सोमवार, 3 जनवरी 2011

Great Rishis of India

1- Agastya--
The Hindu sage (Rishi) who drank the ocean empty. 
2- Bhagiratha--
The Hindu sage who brought the river Ganga from heaven to earth. 
3- Bharadwaj --
A sage of Dwaparayuga period; father of teacher Drona. 
4- Bharata -- 
Sage who wrote the treatise on Indian Dance known as Natyashastra. 
5- Brahaspati -- 
Name of a wise Hindu sage who accumulated tremendous knowledge. 
6- Dadheechi --
Hindu sage who sacrificed his backbone so good may triumph over evil. 
7- Dattatreya -- 
A sage who had elements of all three Vedic Gods (Trimuttis). 
8- Durvasa -- 
An ill tempered sage from Indian mythologies who cursed Shakuntala. 
9- Gowtama -- 
Sage of Ramayana period who cursed his wife Ahalya into becoming a stone for her infidelity. 
10- Jamadagni --
A sage from Indian mythologies who is the father of Parashurama. 
11- Kamban -- 
South Indian Poet-sage of 11th century A.D. who wrote the masterpiece Ramayana in Tamil. 
12- Madhvacharaya (1239-1319) -- 
Hindu sage who advocated Dvaitism, which emphasized the immutable difference between the individual soul and the supreme soul. 
13- Manu -- 
The sage who set up the laws for man-woman relationship in the society. 
14- Narad -- 
Hindu sage and traveler; devotee of Lord Vishnu. 
15- Parasar --
a sage who begot Vyasa though Satyavati before she married Shantanu. 
16- Ramana Maharshi (1879-1950) --
A great sage of India, who made great inroads into peace and spiritual knowledge. 
17- Vaishampayana -- 
A sage, and a pupil of Vyasa who recited the story of Mahabharat at a sacrifice held by Janamejaya. 
18- Valmiki --
Hindu sage who is believed to have composed the epic Ramayana. 
19- Vatsyayana -- 
The Hindu poet who wrote the famed treatise Kamasutra of Vatsyayana. 
20- Vishwamitra --
A great Hindu sage and scholar who is referred to as the Brahmarshi; tested truthfulness of Harischandra. 
21- Vyasa --
Ancient Indian sage and writer of the epic Mahabharata; son of Parasar and Satyavati. 
22- Yajnavalkya --
A great Hindu scholar and sage (Brahmarshi), said to have written the Shukla Yajurveda. 

सज्जन

बादशाह को एक कर्मचारी नौकर की आवश्यकता थी। तीन उम्मीदवार पेश किए गए। बादशाह ने पूछा-‘‘यदि मेरी और तुम्हारी दाढ़ी में साथ-साथ आग लगे तो पहले किसकी बुझाओगे ?’’

एक ने कहा-‘‘पहले आपकी बुझाउँगा।’’ दूसरे ने कहा-‘‘पहले अपनी बुझाउँगा।’’ तीसरे ने कहा-‘‘एक हाथ से अपनी और दूसरे हाथ से आपकी बुझाउँगा।’’

बादशाह ने तीसरे आदमी की नियुक्ति कर दी और दरबारियों से कहा-‘‘जो अपनी उपेक्षा करके दूसरों का भला करता हैं, वह अव्यवहारिक हैं। जो स्वार्थ को ही सर्वोपरि समझता हैं, वह नीच हैं। और जो अपनी और दूसरों की भलाई का समान रूप से ध्यान रखता हैं, उसे ही सज्जन कहना चाहिए। मुझे सज्जन की आवश्यकता थी।’’ सो उस तीसरे आदमी की नियुक्ति की गई।

शक्ति का केन्द्रीकरण

नदी में तेज बाढ़ आई, भयंकर शब्द करती हुई चली गई। पीछे उसका कोई भी चिन्ह शेष न रहा। 

फिर वर्षा ऋतु प्रारंभ हुई, एक गड्ढे पर बूँदे ध्यान लगाकर गिरने लगीं। हर बूँद के साथ मिट्टी का एक कण टूटकर अलग हो जाता। बरसात समाप्त हुई, अब वह गड्ढा एक विशाल तालाब बन चुका था। 

जहाँ शक्ति का केन्द्रीकरण होता हैं, जहाँ मिल-जुलकर संपन्न किए जाने वाले अनवरत प्रयत्न किए जाते हैं, वहीं ऐसी उल्लेखनीय सफलता के दर्शन होते है।

मरने से पहले चेतावनी

मनुष्य बन गया तो उसे विदा करते हुए विधाता ने कहा-‘‘तात् ! जाओ और संसार के प्राणियों का हित करते हुए स्वर्ग और मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करो और ऐसा कुछ न करना, जिससे तुम्हें मृत्यु के समय पछतावा हो।’’ आदमी ने विनय की, ‘‘भगवन् ! आप एक कृपा और करना। मुझे मरने से पहले चेतावनी अवश्य दे देना ताकि यदि मैं मार्ग भ्रष्ट हो रहा होऊँ तो सँभल जाऊँ ?’’ तथास्तु कहकर विधि ने मनुष्य को धरती पर भेज दिया, पर यहाँ आकर मनुष्य इंद्रिय-भोगों में पड़कर अपने लक्ष्य को भूल गया। जैसे-तैसे आयु समाप्त हुई, कर्मों के अनुसार यमदूत उसे नरक ले जाने लगे तो उसने विधाता से शिकायत की, आपने मुझे मृत्यु के पूर्व चेतावनी क्यों न दी ? विधाता हँसे और बोले-‘‘ (1) तेरे हाथ काँपे, (2) दाँत टूट गये, (3) आँखो से कम दीखने लगा, (4) बाल पक गए, यह चार संकेत पर भी तू न सँभला इसमें मेरा क्या दोष ?

मृत्यु प्रतिपल निकट आती हैं। उसकी सूचनाएँ भी मिलती हैं, परंतु अज्ञानवश हम अचेत ही रह जाते हैं। 

नई शक्ति

डूबते हुए सूरज से एक व्यक्ति प्रार्थना कर रहा था-‘‘भगवन् ! हमें शक्ति दो ताकि हम संसार की कुछ सेवा कर सकें।’’ पास से एक यात्री गुजर रहा था, हँसते हुए बोला-‘‘भाई ! सूर्य तो स्वयं ही डूब रहा हैं, आप उससे शक्ति माँगते हैं ?’’ भक्त ने उत्तर दिया-‘‘डूब नहीं रहा मित्र, नई शक्ति लेकर लौटने की तैयारी कर रहा है।’’

महाकाल का संदेश

परमपूज्य गुरूदेव आचार्य श्री राम शर्मा ने जीवन भर जनकल्याण हेतु साहित्य सृजन किया, उनके तप एवं ज्ञान का निचोड़ उनके साहित्य में हैं। सभी लोगों तक यह ज्ञानगंगा पहुँचे, इसीलिए ‘पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य वांग्मय’ का प्रकाशन किया गया हैं। लाखों ने इसे पढ़कर जीवन धन्य बनाया हैं। हर घर में वांग्मय की स्थापना होनी चाहिए, परिवार के लिए यह अमूल्य धरोहर एवं विरासत है

यदि आपको भगवान ने श्री-संपन्नता दी हैं तो ज्ञानदान कर पुण्य अर्जित करें। विशिष्ट अवसरों एवं पूर्वजों की स्मृति में पूज्यवर का वांग्मय विद्यालयों, पुस्तकालयों में स्थापित कराएँ। विवाह, जन्मदिवस एवं अन्य उत्सवों पर अथवा पारितोषिक स्वरूप भी यह साहित्य अमूल्य भेंट सिद्ध होगा। आपका यह ज्ञानदान आने वाली पीढ़ियों तक को सन्मार्ग पर चलायेगा, जो भी इसे पढ़ेगा, धन्य होगा। शास्त्रों में कहा हैं-

सर्वेषामेव दानानं ब्रह्मदानं विशिष्यते।
वार्यन्नगोमहीवासस्तिलकान्चनसर्पिषाम्।।
-मनुस्मृति 4/233

जल, अन्न, गौ, पृथ्वी, वस्त्र, तिल, सुवर्ण और घी इन सबके दानों में से ज्ञान का दान सबसे उत्तम हैं।

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।।
-गीता 4/33

हे परंतप ! द्रव्य यज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ हैं, क्योंकि जितने भी कर्म हैं, वे सब ज्ञान में ही समाप्त होते है। ज्ञानदान सर्वोपरि पुण्य हैं, शुभ कार्य हैं।

प्रेम और क्षमा

महात्मा तिरूवल्लुवर जुलाहे थे। बड़े होकर वे कपड़े बुनते और जो कुछ मिलता उससे ही अपनी जीविका चलाते। एक दिन संध्या के समय कोई युवक उनके पास आया और बुनी हुई साड़ी का दाम पूछने लगा। इस साड़ी को बुनने में दिन भर लग गया था। संत ने दाम बताए-‘दो रूपये’।

चर्र से दो टुकड़े कर दिए बीच में से उस युवक ने और फिर पूछा-अब इन टुकड़ों के अलग-अलग क्या दाम हैं ? संत ने कहा-‘‘एक-एक रूपया।’’ फिर उसने उन टुकड़ों के भी टुकड़े कर दिए और बोला-‘‘अब’’ तो संत ने उसी गंभीरता से कहा-‘‘आठ आने।’’ इस प्रकार वह युवक टुकड़े-पर-टुकड़े करता गया और संत धैर्यपूर्वक उसके दाम बताते रहे। 

युवक शायद उनके अक्रोध तप को भंग करने ही आया था, परंतु संत हार ही न रहे थे। युवक ने अब अंतिम वार किया। उसने तार-तार हुई साड़ी को गेंद की तरह लपेटा और कहा-‘‘अब इसमें रह ही क्या गया हैं, जिसके दाम दिए जाएँ ? यह लो तुम्हारी साड़ी के दो रूपये।’’

तिरूवल्लुवर ने कहा-‘‘बेटा ! जब तुमने साड़ी खरीदी ही नही तो फिर मैं उसका मोल कैसे लूँ ?’’ अब भी इतना धीर-गम्भीर उत्तर सुनकर उद्दंड युवक पश्चाताप से विदग्ध होकर नतमस्तक हो उठा।’’

व्यक्ति दंड द्वारा उतना नहीं सीखता, जितना प्रेम और क्षमा द्वारा। 

हमें घर-घर पहॅंचा दें

परम पूज्य गुरूदेव आचार्य श्री राम शर्मा ने एक महान उद्धेश्य ‘युग निर्माण योजना’ की पूर्ति के लिए महान तप किया और लेखनी एवं वाणी का उपयोग किया। उनके विचारों में वह शक्ति हैं-‘‘जो सोए का जगा दे, जागे हुओं को चला दे और चलने वालों को दौड़ा दे।’’ आज जब चारों ओर निकृष्ट चिंतन की भरमार हैं, पूज्यवर के सद्विचारों का प्रचार-प्रसार हमारा युगधर्म या आपद्धर्म होना चाहिए। वे कहते थे-‘‘मैं शरीर नहीं, विचार हूँ । मुझे घर-घर पहुँचा दे।’’

अपनी सुक्ष्मीकरण साधना के समय उन्होंने लिखा-‘‘ कार्य कैसे पूरा होगा ? इतने साधन कहा से आएगे ? इसकी चिंता आप न करें। आप तो सिर्फ एक बात सोचें कि अधिकाधिक श्रम व समर्पण करने में एक दूसरे से अग्रणी कौन रहा। विश्राम की बात न सोचे, अहर्निश एक ही बात मन में रहे कि हम पूर्णरूपेण खपकर कितना योगदान दे सकते हैं, कितना भार उठा सकते हैं।’’

परमपूज्य गुरूदेव के मूर्तिमान स्वरूप वांग्मय को घर-घर पहुँचाने के लिए निष्ठावान परिजनों की आवश्यकता हैं। जो भाई इस कार्य हेतु अपने को योग्य समझते हों, निम्नलिखित विवरण सहित अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा से संपर्क करें।

विवरण- नाम-पता, फोन नं. (एस.टी.डी. कोड सहित) शैक्षिक योग्यता, आयु, मिशन से कब से जुड़े, मिशन संबंधी योग्यता, पद, व्यवसाय, कब-से-कब तक का समयदान आदि।
अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा (उत्तरांचल)

वरदान

घड़ा जब तक घड़ा था, उसे अपने स्वास्थ्य और सौन्दर्य पर बड़ा अभिमान था, किंतु एक दीवार से चोट लगी और उसका सारा दर्प चूर-चूर हो गया। घड़ा टुकड़े-टुकड़े होकर जमीन पर बिखर गया।

अपनी इस स्थिति के लिए वह विधाता को कोसने लगा-‘‘तू कितना निष्ठुर हैं, तुझसे मेरी प्रसन्नता भी न देखी गई। तू सदैव हॅंसते-खेलते चेहरों को यों ही मिट्टी में मिलाया करता हैं।’’ धरती ने यह आवाज सुनी, फूटे घड़े को शान्त करती हुई बोली-‘‘वत्स ! ऐसा न कहो, तुम्हें पता नहीं, टुकड़े-टुकड़े होकर किस अनंतता में लीन हो जाने का वरदान पा रहे हो।’’

संकल्प का साम्राज्य

संकल्प विकल्प की आँधियो में न समाए और अपने अभीष्ट को प्राप्त करे इसलिए आवश्यक हैं कि हमारे जीवन के अनुरूप छोटे-छोटे संकल्प लिए जाए। छोटे-छोटे संकल्पों को पूरा करने का अभ्यास डाला जाए एवं इसमें आने वाले अवरोंधों एवं समस्याओं का गहराई से निरीक्षण करते हुए समुचित ढंग से निराकरण किया जाए। किसी दिन सामान्य-सा दिखने वाला इनसान भी चामत्कारिक कार्य कर सकता है। वह कुछ ऐसा करके दिखा सकता है।, जिसे कभी असंभव माना जाता था। संकल्प के साम्राज्य में असंभव कुछ नहीं होता हैं। अतः हमें ऐसा संकल्प लेना चाहिए, जो हमारे जीवन की दिशा को सत्प्रवृत्तियों की ओर मोड़े, हमारे मन, विचार, भाव परिष्कृत हों तथा भौतिक जीवन सुखी व समृद्ध रहे। 

बहुमूल्य ज्ञान

प्यासा मनुष्य अथाह समुद्र की ओर यह सोचकर दौड़ा कि महासागर से जी भर अपनी प्यास बुझाउगा। वह किनारे पहुँचा और अंजलि भरकर जल मुह में डाला, किंतु तत्काल ही बाहर निकाल दिया। 

प्यासा असमंजस में पड़कर सोचने लगा कि सरिता सागर से छोटी हैं, किन्तु उसका पानी मीठा हैं। सागर सरिता से बहुत बड़ा हैं, पर उसका पानी खारा हैं। 

कुछ देर बाद उसे समुद्र पार से आती एक आवाज सुनाई दी-‘‘सरिता जो पाती है, उसका अधिकांश अंश बाटती रहती हैं, किंतु सागर सब कुछ अपने में ही भरे रखता हैं। दूसरों के काम न आने वाले स्वार्थी का सार यों ही निस्सार होकर निष्फल चला जाता हैं।’’ आदमी समुद्र के तट से प्यासा लौटने के साथ एक बहुमूल्य ज्ञान भी लेता गया, जिसने उसकी आत्मा तक को तृप्त कर दिया।

परमात्मा में प्रवेश

कभी भी, कहीं से परमात्मा में प्रवेश संभव हैं, क्योंकि वह सर्वत्र हैं। बस, उसने प्रकृति की चादर ओढ़ रखी हैं। यह चादर उघड़ जाए तो प्रति घड़ी-प्रतिक्षण उसका अनुभव होने लगता हैं। एक श्वास भी ऐसी नहीं आती-जाती, जब उससे मिलन की अनुभूति न की जा सके। जिधर भी आख देखती हैं, उसी की उपस्थिति महसूस होती हैं। जहा भी कान सुनते हैं, उसी की संगीत सुनाई देता है। 

उन सर्वव्यापी प्रभु को देखने की कला भर आनी चाहिए। उसे निहारने वाली आख चाहिए। इस आख के खुलते ही वह सब दिशाओं में और सभी समयों में उपस्थित हो जाता हैं। रात में जब सारा आकाश तारों से भर जाए तो उन तारों के बारे में सोचो मत, उन्हें देखों। महासागर के विशाल वक्ष पर जब लहरें नाचती हों तो उन लहरों को सोचो सोचो मत-देखो। विचार थमे, शून्य एवं नीरव अवस्था में मात्र देखना संभव हो सके तो एक बड़ा राज खुल जाता हैं। 

और तब प्रकृति के द्वार से उस परम रहस्य में प्रवेश होता हैं जो कि परमात्मा हैं। प्रकृति परमात्मा पर पड़े आवरण से ज्यादा और कुछ भी नहीं हैं और जो इस रहस्यमय, आश्चर्यजनक एवं बहुरंगे घूँघट को उठाना जानते हैं।, वे बड़ी आसानी से जीवन के सत्य से परिचित हो जाते हैं। उनका परमात्मा में प्रवेश हो जाता हैं। 

सत्य का एक युवा खोजी किसी सद्गुरू के पास गया। सद्गुरू से उसने पूछा-‘‘मै परमात्मा को जानना चाहता हू। मैं धर्म को, इसमें निहित सत्य को पाना चाहता हॅ। आप मुझे बताए कि मैं कहा से प्रारम्भ करू ? सद्गुरू ने कहा-‘‘क्या पास के पर्वत से गिरते झरने की ध्वनि सुनाई पड़ रही हैं। उस युवक ने ‘हा’ में उत्तर दिया। इस पर सद्गुरू बोले-‘‘तब वहीं से प्रवेश करो यही प्रारंभ बिंदु हैं।’’

सचमुच ही परमात्मा में प्रवेश का द्वार इतना ही निकट हैं। पहाड़ से गिरते झरनों में, हवाओं में डोल रहे वृक्षों के पत्तों में, सागर पर क्रीड़ा करने वाली सूर्य की किरणों में, लेकिन हर प्रवेशद्वार पर प्रकृति का परदा पड़ा हैं। बिना उठाए वह नहीं उठता और थोडा गहरे उतरकर अनुभव करें तो पाएंगे कि यह परदा प्रवेशद्वारों पर नहीं, हमारी अपनी दृष्टि पर हैं। इस तरह अपनी दृष्टि पर पड़े इस एक परदे ने अनंत द्वारों पर परदा कर दिया हैं। यह एक परदा हम हटा सके तो हमारा परमात्मा में प्रवेश हो। 

अखण्ड ज्योति जुलाई 2005

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