बुधवार, 2 मार्च 2011

यज्ञ और गायत्री एक-दूसरे के पूरक

गायत्री का पूरक एक और भी तथ्य है- यज्ञ । दोनों के सम्मिश्रण से ही पूर्ण आधार विनिर्मित होता है । भारतीय संस्कृति के जनक-जननी के रूप में यज्ञ और गायत्री को ही माना जाता है । यह प्रकृति और पुरुष हैं । इन्हें महामाया एवं परब्रह्रा की संयुक्त संयोजन स्तर की मान्यता मिली है । इसलिए गायत्री दैनिक साधना में अग्नि की साक्षी रखने की, दीपक, अगरबत्ती आदि को संयुक्त रखने की प्रक्रिया चलती है । गायत्री पुरश्चरण के उपरांत जप के अनुपात से हवन करने, आहुति देने कर्मकाएडों में वही सर्वोपरि है । धर्मकृत्यों के, हर्षोत्सवों के सफल शुभारंभ के अवसर प्रायः गायत्री-यज्ञ की ही प्रक्रिया संपन्न होती है । षोडश संस्कारों में, पर्व त्यौहारों में उसी की प्रमुखता एवं अनिवार्यता रहती है । 

यज्ञाग्नि की गोदी में भारतीय धर्मानुयायी को चिता पर सुलाया जाता है । जन्मकाल में नामकरण, पुंसवन, आदि संस्कारों के समय यज्ञ होता है । यज्ञोपवीत-संस्कार की चर्चा में यज्ञ शब्द का प्रथम प्रयोग होता है । विवाह में अग्नि की सात परिक्रमाओं का प्रमुख विधि-विधान है । वानप्रस्थ भी यज्ञ की साक्षी में किया जाता है । सभी पर्व-त्यौहार यज्ञाग्नि के सम्मिश्रण से ही संपन्न होते हैं, भले ही इस विस्मृति के जमाने में उसे अशिक्षित होने पर भी महिलाएँ अग्यारी के रूप में चिन्ह-पूजा की तरह संपन्न कर लिया करें । होली तो वार्षिक यज्ञ है । नवान्न का अपने लिए प्रयोग करने से पूर्व उसे सभी लोग पहले यज्ञ-पिता को अर्पण करते हैं, बाद में स्वयं खाने का प्रचलन है । गायत्री का एक अविच्छन्न पक्ष 'यज्ञ' प्राचीनकाल की मान्यताओं के अनुसार तो परब्रह्म का प्रत्यक्ष मुख ही माना गया है । प्रथम वेद-ऋग्वेद के प्रथम मंत्र में यज्ञ को पुरोहित की संज्ञा दी है, साथ ही यह भी कहा है कि वह होताओं को मणि-मुक्तकों की तरह बहुमूल्य बना देता है । अग्नि की ऊर्जा और तेजस्विता ऐसी है, जिसे हर किसी को धारण करना चाहिए । अग्नि अपने संपर्क में आने वालों को अपनी ऊर्जा प्रदान करती है, वही रीति-नीति हमारी भी होनी चाहिए । शांतिकुंज के ब्रह्मवर्चस शोध-संस्थान में जो शोध-कार्य उच्च वैज्ञानिक शिक्षण प्राप्त विशेषज्ञों द्वारा चल रहा है, उसमें गायत्री मंत्र के शब्दोंचारण और यज्ञ से उत्पन्न ऊर्जा की इस प्रयोजन के लिए खोज की जा रही है कि उनका प्रभाव अध्यात्म तक ही सीमित है या भौतिक क्षेत्र पर भी पड़ता है ? पाया गया है कि गायत्री मंत्र के साथ जुड़ी हुई यज्ञ-ऊर्जा पशु-पक्षियों, वृक्ष-वनस्पतियों तक के उत्कर्ष में सहायक होती है । उसमें मनुष्यों के शारीरिक एवं मानसिक रोगों के निवारण कर सकने की तो विशेष क्षमता है ही, प्रदूषण के निवारण और वातावरण का परिशोधन भी उसके माध्यम से सहज बन पड़ता है । जिनके आधार पर और भी व्यापक समस्याओं में से अनेकों का निराकरण बन सके । ब्रह्मवर्चस शोध-संस्थान के अतिरिक्त देश के हर कोने में यज्ञ-परंपरा को प्रोत्साहन देते हुए यह जाँच जा रहा है कि उस संभावित ऊर्जा के सहारे सत्प्रवृत्ति-संवर्द्घन और दुष्प्रवृत्ति-उन्मूलन में कहाँ, किस प्रकार और किस हद तक सहायता मिलती देखी गई है । गायत्री यज्ञों को एक स्वतंत्र आंदोलन के रूप में धर्मानुष्ठान का स्तर प्रदान किया गया है । उस अवसर पर उपस्थित जनसमुदाय को यह भी समझाने का उपक्रम चलता है कि गायत्री यज्ञों में सन्निहित उत्कृष्टतावादी प्रतिपादनों के अवधारण से वैयक्तिक एवं सामूहिक अभ्युदय में कितनी महत्वपूर्ण सहायता मिलती है । पिछले दिनों आध्यात्मिक प्रभाव की व्यापक रूप से जाँच-पड़ताल हुई है और उसे हर दृष्टि से उपयोगी पाया गया है । 
-युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 

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