शनिवार, 16 अप्रैल 2011

बुद्धिमान

राजा सन्यासी के पास गया उसने उस सन्यासी की बहुत ख्याति सुनी थी। पास जाकर उसने वंदना की। उसने बहुत निकटता से देखा कि सन्यासी बहुत बड़ा तपस्वी हैं, तेजस्वी हैं। हाथ जोड़कर राजा बोला, ‘धन्य हैं आप। धन्य हैं आपका संयम और त्याग। धन्य हैं आपकी तपस्या। कितना बड़ा त्याग हैं आपका। घर छोड़ दिया, परिवार का त्याग कर दिया, सारी संपदा को ठोकर मार दी, कितना महान् त्याग ! राजा स्तुति करता रहा। 

सन्यासी बोला, ‘महाराज ! व्यर्थ ही स्तुति मत करो। त्यागी मैं हूं या तुम ? त्याग मेरा बड़ा हैं या तुम्हारा ? तुम्हारा त्याग बड़ा हैं।’ राजा आश्चर्य में पड़ गया। बोला, ‘महाराज मैं कैसा त्यागी ? इतने वैभव, इतनी संपदा और सुख को मैं भोग कर रहा हूं। निरंतर भोग में बैठा हूं । कहां हैं मेरा त्याग ? कैसा हैं मेरा त्याग ?

सन्यासी ने कहा, ‘ मैने जो कहा वह सच हैं। तुम्हारा त्याग मेरे त्याग से बड़ा हैं मेरे सामने मोक्ष का सुख हैं सबसे महान् सुख हैं। इस सुख की प्राप्ति के लिए मैंने थोड़ा-सा धन का सुख छोड़ा, परिवार और संपदा का सुख छोड़ा हैं। किन्तु तुम बड़े त्यागी हो। उस महान मोक्ष और परमात्मा के सुख को छोड़कर पदार्थ के सुख में फंसे हो। अब बताओ, बड़े सुख को तुमने छोड़ा हैं या मैने ? बताओ बड़े त्यागी तुम हो या मैं ? थोड़ा रूककर सन्यासी ने कहा, ‘छोटे सुख के लिए बड़ा त्याग बुद्धिमानी नहीं हैं। इसलिए मैं बुद्धिमान हूं। 

वास्तव में वही व्यक्ति बुद्धिमान होता हैं, जो थोड़े के लिए बहुत को नहीं छोड़ता। 

-आचार्य महाप्रज्ञ

स्वर्ग-नरक

किसी ने पूछा, ‘स्वर्ग और नरक क्या हैं ? मैंने कहा, ‘हम स्वयं’। एक बार किसी शिष्य ने अपने गुरू से पूछा, ‘मैं जानना चाहता हूं कि स्वर्ग और नरक कैसे है ?’ गुरू ने कहा, ‘आंखे बंद करों और देखों।’ उसने आंाखे बंद की और शांत शून्यता में चला गया। फिर, उसके गुरू ने कहा, ‘अब स्वर्ग देखो।’ और थोड़ी ही देर बाद कहा ‘अब नरक’ जब उस शिष्य ने आंखे खोली थी, तो वे आश्चर्य से भरी हुई थी। उसके गुरू ने पूछा, ‘क्या देखा ?’ वह बोला, ‘स्वर्ग में मैंने वह कुछ भी नहीं देखा, जिसकी लोग चर्चा करते हैं। न ही अमृत की नदियां थी और न ही स्वर्ण के भवन थे, वहां तो कुछ भी नहीं था और नरक में भी कुछ नहीं था। न ही अग्नि की ज्वालाएं थी और न ही पीडि़तों का रूदन। इसका कारण क्या हैं ? क्या मैने स्वर्ग नरक देखे या नही देखेे ?

यह सुनकर उसका गुरू हँसने लगा और बोला, ‘निश्चय ही तुमने स्वर्ग और नरक देखे हैं, लेकिन अमृत की नदियां और स्वर्ण के भवन या कि अग्नि की ज्वाला और पीड़ा का रूदन तुम्हे स्वयं ही वहां ले जाने होते हैं। वे वहां नहीं मिलते। जो चीज या वस्तु हम अपने साथ ले जाते हैं, वहीं वहां हमें उपलब्ध हो जाती है। हम ही स्वर्ग हैं, हम ही नरक हैं।’

व्यक्ति जो अपने अंतस में होता हैं, उसे ही अपने बाहर भी पाता हैं। जो बाह्य हैं, वह आंतरिक का ही प्रक्षेपण हैं। भीतर स्वर्ग हो, तो बाहर स्वर्ग हैं और भीतर नरक हो, तो बाहर नरक। स्वयं में ही सब कुछ छिपा हैं। जो उसे जान लेता हैं, वह मृत्यु में भी जीवन को पा जाता हैं। उसका न आदि हैं और न अन्त।

-ओशो

अभय

शरीर को ही जो स्वयं का होना मान लेता हैं, मृत्यु उसे ही भयभीत करती हैं। स्वयं में थोड़ा ही गहरा प्रवेश, उस भूमि पर खड़ा कर देता हैं, जहां कि कोई भी मृत्यु नहीं हैं। उस अमृत-भूमि को जानकर ही जीवन का ज्ञान होता हैं। एक बार ऐसा हुआ कि एक युवा सन्यासी के शरीर पर कोई राजकुमारी मोहित हो गई। सम्राट ने उस भिक्षु को राजकुमारी से विवाह करने को कहा। भिक्षु बोला, मैं तो हूं ही नहीं, विवाह कौन करेगा ?

सम्राट ने इसे अपमान मान उसे तलवार से मार डालने का आदेश दिया। वह सन्यासी बोला, ‘मेरे प्रिय, शरीर से आरंभ से ही मेरा कोई संबंध नहीं रहा है। आप भ्रम में हैं। आपकी तलवार जो पहले से ही अलग हैं, उन्हें और क्या अलग करेगी ? मैं तैयार हूं और आपकी तलवार मेरे तथाकथित सिर को उसी प्रकार काटने के लिए आमंत्रित हैं, जैसे यह बसंत वायु पेड़ों से उनके फूलों को गिरा रही हैं। 

सच ही उस समय बसंत था और वृक्षों से फूल झर रहे थे। सम्राट ने उन झरते फूलों को देखा और उस युवा भिक्षु के सम्मुख उपस्थित मृत्यु को जानते हुए भी उसकी आनंदित आँखों को देखा। उसने एक क्षण सोचा और कहा, ‘जो मृत्यु से भयभीत नहीं हैं और जो मृत्यु को भी जीवन की भांति ही स्वीकार करता हैं, उसे मारना व्यर्थ हैं। उसे तो मृत्यु भी नहीं मार सकती।’ वह जीवन नहीं हैं, जिसका कि अंत आ जाता हैं। जो उसे जीवन मान लेते हैं, वे जीवन को जान ही नहीं पाते। वे तो मृत्यु में ही जीते हैं और इसलिए मृत्यु की भीति उन्हें सताती हैं जीवन को जानने और उपलब्ध होने का लक्षण ‘‘मृत्यु से अभय’’ हैं। 

-ओशो

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