाथों आप रचता है। उसमें किसी दूसरे का कोई हस्तक्षेप नहीं है। दुनिया की अड़चनें और सुविधायें तो धूप-छाँव की तरह आती-जाती रहती है।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
जीवन देवता की साधना-आराधना (२)- ३.१

Who creates problems ?

A spider spins its own web and remains entangled in it. At some point it starts to think that its web is its confinement and laments being trapped in it. However, when it realizes the root of the problem, it dismantles the web which it created, gulps down the threads and sets itself free. As a result, the spider experiences the joy of freedom by removing all the barriers responsible for its miseries.

In the same way, every individual creates his own cocoon, his own little world. He alone creates this world with no outside interferences and influences. The hindering and facilitating circumstances imposed by the outside world, they are just temporary and keep appearing and disappearing like the ebb and flow of the tide.

-Pt. Shriram Sharma Acharya
Translated from - Pandit Shriram Sharma Acharya’s work
Jivan Devta ki sadhana-aradhana 2:3.1

Mutiny against faith and belief, thy name is corruption

भ्रष्टाचार भौतिक पदार्थ नहीं है, यह मनुष्य की अंतर्निहित चारित्रिक दुर्बलता है, जो मानव के नैतिक मूल्य को डिगा देती है | यह एक मानसिक समस्या है | भ्रष्टाचार धर्म, संप्रदाय, संस्कृति, सभ्यता, समाज, इतिहास एवं जाति की सीमाएँ भेदकर अपनी व्यापकता का परिचय देता है | वर्तमान समय में शासन, प्रशासन, राजनीति एवं सामाजिक जीवनचक्र भी इससे अछूते नहीं हैं | इसने असाध्य महामारी का रूप ग्रहण कर लिया है | यह किसी एक समाज या देश की समस्या नहीं है वरन् समस्त विश्व की है |

आचार्य कौटिल्य ने अपनी प्रसिद्ध कृति “अर्थशास्त्र' में भ्रष्टाचार का उल्लेख इस तरह से किया है,” अपि शक्य गतिर्ज्ञातुं पततां खे पतत्त्रिणाम्| न तु प्रच्छन्नं भवानां युक्तानां चरतां गति | अर्थात् आकाश में रहने वाले पक्षियों की गतिविधि का पता लगाया जा सकता है, किंतु राजकीय धन का अपहरण करने वाले कर्मचारियों की गतिविधि से पार पाना कठिन है | कौटिल्य ने भ्रष्टाचार के आठ प्रकार बताये हैं | ये हैं प्रतिबंध, प्रयोग, व्यवहार, अवस्तार, परिहायण, उपभोग, परिवर्तन एवं अपहार |

जनरल नेजुशन ने भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय कैंसर की मान्यता प्रदान की है | उनके अनुसार यह विकृत मन मस्तिष्क की उपज है | जब समाज भ्रष्ट हो जाता है, तो व्यक्ति और संस्थाओं का मानदंड भी प्रभावित होता है | ईमानदारी और सच्चाई के बदले स्वार्थ और भ्रष्टता फैलती है |

इस्लामी विद्वान् अब्दुल रहमान इबन खाल्दुन (१३३२ - १४०६) ने कहा, व्यक्ति जब भोगवाद वृत्ति का अनुकरण करता है, तो वह अपनी आय से अधिक प्राप्ति की प्रबल कमाना करता है | इसलिए वह मर्यादा की हर सीमाएँ लाँघ जाना चाहता है और जहाँ ऐसा प्रयास सफल होता है, तो भ्रष्टाचार का 'चेन रिएक्शन' प्रारंभ होता है |

भ्रष्टाचार तीन तरह के अर्थों में प्रयुक्त होता है, रिश्वत, लूट-खसोट और भाई - भतीजावाद | इन तीनों की प्रकृति एक समान होती है | अगर इसके चरित्र का विश्लेषण किया जाए, तो इस तरह होगा, यह सदा एक से अधिक व्यक्तियों के बीच होता है | जब यह दुष्कृत्य एक व्यक्ति द्वारा होता है, तो उसे धोखेबाज कहते हैं और एक से अधिक व्यक्तियों के बीच होता है, तो भ्रष्टाचार कहलाता है | मुख्यतः यह गोपनीय कार्य है | व्यक्ति आपसी मंत्रणा कर अपने निहित स्वार्थ हेतु यह कदम उठाते हैं | इसमें नियम और कानून का खुला उल्लंघन नहीं किया जाता है, बल्कि योजनाबद्ध तरीके से जालसाजी की जाती है |

भ्रष्टाचार उन्मूलन हेतु केवल कानून बनाना ही एकमात्र विकल्प नहीं हो सकता | इसके लिए व्यक्ति के अन्दर चारित्रिक सुदृढ़ता, ईमानदारी और साहस होना अनिवार्य है | क्योंकि भ्रष्टाचार रूपी दैत्य से जूझने के लिए अंदर और बाहर दोनों मजबूत होना चाहिए | भ्रष्टाचार की जड़ें इन दोनों क्षेत्रों में गहरी हैं | अतः जागरूकता यह पैदा की जाए कि व्यक्ति को लोभ, मोह को छोड़कर साहस एवं बलशाली होना चाहिए | यह विचार एवं भाव सभी जनों के अंदर से उमगे, तो ही भ्रष्टाचाररूपी महाकुरीति का उन्मूलन संभव है |

- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

Mutiny against faith and belief, thy name is corruption

Corruption - is not a thing, it is not an external object. It is an internal flaw in the character of a human being, which shakes up his moral and ethical foundations. It is a mental affliction.

Corruption pierces the boundaries of religion, sect, culture, society, history, clans and shows its presence everywhere. Today government, administration, politics, even our social life nothing is left untouched by corruption.

It has become an incurable epidemic. This is a global problem, it’s not about a country or a society.

Acharya Kautilya has described corruption in his epic work - Arthashastra (Science of means) - in the following way – “It is possible to track the flight of a bird flying high up in the sky, but its impossible to track the activities of people who abduct money from the royal treasury”.

Acharya Kautilya describes eight forms of corruption. They are - Suppression, Use, Behaviour, Concealment, Deprivation, Consumption, Alteration and Forfeiture. In other words - pratibaṅdha or creating obstruction, prayoga or inappropriate usage, vyavahara or illicit trading, avastāra or faking accounts, pariahāyana or encouraging tax evasion, upabhoga or misappropriating funds for one’s own use, parivartana or exchange and apahāra or plundering.

General Nejushen has termed corruption as - Cancer of a nation. And according to him corruption is a product of a perverted mind. When a whole society becomes corrupt, it adversely affects the moral gauge of people and organizations. In them instead of honesty and truthfulness, selfishness and deceit flourish.

A Muslim scholar - Ibn Khaldun, 'Abd al-Rahman(1332-1406) has stated, “When a person gives in to consumerism, the desire to earn more than the current wages becomes quite strong”.

To achieve this he wants to break all the moral rules and boundaries and where this happens the "chain reaction" of corruption starts.

The word corruption is used in three contexts - bribes, extortion and favoritism.

All the three are of similar nature. If we analyze them, it would be like so - It always happens between more than one person. When a single person commits this crime its called cheating but when it transpires between a group of people its called corruption.

Chiefly it’s done in secret, behind closed doors. People deliberate between themselves and then for their own vested interests take action. Here, in such a fraud there is no explicit breaking of laws, but the fraud is executed with systematic precision.

Drafting a law cannot be the only option available to eradicate corruption. An individual’s strong moral character, honesty and courage are a must to tackle this vile demon. It requires both inner and outer strength to deal with the evils of corruption.

Therefore, people need to be educated to prevail over their weakness of greed (one’s own personal interest) and attachment (the interest of the near and dear ones) and become brave to act and be strong in character.

The widespread evil of corruption can be eradicated only when such thoughts and intents arise in people’s minds and they act on it.

- Pt. Shriram Sharma Acharya

सद्पात्र की सहायता

प्रगति के पथ पर बढ़ चलने की परिस्थितियाँ उपलब्ध हों उसके लिए दूसरों से याचना की आवश्यकता नहीं । देवताओं से भी कुछ मांगना व्यर्थ है क्योंकि वे भी सद्पात्र को ही सहायता करने के अपने नियम में बंधे हुए हैं ।

मर्यादाओं का उल्लंघन करना जिस तरह मनुष्य के लिये उचित नहीं है उसी तरह देवता भी अपनी मर्यादाएं बनाए हुए हैं कि जिसने व्यक्तित्व के परिष्कृत करने की कठोर काम करने की तपश्चर्या की हो केवल उसी पर अनुग्रह किये जाय। ईश्वरीय या दैवी अनुकम्पाएँ भी गरम दूध की तरह हैं उन्हें लेने के लिये पहले आवश्यक पात्रता का सम्पादन करना ही चाहिए ।

यह प्राथमिक योग्यता जहाँ उपलब्ध हुई कि ईश्वरीय प्रेरणा एवं व्यवस्था के अनुसार दूसरों की सहायता भी मिलनी अनिवार्य है । संसार का इतिहास इसी तथ्य का साक्षी रहा हैं ।

- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
संस्कृति-संजीवनी श्रीमदभागवत एवं गीता - १.१२५

First deserve then desire

To make the conditions favourable for our progress, we need not beseech anyone. And unless you deserve it, asking anything from the gods is futile, as they bound by their policy of helping only the ones who deserve.

As we all follow some rules in our lives and never transcend them, so do the gods. They too follow some set rules and never trespass on them. One such rule is for the bestowal of their grace - Grace is reserved only for the one who has performed the most arduous task of refinement of his character and personality.

This task, to take oneself to task, is one of the most severe penances a person can perform.

Developing the capacity to attract divine grace or help is similar to developing a tolerance level for drinking warm milk; we need to gradually and continuously increase our tolerance, our capacity for it.

Wherever this primary condition is satisfied, there the grace and system of God automatically kicks in and help comes pouring in from all the sides.

The history of our civilization is a witness to this phenomenon.

-Pt. Shriram Sharma Acharya
Translated from -
The complete works of Pt. Shriram Sharma Acharaya
Volume - 31 - Sanskriti Sanjeevani Shrimadbhagwat evum Geeta - 1.125

अखण्ड ज्योति फरवरी 1959

1. मंगल मंदिर द्वार

2. सत्य को प्रमाणों की आवश्यकता नहीं

3. मानवता और गायत्री

4. दैवी दण्ड-विधान और हमारे आचरण

5. महानता को प्राप्त कीजिए !

6. वर्तमान दूषित सामाजिक व्यवस्था ही दुख का मूल हैं

7. शक्ति और धर्म के सामन्जस्य से विश्व शान्ति

8. पहले अपना सुधार कीजिए

9. मानव-जीवन में समन्वयवाद की आवश्यकता

10. भगवान सूर्य ही जगत के आत्मा हैं !

11. सांस्कृतिक पुनरूत्थान के लिए हमारा संगठन

12. दुर्गापूजा से पशु बलि का कोई सम्बन्ध नहीं

13. संस्कारों और त्यौहारों में सामूहिकता की आवश्यकता

14. अपने ‘‘शत्रुओं’’ की तरफ से सावधान रहे

15. प्राचीन भारत में वैज्ञानिक उन्नति

16. पुनर्जन्म का सिद्धान्त और विज्ञान

17. मानव-जीवन और संघर्ष

18. शान्ति का सच्चा मार्ग-नैतिकता

19. तपोभूमि में युग निर्माण इंजिनियरों का प्रशिक्षण

20. महापुरूषों के उपदेश

21. नई महत्वपूर्ण पुस्तक

अखण्ड ज्योति जनवरी 1959

1. हृदयोद्गार

2. सुख-प्राप्ति का मूल मन्त्र-गायत्री

3. गायत्री-उपासना द्वारा विश्व कल्याण

4. गायत्री के ‘ओउम्’ की महिमा

5. गायत्री-उपासना से जीवन रक्षा

6. गायत्री जप का वैज्ञानिक रूप

7. गायत्री-मन्त्र का मूल स्वरूप

8. गायत्री-मन्त्र का महान् सन्देश

9. वैदिक गायत्री और उसका रहस्य

10. गायत्री-मन्त्र का अद्भुत प्रभाव

11. गुरू और गुरू-मन्त्र का रहस्य

12. गायत्री के चैबीस अक्षर और मस्तिष्क की चैबीस शक्तिया

13. गायत्री-स्तुति

14. आत्मानुशासन द्वारा आत्म-विकास

15. जीवन का उद्देश्य

16. गायत्री के दैनिक जप का महत्व

17. गायत्री-साधना की सफलता

18. सद्विचार प्रसार के लिए एक महत्वपूर्ण कदम

अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1958

1. गायत्री वन्दना

2. महायज्ञ का महा समारोह

3. हम अब क्या करे ?

4. मथुरा में-जब जन समुद्र लहरा उठा

5. महायज्ञ में सेवा का उच्च आदर्श

6. महायज्ञ के चार आत्मदानी

7. महायज्ञ में मैने क्या देखा

8. महा महिमामयी मथुरा-पुरी

9. महायज्ञ की दिव्य झाँकिया

10. ऐसा मेला कभी देखा था ?

11. महायज्ञ की दैवी सफलता

12. महायज्ञ में आतिथ्य के अपूर्व दृश्य

13. मथुरा में भी सत्य की विजय हुई

14. महायज्ञ में जनता की सेवा भावना

15. महायज्ञ के चार अनुपम बलिदान

अखण्ड ज्योति नवम्बर 1958

1. कांटे मत बोओ

2. सब प्रकार की उन्नति का मूल मन्त्र-गायत्री

3. समता-मूलक समाज की स्थापना कैसे हो

4. सन्त, तीर्थ और लोक कल्याण

5. सामाजिक जीवन में पंचशील का प्रयोग

6. मानवता की पुकार

7. परेशनियों की दवा स्वयं आपके पास हैं

8. मानवीय विकास और आत्मज्ञान

9. वैदिक युग की-आदर्श नारिया

10. अनुष्ठान में सात्विक आहार की आवश्यकता

11. हमारी खाद्य समस्या और सरकारी नीति

12. शिखा का महत्व और उसकी उपयोगिता

13. अपने आप को पहचानो

14. विवेकमय जीवन ही मानवता का लक्षण हैं

15. कर्म ही कल्पवृक्ष हैं

16. ईश्वरानुभूति का वास्तविक मार्ग

17. मधु (शहद) के अनुपम गुण

18. महायज्ञ में आने से पूर्व-इन आवश्यक बातों को भली प्रकार समझ लीजिये

19. सांस्कृतिक सेवा की सक्रिय शिक्षा

20. इस उमड़ते हुए जन समुद्र को रोका जाये-अन्यथा व्यवस्था काबू से बाहर हो जायेगी

अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1958

1. दैवी नौका का आश्रय लो

2. धर्म के बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकता

3. योग का वास्तविक स्वरूप और वर्तमान अवस्था

4. हिन्दू धर्म की विशेषतायें और हमारी अयोग्यता

5. गौ-रक्षा की व्यावहारिक प्रणाली

6. आंतरिक जीवन की अवहेलना

7. पौराणिक साहित्य और उसकी विशेषतायें

8. हिन्दू धर्म की उदारता और महानता

9. ज्ञान और कर्म का समन्वय ही मोक्ष-मार्ग हैं

10. वर्तमान नाशलीला का नियन्त्रण आध्यात्मिक शक्ति से होगा

11. वास्तविक ब्राह्मण और शूद्र कौन हैं ?

12. शासन-मुक्त समाज ही आदर्श समाज हैं

13. सामाजिक न्याय की स्थापना और हमारा भविष्य

14. वर्ण भेद का आधार कर्म पर रखना अनिवार्य है

15. गायत्री-परिवार एक एतिहासिक संगठन

16. सांस्कृतिक पुनरूत्थान की तीर्थयात्रा

17. नवरात्रि में सामूहिक यज्ञानुष्ठान हो

18. तीर्थयात्रा का मूल तत्व-धर्मप्रचार

19. महिला स्वयं सेविकाओं की आवश्यकता

20. इस विष से सावधान रहिए

21. रामकृष्ण परमहंस की स्वर्णिम सुक्तिया

अखण्ड ज्योति सितम्बर 1958

1. प्रतिज्ञा

2. युग निर्माण का मंगलाचरण

3. गायत्री की गुण गरिमा

4. यज्ञ का महान् महत्व

5. तप साधना द्वारा दिव्य शक्ति का अवतरण

6. महान् पूर्णाहुति के महान् लाभ

7. विश्व संकट का समाधान

8. धर्म प्रचार-सर्वश्रेष्ठ पुण्य कार्य हैं

9. यज्ञों पर असुरता के दो आक्रमण

10. महायज्ञ की पूर्णाहुति के बाद

11. ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान का ब्रह्म-भोज

12. प्रगति प्रवाह

अखण्ड ज्योति अगस्त 1958

1. एक हैं तू ही अमल अदोष

2. नीति पर चलना मनुष्य का प्रथम कर्तव्य हैं

3. ‘नकद धर्म’ का पालन करके सुखी बनिये

4. दार्शनिक ज्ञान और सच्ची धार्मिक अनुभूति

5. यजुर्वेद के सम्बन्ध में कुछ ज्ञातव्य बातें

6. भारत जगद्गुरू था और आगे भी रहेगा

7. हिन्दू जाति के पतन का एक कारण-सामाजिक असमानता

8. दिखावटी और वास्तविक नैतिकता

9. भारतीय संस्कृति का एक आधार-दानशीलता

10. भारत की संसार को अमिट देन-मूर्तिपूजा

11. गौ रक्षा अथवा गौ सेवा

12. सांसारिक प्रेम और आत्मिक प्रेम

13. मानव-स्वास्थ्य के लिए सूर्य किरणों की उपयोगिता

14. देवत्व की भावना और समाज कल्याण

15. सृष्टि-रचना के मूल तत्व

16. बौद्ध धर्म में स्त्रियों का स्थान

17. अखण्ड-ज्योति की ओर चलो

18. सन्तति-निग्रह और नैतिकता

19. यज्ञ का विरोध क्यों ?

20. गायत्री के सम्बन्ध में भ्रान्तिया

21. गायत्री परिवार समाचार

अखण्ड ज्योति जुलाई 1958

1. विश्व-रूप भगवान

2. हिंसा का प्रतिकार अहिंसा से ही होगा

3. वेदान्त और मनुष्य मात्र की समता का सन्देश

4. हमारे युवकों को कैसी शिक्षा दी जाये ?

5. संसार का सबसे प्राचीनतम ज्ञान स्त्रोत-ऋग्वेद

6. दान का उद्देश्य सामाजिक कल्याण होना चाहिए

7. ‘योग’ का वास्तविक स्वरूप

8. सुखी वृद्धावस्था

9. त्याग द्वारा ही शक्ति प्राप्त हो सकती हैं

10. गायत्री की अमोघ शक्ति

11. सच्चे और दिखावटी धर्मात्मा

12. गायत्री के प्रथम मन्त्र-दृष्टा-महर्षि विश्वामित्र

13. मन्त्र शक्ति द्वारा मेघ वृष्टि

14. अमेरीका भी आध्यात्मिकता को खोज रहा हैं

15. भारतीय संस्कृति का आधार आत्मसंयम

16. धार्मिक क्षेत्र में धूर्तता और ठगी की करतूतें

17. हमारी भूल

18. प्राणिमात्र से प्रेम करना ही वास्तविक भक्ति हैं

19. विश्राम कैसे करना चाहिए ?

20. गायत्री परिवार समाचार

अखण्ड ज्योति जून 1958

1. मानवता का आदर्श

2. सच्ची सभ्यता और इंद्रिय संयम

3. वेदान्त की सार्वभौमिकता तथा वैज्ञानिकता

4. सामाजिक-न्याय के बिना कल्याण नहीं

5. शास्त्र झूँठे नहीं हैं-समझने वाले झूँठे हैं !

6. गायत्री जीवन को सफल बनायेगी

7. पशु-प्रवृत्तियों का परिष्कार कीजिए

8. जो जस करहि सो तस फल चाखा

9. योग-मनुष्य के विकास का सर्वोत्तम मार्ग

10. समाजवाद और यन्त्रों का प्रयोग

11. बीज मन्त्र ‘‘क्लीं’’ की साधना

12. अतिथि-यज्ञ अथवा मानव सेवा

13. योगी बिना खाये-पीये कैसे जीवित रहते हैं ?

14. संत कबीर की ‘‘सोऽम’’ साधना

15. रसायन विद्या और गायत्री मंत्र

16. साहित्य-सेवा के लिए सदाचार की आवश्यकता

17. सद्ज्ञान से ही विश्व का कल्याण होगा

18. गायत्री परिवार संगठन का लक्ष्य

19. गायत्री परिवार की गतिविधियां

20. कला और सामाजिक कल्याण

अखण्ड ज्योति मई 1958

1. कंटको को फूल कर दूँ

2. अध्यात्म ही एकमात्र सत्य धर्म हैं

3. भक्ति का वास्तविक स्वरूप

4. मनुष्य देवता बन जायेगा

5. मनुष्य-जीवन में अनुशासन और गायत्री मंत्र

6. सफलता का रहस्य

7. अवतार और उसके कार्य

8. सतगुरू की कृपा से जीवन्मुक्त पद की प्राप्ति

9. मूर्ति-पूजा का वास्तविक तात्पर्य और महत्व

10. मृत्यु के समय रोना पीटना अनुचित हैं

11. मनुष्य का उत्तरदायित्व और उसका कर्तव्य

12. धर्म बनाम समाजवाद

13. भारतीय विज्ञान का अपूर्व ग्रन्थ

14. विश्वामित्र ऋषि और गायत्री

15. मन की अपार शक्ति और उसका उपयोग

16. भारतीय संस्कृति के पुनरूत्थान के लिए-गायत्री ज्ञान मंदिरों की स्थापना आवश्यक

17. गायत्री प्रेमियों को आवश्यक सूचनाये

अखण्ड ज्योति अप्रेल 1958

1. युग के चरण

2. सत्य-व्यवहार की अपार शक्ति

3. भारतीय संस्कृति का आध्यात्मिक आधार

4. शास्त्रवाद और बुद्धिवाद का समन्वय

5. कर्मवाद और मानवीय प्रगति

6. मंत्र सिद्धि द्वारा आत्म-साक्षात्कार

7. कल्पवृक्ष आपके पास ही हैं

8. छटी इन्द्रिय और उसकी चमत्कारी शक्ति

9. स्नान की लाभदायक विधि

10. क्या रसायन विद्या सच्ची हैं ?

11. गायत्री उपासना के अनुभव

12. यज्ञोपवीत एवं गुरू-दीक्षा का स्वर्ण सुअवसर

13. धर्म जाग्रति के महान् केन्द्र-देव मन्दिर

14. धर्म-प्रेमियों के सत्प्रयत्न

अखण्ड ज्योति मार्च 1958

1. आत्मावलोचन (कविता)

2. अध्यात्मवाद और भौतिकवाद

3. मानव-सभ्यता का आदि स्त्रोत-भारतवर्ष

4. जीवन का उद्देश्य और उसकी प्राप्ति

5. आध्यात्मिक जीवन का मर्म

6. प्राचीन भारत का सामाजिक जीवन

7. भारत के तीन वैष्णव सम्प्रदाय

8. आधुनिक अर्थशास्त्र अनर्थ का मूल हैं

9. मातृभूमि का वैदिक गीत

10. सच्ची वर्ण व्यवस्था ही हितकारी हैं

11. संस्कृति की उत्पत्ति और महत्व

12. चिकित्सा का एक सरल साधन-मिट्टी का प्रयोग

13. अपनी इच्छाओं को नियन्त्रण में रखिए

14. छः अवतार और मानवता की छः अवस्थायें

15. गायत्री-उपासना के अनुभव

16. अग्नि परीक्षा की घड़ी सामने आ गई

17. आपके करने के 16 आवश्यक कार्य

18. धर्म-प्रेमियों के सत्प्रयत्न

अखण्ड ज्योति फरवरी 1958

1. जीवन-ज्योति

2. साधना-तत्व अर्थात् सप्त साधन विद्या

3. योग का स्वरूप और उसकी गुप्त शक्तियां

4. धर्म का निर्णय किस प्रकार किया जाय

5. मनुष्य स्वयं अपना भाग्य विधाता हैं

6. सद्गुणों का पालन ही समाज संगठन का मूल हैं

7. सुख कैसे मिल सकता हैं ?

8. आध्यात्मिक साधना का त्रिविध मार्ग

9. संसार के विकास क्रम को चलाने वाले ‘महात्मा’

10. भारतवर्ष की प्राचीन आदर्श शासन-व्यवस्था

11. व्रत रखने के त्रिविध लाभ

12. हमारा भोजन और उसके द्वारा शरीर का पोषण

13. आत्म कल्याण का एक महान् सूत्र-भूल जाओ

14. पाप से छूटने के उपाय

15. जीवन अभिशाप क्यो बना ?

16. हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में सुधार की आवश्यकता

17. गायत्री उपासना के अनुभव

18. तपोभूमि मे स्वास्थ्य सेवा योजना

19. तीर्थ-यात्रा और ब्रह्म भोज का सच्चा स्वरूप

20. धर्म-प्रेमियों के सत्प्रयत्न

21. इस युग का महानतम गायत्री यज्ञ

22. गायत्री परिवार हमारा (कविता)

अखण्ड ज्योति जनवरी 1958

1. प्रश्नोत्तर

2. नीति पर चलना ही श्रेष्ठ धर्म हैं

3. तीर्थस्थानों से आध्यात्मिक शक्ति की प्राप्ति

4. भारतीय परम्परा और साहित्य का महत्व

5. कर्म की गहन गति और कर्मफल

6. हिन्दू-धर्म के लक्षण और तीन विभिन्न स्तर

7. मानवता की ओट में

8. यदि आप ये गलतियाँ करते हैं, तो जीवन कभी सुख-शांतिमय नहीं हो सकता

9. पश्चिमी देशों में ईश्वरीय निष्ठा का प्रादुर्भाव

10. हिन्दू संस्कृति में प्रतीकों का महत्व और प्रभाव

11. समाज की न्यायानुकूल व्यवस्था कैसे हो ?

12. संतान-निग्रह आंदोलन पर एक दृष्टि

13. युग-भेद का मानव देह का अपकर्ष

14. देश-व्यापी दुर्दशा का सुधार कैसे हो ?

15. मालिकों और मजदूरों में सद्भाव की स्थापना

16. गायत्री उपासना के अनुभव

17. मुँह द्वारा सांस लेने की आदत स्वास्थ्य-नाशक हैं

18. वह कार्य जिसे किये बिना काम न चल सकेगा



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