शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

रहस्य

‘‘मैं जगत में हूं और जगत में नहीं भी हूं’’ -ऐसा जब कोई अनुभव कर पाता हैं, तभी जीवन का रहस्य उसे ज्ञात होता हैं। एक सन्यासी ने सुना कि देश का सम्राट परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया है। उस सन्यासी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। क्या यह संभव हैं कि जिसने कुछ भी नहीं त्यागा हैं, वह परमात्मा को पा सके ? वह सन्यासी राजधानी पहुंचा और राजा का अतिथि बना। उसने राजा को बहुमूल्य वस्त्र पहने देखा, स्वर्ण पात्रों में स्वादिष्ट भोजन करते देखा-रात्रि में संगीत और नृत्य का आनन्द लेते हुए भी। उसका संदेह अनंत होता जा रहा था। वह तो सर्वथा स्तब्ध ही हो गया था। सन्यासी संदेह और चिंता से सो भी नहीं सका। सुबह ही राजा ने नदी पर स्नान करने के लिए उसे आमंत्रित किया। राजा और सन्यासी नदी में उतरे। वे स्नान कर ही रहे थे कि अचानक उस शांत, निस्तब्ध वातावरण को एक तीव्र कोलाहल ने भर दिया। आग, आग, आग। नदी तट पर खड़ा राजमहल धू-धूकर जल रहा था और उसकी लपटें तेजी से घाट की ओर बढ़ रही थी। सन्यासी ने स्वयं को अपना कोपीन बचाने के लिए सीढि़यों की ओर भागते हुए पाया। लेकिन लौटकर देखा, तो पाया कि राजा जल में ही खड़े है और कह रहे हैं- ‘‘हे मुनि, यदि समस्त राज्य भी जल जाएं, तो भी मेरा कुछ भी नहीं जलता हैं।’

सम्राट थे जनक और मुनि थे शुकदेव।

लोग मुझसे पूछते हैं-योग क्या हैं ? मैं उनसे कहता हूं-अस्पर्श भाव। ऐसे जीओ कि जैसे तुम जहां हो, वहां नहीं हो। चेतना बाह्य से अस्पर्शित हो, तो स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाती हैं। 

-ओशो

विनय

कठोरता तो सदा ही अल्पजीवी हुआ करती हैं और मृदुता को दीर्घ जीवन का वरदान मिला ही हैं। जो व्यक्ति नम्र नहीं होता, विनम्र नहीं होता उसे कोई भी पसन्द नहीं करता।

एक चीनी संत ने अंतिम समय अपने शिष्यों को बुलाया और कहा, ‘तनिक मेरे मुंह में तो झांको और देखो कि कितने दांत शेष हैं ? प्रत्येक शिष्य ने देखा और कहा, ‘गुरूदेव, दांत तो कभी के टूट गए। मुख में तो एक भी दांत नहीं हैं।’ गुरू ने पूछा, ‘जिव्हा तो हैं ?’ शिष्यों ने कहा, हां।’ तब गुरू ने कहा, ‘दांत बाद में आए और पहले चले गए। जिव्हा जन्म से आई और मरने तक रही। आखिर ऐसा क्यों ? शिष्यों को मौन देखकर संत ने रहस्य खोलते हुए कहा, ‘कठोरता अल्पजीवी होती है।, दांत कठोर होते हैं, अतः जल्दी ही टूट जाते हैं। मृदुता दीर्घजीवी होती हैं। जिव्हा मृदु होती हैं, उसमें एक भी हड्डी नहीं होती इसलिए वह जीवन के अंतिम क्षणों तक बनी रहती हैं।’

हम भी मृदु बनें, विनम्र बनें। बुजुर्ग और गुरूजनों के सामने नम्रता से पेश आएं। दूसरों का सम्मान करना सीखें। विनयशील व्यक्ति जीवन में समस्त संपदाओं को सहज में ही प्राप्त कर लेता हैं। इसलिए कहा हैं कि विनय ही मोक्ष का द्वार हैं।(विणओ मोक्खं द्वार) विनय ही उन्नति का पहला सोपान हैं। विनय ही जीवन का धर्म हैं। विनयहीन दीन ही बना रहता हैं। परमात्मा की संपदा का एकमात्र अधिकारी विनयशील व्यक्ति हैं। विनय ही शून्य से पूर्ण होने की यात्रा हैं। विनयहीन व्यक्ति सदा रिक्त बना रहता हैं। 

-मुनि तरूणसागर

चापलूस

एक राजा था। वह हर समय चापलूसों से घिरा रहता था। एक दिन कुछ सियार चिल्ला रहे थे। राजा ने सभासदों से पूछा, ‘सियार क्यों रो रहे हैं ? चापलूसों ने कहा, महाराज ! यदि इनको कुछ खाने को दिया जाए, तो ये फिर नहीं रोएंगे।’ राजा ने कहा, ‘ इनके भोजन-पानी का प्रबन्ध कर दो।’ चापलूसों ने रूपये लिए, आपस में बांटा और अपने-अपने घर की ओर चले गए। दूसरे दिन देखा तो सियार फिर रो रहे थे। राजा ने पूछा, ‘अब क्यों रो रहे है ? चापलूसों ने कहा, राजन् ! अब ये कह रहे हैं कि कुछ ओढ़ने के लिए चाहिए।’ राजा ने कहा कि जाओ और उन्हें एक-एक कम्बल बांट दो। चापलूसों ने रूपये लिए और आपस में बांट कर रवाना हो गए। तीसरे दिन फिर गीदड़ चिल्ला रहे थे। चिल्लाना तो उनका गुणधर्म स्वभाव है। राजा ने पूछा, ‘अब किस वस्तु की आवश्यकता हैं इन्हें ? चाटुकारों ने कहा, ‘ये कह रहे हैं कि हमें रहने के लिए घर उपलब्ध कराए जाए।’ राजा ने कहा, ‘इनके रहने की व्यवस्था कर दो। चापलूसों ने फिर वैसा ही किया।’

शाम को देखा तो सियार फिर चिल्ला रहे है। राजा ने सुना और पूछा-अब क्या मांग हैं इनकी ? चापलूस बोले अन्नदाता ! अब इनकी सारी जरूरतों की पूर्ति कर दी हैं। अतः ये आपकी कीर्ति का बखान कर हरे है। महाराज ! ये आपके अत्यन्त कृतज्ञ हैं अतः आज से रोज शाम को आपकी जय मनाएंगे।, आपके गुण गाएंगे। राजा चापलूसों की बात सुनकर खुश हो गया। चापलूस तो खुश थे ही क्योंकि उन्हें अच्छी-खासी रकम जो मिल गई थी। 

-मुनि तरूणसागर

चरित्र

एक बहुत बड़े योगी संत थे आनन्दघन जी। एक बार एक प्रदेश के राजा-रानी आनन्दघन जी के पास आए। वे बोले, ‘गुरूवर ! और सब कुछ हैं, पर पुत्र नहीं हैं। पुत्र के बिना सम्पदा और वैभव का प्रयोजन ही क्या हो सकता हैं ? आनन्दघन जी बोले, ‘मैं क्या पुत्र दूंगा ? जाओ, और किसी से याचना करो।’ राजा-रानी ने बहुत आग्रह किया। आनन्दघन जी ने एक पन्ने पर कुछ लिखा और कहा, ‘रानी के बाएं हाथ पर बांध देना। मेरी एक शर्त मानना, सदा सदाचार का पालन करना। अहिंसा, सत्य का पालन करना। मनोकामना पूरी होगी। गरीबों का ध्यान रखना, अन्याय मत करना, शोषण और उत्पीड़न से बचना। न्याय करना।’

राजा-रानी ने सभी व्रतों का पालन प्रारम्भ कर दिया। राजा न्याय करने लगा। जनता को शोषण और उत्पीड़न से बचाया। आचरण का पक्ष उज्ज्वल हुआ। क्षमता बढ़ी। भावनाओं में शक्ति आई, संकल्प-शक्ति का विकास हुआ। संयोग की बात पुत्र की प्राप्ति हो गई। वे दोनों आनन्दघन जी के पास आकर बोले, ‘महाराज ! आपका मन्त्र सफल हुआ। हम आपके अत्यन्त आभारी हैं। आनन्दघन जी ने कहा, ‘रानी के हाथ पर बंधा हुआ लाओ। उसे पढ़ो। उसमें लिखा था-रानी को पुत्र हो, तो आनन्दघन जी को क्या ? पुत्र न हो तो आनन्दघन को क्या ? वह न कोई यन्त्र था और न मन्त्र।

जब व्यक्ति का चरित्र शुद्ध होता हैं, तब उसका संकल्प अपने आप फलित होता हैं। चरित्र की शुद्धि के आधार पर संकल्प की क्षमता जागती है। जिसका संकल्प-बल जाग जाता हैं, उसकी कोई भी कामना अधूरी नहीं रहती। 

-आचार्य महाप्रज्ञ

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