शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

दान तेरे अनेक रूप

कुछ ऐसे दान जिनके लिए किसी प्रकार का धन खर्च नहीं करना पड़ता, इस प्रकार के दानों का भी कम महत्व नहीं है। जैसे -

1. मधुर वचनों का दान - यदि कोई व्यक्ति कष्ट में हैं, तो उसे मधुर वचनों के द्वारा सान्तवना प्रदान की जा सकती हैं। कभी-कभी कठोर वचनों से आन्तरिक पीड़ा हो जाती हैं, परन्तु मधुर वचन सबको प्रिय लगते हैं। मधुर वचनों से स्वयं को भी प्रसन्नता मिलती हैं।

2. प्रेम का दान - वास्तविक प्रेम तो त्याग में समाहित हैं। जब हम दूसरों के प्रति प्रेम का भाव रखते हैं तो मौके पर उनके लिए त्याग हेतु तत्पर रहना पड़ता हैं। सबके प्रति प्रेम रखना एक प्रकार से परमात्म प्रभु के प्रति प्रेम करना हैं।

3. आश्वासन दान - किसी संकटग्रस्त व्यक्ति के जीवन में आश्वासन का बड़ा महत्व हैं। कभी-कभी लोग अपने जीवन से निराश होकर आत्महत्या तक करने को तैयार हो जाते है। ऐसी स्थिति में सहायता का आश्वासन देकर अथवा सत्प्रेरणा देकर हम उन्हें बचा सकते हैं। किसी की विपरीत परिस्थितियों में सहायता का आश्वासन देकर उसका मनोबल बढ़ाया जा सकता हैं।

4. आजीविका दान - जीवनयापन एवं परिवार पालन के लिए आजीविका की आवश्यकता होनी स्वाभाविक हैं। जो व्यक्ति किसी के लिए आजीविका की व्यवस्था कर देते हैं, उनके द्वारा प्रदत्त दान आजीविका दान हैं। 

5. छाया दान - छायादार एवं फलदार वृक्ष लगाकर राहगीरों को छायादान किया जा सकता हैं। 

6. श्रम दान - अपनी सामथ्र्य के अनुसार मौके पर दूसरों के लिए श्रमदान करने से स्वयं को आनन्द की अनुभूति होती हैं-यह आनन्द ही हमारी आध्यात्मिक उन्नति की अनुभूति का द्योतक हैं। कोई वृद्ध या अशक्त व्यक्ति अपना सामान नहीं उठा पा रहा हैं तो उसका सामान उठा दे-इस प्रकार के कितने ही छोटे-मोटे कार्य हैं, जो श्रमदान के अन्तर्गत आ सकते हैं। 

7. शरीर के अंगो का दान - कहा गया हैं-‘‘शरीरं व्याधिमन्दिरम्’। यह शरीर व्यादि (रोगों)- का मन्दिर हैं। मानव-शरीर कभी भी रोगों से ग्रस्त हो सकता हैं। आजकल कई असाध्य रोग हैं, जिनके कारण व्यक्ति मृत्यु शय्या पर आ जाता हैं, ऐसे समय में कभी-कभी उसे रक्त की आवश्यकता होती हैं। रक्त का कोई विकल्प नहीं होता और न यह कृत्रिम रूप से तैयार हो सकता हैं। मनुष्य को अपने जीवनकाल में रक्तदान जैसा महान् कार्य अवश्य करना चाहिए। इसी प्रकार गुर्दा, यकृत आदि का दान भी उत्तम कोटि का दान है।

8. समय दान - निःस्वार्थ भाव से किसी सेवाकार्य में अपने समय का विनियोग करना समयदान हैं। 

9. क्षमा दान - कोई शक्तिशाली एवं सामथ्र्य सम्पन्न व्यक्ति अपराध होने पर अपराधी को दण्ड न देकर क्षमा करे तो उसे क्षमादान कहते हैं। यह कोई सहनशील और उत्तम चरित्र का व्यक्ति ही कर सकता हैं। क्षमा ही धर्म हैं, क्षमा ही सत्य हैं और क्षमा ही दान, यश और स्वर्ग की सीढ़ी हैं। क्षमा का विरोधी भाव क्रोध हैं। यह दूसरे की कम अपनी अधिक हानि करता हैं। क्रोध पर विजयी होने पर ही क्षमा की प्रतिष्ठा होती हैं। 

10. सम्मान दान - किसी व्यक्ति को सम्मान देने से उसकी अन्तरात्मा प्रसन्न हो जाती हैं। अतः दूसरों को सम्मान देने का स्वभाव बना लेना चाहिए। 
गोधन गजधन बाजिधन और रतनधन दान।
तुलसी कहत पुकार के बड़ो दान सम्मान।।

11. विद्या दान - विद्या ही मनुष्य का सर्वोत्तम धन हैं। विद्या मूलतः दो प्रकार की होती हैं- पारलौकिकी और लौकिकी। पारलौकिकी विद्या अध्यात्म विद्या हैं। वस्तुतः विद्या वही हैं, जिससे मुक्ति (मोक्ष) मिले (सा विद्या या विमुक्तये)। लौकिकी विद्या का भी कम महत्व नहीं है। चैरादि से नहीं चुराये जाने से, कभी क्षय न होने से तथा सब पदार्थों से अनमोल होने से विद्या को ही सब पदार्थों में उत्तम पदार्थ कहा गया हैं। विद्यादान अनेक प्रकार से किया जा सकता हैं। अध्यापन के द्वारा, पुस्तकदान द्वारा, छात्रवृति, आवास तथा अन्यान्य सामग्री देकर भी विद्यादान किया जा सकता हैं। विद्यालय-महाविद्यालय, विश्वविद्यालय और शौध संस्थान की स्थापना करना भी विद्यादान का प्रमुख अंग है। 

12. पुण्य दान - किसी भी अपने स्वजन व्यक्ति की मृत्यु के समय या मृत्यु के बाद उसे सद्गति मिले, शान्ति मिले, उसका उद्धार हो-इस निमित्त दयावश, करूणावश अपपे पुण्य का दान किया जाता हैं। अपने जीवन के पुण्यवाहक कर्म-व्रत, तीर्थसेवा, सन्तसेवा, अन्नदान आदि के पुण्यफल को किसी के निमित्त संकल्प कर देना पुण्यदान हैं। 

13. जप दान - पुण्यदान का ही दूसरा रूप हैं जपदान। कई लोग अपने माता-पिता तथा अपनी सन्तान आदि की सुख-शान्ति एवं आरोग्यता के लिए जप करते है। यह भी एक प्रकार का अप्रत्यक्ष दान हैं। किसी दूसरे के भले के लिए जपदान करना एक महत्वपूर्ण कार्य हैं। इस निमित्त नाम-जप आदि भी किए जा सकते है। जिसका दोहरा लाभ हैं। ऐसे व्यक्ति परोपकारी एवं आध्यात्मिक प्रवृत्ति के होते हैं। 

14. भक्ति दान - भगवद्भक्ति का मार्ग बताकर उसे पथ पर आरूढ़ करा देना भक्तिदान हैं। 

15. आशिष् दान - किसी साधु-सन्यासी, संत तथा कर्मनिष्ठ ब्राह्मण द्वारा अथवा सती-साध्वी, प्रौढ़ महिला द्वारा उन्हें प्रणाम, अभिवादन किये जाने पर वे जो आशीर्वाद प्रदान करते हैं, उसे आशिष् दान की संज्ञा दी जाती है।

कुछ ऐसे दान जो द्रव्य पर आधारित हैं, उनका भी महत्व कम नहीं है -

1. आश्रय दान - जो व्यक्ति सम्पन्न और उदार होते हैं, वे धर्मशालायें आदि बनवाकर यात्रियों के लिए रात्रिविश्राम का आश्रय देते है। कई अनाथाश्रम, वृद्धाश्रम-जैसी संस्थायें निराश्रितों को आश्रय देती हैं। जहाँ भोजन, वस्त्र तथा अन्य वस्तुओं को भी प्राप्त करने की सुविधा रहती हैं। इसके साथ ही किसी अभ्यागत, अतिथि को कुछ समय के लिए आश्रय देना भी पुण्यप्रद है। 

2. भूमि दान - सम्पत्तिशाली व्यक्ति किसी गरीब ब्राह्मण को अथवा अपने अधीनस्थ सेवक को भूमिदान करते हैं तथा मन्दिर, विद्यालय, धर्मशाला, गोशाला इत्यादि के लिए भूमिदान दिया जाता हैं। भूमिदान का बड़ा महत्व हैं। स्वतन्त्र भारत में संत विनोबा भावे ने गरीब भूमिहीनों के लिए बड़े लोगों से भूमि लेकर भूमिदान कराया था, जो भूदान-आन्दोलन के नाम से प्रसिद्ध है। 

3. स्वर्ण दान - दान में स्वर्णदान की विशेष महिमा हैं। स्वर्णदान से ऐश्वर्य और आयु की वृद्धि शास्त्रों में बतायी गई है। किसी भी वस्तु के अभाव में उस वस्तु के निष्क्रय के रूप में स्वर्णदान करने की विधि है। 

4. कन्या दान - भारतीय संस्कृति में कन्यादान की बड़ी महिमा है। शास्त्रों में कन्या को लक्ष्मी स्वरूप मानकर विष्णुस्वरूप वर को प्रदान करने की विधि है। 

5. आरोग्य दान - बीमार व्यक्ति को चिकित्सा उपलब्ध कराना तथा गरीण असहाय व्यक्ति की औषध, फल, दूध से सहायता कर और उसके रोग के शमन की व्यवस्था कर उसे स्वस्थ कर देना-यह आरोग्यदान है। 

6. वस्त्र दान - शरीर की रक्षा के लिए वस्त्र की आवश्यकता होती है। कुछ निर्धन और असहाय व्यक्तियों के पास वस्त्र का अभाव होने पर उनकी शारीरिक रक्षा के लिए वस्त्र का दान महत्वपूर्ण है।। शीतकाल में कम्बल आदि ऊनी वस्त्रों का भी गरीब छात्रों, साधु-सन्तों, निर्धन, असहाय लोगों को दान दिया जाता हैं। 

7. ग्रह दान - मनुष्य के जीवन में ग्रहों की दशा बदलती रहती हैं। ग्रहदशा के अनुसार जीवन में अनुकूलता-प्रतिकूलता की अनुभूति होती है। प्रायः प्रतिकूल परिस्थितियों में ग्रहशान्ति के निमित्त उस ग्रह से सम्बन्धित वस्तु का दान ब्राह्मण को करते हैं। 

8. तुला दान - यह जीवन का महत्वपूण दान हैं। प्राचीनकाल में तो राजा लोग स्वर्ण से अपना तुलादान करते थे। शास्त्रों में विभिन्न द्रव्यों से तुलादान करने की विधि लिखी हैं। 

9. पिण्ड दान - मुत्यु के बाद मृत प्राणी की सुख-शान्ति के लिए शास्त्रों में पिण्डदान की प्रक्रिया दी गई है। मृत व्यक्ति के उत्तराधिकारी बेटे-पोतों को यह कर्तव्य होता हैं कि वे मृत्यु के उपरान्त शास्त्रानुसार पिण्डदान आदि की प्रक्रिया पूरी करें। गया आदि तीर्थों में भी पिण्डदान करने की विधि है। पितृऋण से मुक्त होने के लिए यह परम आवश्यक हैं। 

10. गो दान - शास्त्रों में गोदान की बड़ी महिमा है। प्राचीनकाल में तो गो को ही सर्वोपरि धन माना जाता था। लौकिक एवं पारलौकिक सभी प्रकार के फलों की प्राप्ति के लिए गोदान सर्वश्रेष्ठ दान माना गया है।। अन्तिम समय में मृत्यु के पूर्व प्रायः गोदान करने का लोग प्रयास करते हैं। मृत्यु के उपरान्त श्राद्ध आदि में भी गोदान करने का विशेष महत्व है। इसके साथ ही जो गायें कसाई के हाथ में चली जाती हैं, उन्हें यदि कसाई से मुक्त कराकर उनकी सेवा-शुश्रूषा की जाय तो यह भी एक महत्वपूर्ण सत्कर्म हैं। 

साभार - कल्याण (दानमहिमा अंक-जनवरी 2011)

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